व्यक्ति चेतना का समष्टि चेतना से संयोग

July 1982

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भारतीय दर्शन प्रकृति के दो स्वरूप माने हैं, एक परा प्रकृति और दूसरी अपरा प्रकृति। परा वह है जिसे पंच भौतिक कहा जा सकता है। इन्द्रिय चेतना से जो अनुभव की जा सके अथवा यन्त्र उपकरणों की सहायता से जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान किया जा सकता है वह परा प्रकृति है। भौतिक विज्ञान का कार्यक्षेत्र यहीं तक सीमित है। कुछ समय पूर्व तक वैज्ञानिक इतने को ही सब कुछ मानते थे। चेतना की व्याख्या करते समय यही कहा जाता था कि यह मात्र आणविक एवं कम्पन परक हलचलों की प्रतिक्रिया भर है। लेकिन विज्ञान की नई और अधुनातन खोजों ने उसके क्षेत्र को विस्तृत कर दिया है तथा अब अपरा प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार किया जाने लगा है।

अब वैज्ञानिक इस आणविक हलचल और कम्पन की प्रतिक्रिया नहीं मानते वरन् सूक्ष्म जगत कहते हैं। इस क्षेत्र की हलचलें अब आणविक गतिविधियाँ नहीं कही जातीं और न ही ताप, प्रकाश, शब्द के कम्पनों से उसकी तुलना ही की जाती है। वरन् इस क्षेत्र की हलचलों का कारण समष्टि चेतना के नाम से जाना, सम्बोधित किया जाता है। बल्ब में जलने वाली बिजली अन्तरिक्ष में संव्याप्त विद्युत शक्ति की ही एक चिनगारी जमझी जाती है और दोनों का सघन सम्बन्ध किया जाता है। यही बात अब व्यष्टि के सम्बन्ध में लागू समझी जाती है और व्यष्टि चेतना को समष्टि चेतना का ही अंग, अंश समझा जाता है। व्यष्टि चेतना की एक चिनगारी और समष्टि चेतना को व्यापक अग्नि के समकक्ष समझा स्वीकार किया जाता है।

व्यक्ति मस्तिष्क की, व्यष्टि चेतना की अपनी क्षमता है किन्तु वह सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है बल्कि वह समष्टि मस्तिष्क का ही एक अंग है। इस समष्टि मस्तिष्क को वैज्ञानिक क्षेत्र में ब्रह्माण्डीय चेतना नाम दिया जाता है। इस तथ्य को व्यक्ति और समाज के उदाहरण से भी भी भांति समझा जा सकता है। व्यक्ति समाज का ही एक अविच्छिन्न अंग है। वह समाज से अलग रहा नहीं है। एकाकी रहने लगे तो भी वह समाज से पृथक होने का दावा नहीं कर सकता। उसे अब तक जो ज्ञान, अनुभव,संस्कार कौशल आदि मिला है, उसे जो शरीर पोषण प्राप्त हुआ है सबके लिए वह समाज का ही ऋणी है। यदि वह एकाकी रहने लगे, संन्यासी बनकर गिरि कंदराओं में जीवन व्यतीत करने लगे तो भी उसे निर्वाह के लिए कुछ उपकरण साथ रखने ही पड़ेंगे। माला, कमण्डल, कैम्पीन, कुल्हाड़ी जैसे साधनों के बिना तो संन्यासियों का भी काम नहीं चलता। समाज शास्त्री इस तथ्य को बड़ी दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य जब तक एकाकी रहा तब तक वह आदिम जंगली स्थिति में रहा। उसका सामाजिक जीवन आरम्भ करना ही मनुष्य की प्रगति यात्रा का पहला चरण था। इस प्रकार एक तवासी कहलाने वाले का भूतकालीन और वर्तमान क्रिया−कलाप निश्चित तथा अनिवार्य रूप से समाज के साथ सम्बद्ध रहा है तथा आगे भी उस परम्परा में कोई अवरोध नहीं आना है।

व्यक्ति का निर्वाह और विकास जिस प्रकार समाज पर आश्रित है तथा उससे अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है ठीक इसी प्रकार व्यक्ति चेतना या व्यष्टि मस्तिष्क स्वतन्त्र दिखाई भले ही दे, वह है समष्टि चेतना का ही एक अंग। लोक रुचि और लोक मान्यताओं के बदलते रहने का भी यही कारण है। लोगों का चिंतन प्रवाह अपने में प्रायः एक ही दिशा में होता है। मनस्वी और स्वतन्त्र चिन्तक के प्रवाह की धारा एक ही दिशा में बहती है। युद्ध और शांति के दिनों में इस तथ्य को बड़ी आसानी से साकार हुआ देखा जा सकता है। अपने समय में पूर्वजों के कथन को प्रमाणिक मान लेने की श्रद्धा अब उखड़ रही है तथा तर्क और प्रमाणों पर आधानीति एवं दर्शन शास्त्र के प्रख्यात विद्वान् डयूरेन्ट डे्रक अपने ग्रन्थ “सामान्य व्यक्ति के लिए ईश्वर जगत का निर्माता पोषण तथा संहारक बनकर सद्मार्ग अपनाने एवं सदाचरण की प्रेरणा देता है। असामान्य व्यक्ति उस सत्ता को श्रेष्ठ सिद्धान्तों एवं आदर्शों के पुँज के रूप के रूप में देखता है और उसी के अनुरूप ढलने का बाध्य करता है।” वे आगे कहते है कि “ यदि हमें विश्व में एकता, समता की−सुख शान्ति एवं आनंद की− निर्झरिणी प्रवाहित करनी है तो उसके मूलभूत स्रोत एवं श्रेष्ठतम मानवी आदर्शों के प्रतीक ईश्वर को अपनाना होगा।”

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाय तो हर व्यक्ति चाहता है कि कोई उसका एक ऐसा संरक्षक हो जो समर्थ हो तथा आपत्तिकाल में उसका सहयोग करे। ऐसी समर्थ सत्ता ईश्वर ही हो सकती है जो मनुष्य को हर समय अपना सूक्ष्म संरक्षण दे सके। वाल्टेयर ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखकर, एक बार कहा था कि “यदि ईश्वर नहीं है तो हमें उसकी सर्जना करनी होगी क्योंकि ईश्वर के बिना अधिकांश लोगों का जीवन तुच्छ, असहाय एवं दुःख पूर्ण है।”

काल जुँग के अनुसार धर्म के अवलम्बन से मनुष्य उसी प्रकार शान्ति की अनुभूति करता है जिस तरह बच्चा माँ की गोद में पहुँचने के बाद अनुभव करता है। व्यक्ति जब अपने को निस्सहाय महसूस करता है। तो ऐसे अवसरों पर किसी सर्व समर्थ पिता पर विश्वास कर ही वह शान्ति अनुभव करता है।

मनोविज्ञान वेत्ता कार्ल जुँग की मान्यता है कि “धर्म की सहायता एवं किसी सर्वसमर्थ सत्ता के अवलम्बन से व्यक्ति जीवन के कालुष्य को जीत सकता है” शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य स्थिर बनाये रखने से लेकर मनुष्य को श्रेष्ठ महान बनाने के सारे आधार अध्यात्म में विद्यमान है।”


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