मस्तिष्क को असंतुलित न रहने दें

July 1982

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मस्तिष्क मानवी सत्ता का ध्रुव केन्द्र है। उसकी शक्ति असीम है। इस शक्ति का सही उपयोग कर सका यदि सम्भव हो सके तो मनुष्य अभीष्ट प्रगति पथ पर बढ़ता ही जला जाता है। अभीष्ट प्रगति पथ पर बढ़ता ही चला जाता है। मस्तिष्क के उत्पादन इतने चमत्कारी है कि इनके सहारे भौतिक ऋद्धियों में से बहुत कुछ उपलब्ध हो सकती है।

मस्तिष्क जितना शक्तिशाली है उतना ही कोमल भी है। उनकी सुरक्षा और सक्रियता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि अनावश्यक गर्मी से बचाये रखा जाय। पेन्सलीन आदि कुछ औषधियाँ ऐसी हैं जिन्हें कैमिस्टों के यहाँ ठण्डे वातावरण में− रेफ्रिजरेटरों में− सँभालकर रखा जाता है गर्मी लगने पर वे बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं। औषधियों ही क्यों अन्य सीले खाद्य पदार्थ कच्चे या पकी स्थिति में गरम वातावरण में जल्दी बिगड़ने लगते हैं। उन्हें देर तक सही स्थिति में रखना हो तो ठण्डक की स्थिति में रखना पड़ता है। मस्तिष्क की सुरक्षा के मोटे नियमों में एक यह भी है कि उस गरम पानी पर न डाला जाय−गरम धूप से बचाया जाय। बाल रखाने और टोपी पहनने का रिवाज इसी प्रयोजन के लिए चला है कि उस बहुमूल्य भण्डार को यथा सम्भव गर्मी से बचाकर रखा गया जाय। सिर में ठण्डे प्रकृति के तेल या धोने के पदार्थ ही काम में लाये जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि मस्तिष्क को अनावश्यक उष्णता से बचाये रहने की सुरक्षात्मक प्रक्रिया को बहुत समय से समझा और अपनाया जाता रहा है।

यह बाह्योपचार हुआ। वस्तुतः। मस्तिष्कीय सम्पदा खोपड़ी के भीतर है। बाहरी गर्मी के ऋतु प्रभाव से तो हड्डी से ऊपर का भाग ही बचाया जा सकता है। भीतर क्षेत्र में अनावश्यक गर्मी न बढ़ने देने की बात मुख्य है। बाह्य सुरक्षा के लिए तो प्रकृति डड भी मजबूत तिजोरी जैसी खोपड़ी पहले से ही रच दी है। दृष्टा को पता था कि जो भीतर अवयव जिनने अधिक महत्वपूर्ण हैं उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध उतनी ही अधिक अच्छी तरह किया जाना है। हृदय, मस्तिष्क, फुफ्फुस, जिगर जैसे अति महत्वपूर्ण अवयवों को हड्डियों के मजबूत खोखले में बन्द करके रखा गया है। इन सब में मस्तिष्क उसे खोपड़ी की मजबूत डिब्बी में इस तरह सँभालकर रखा गया है जिसे खजाने की तिजारी या मोती की सीप, राज की फिलेबन्दी दी जा सकती है।

मस्तिष्क का बहुमूल्य यन्त्र तभी ठीक तरह दाम का सकता है जब से शान्तिमय वातावरण में−एयर कण्डीशन कमरों जितने तापमान में काम करने दिया जाय मर्यादा से अधिक गरम रहने पर इंजन, मोटर या अन्य मशीनें अपना काम करना बन्दकर देती है ठीक यह स्थिति मस्तिष्क की है। उससे ठीक काम लेता हो सन्तुलित परिस्थितियाँ बनाये रहना आवश्यक है। फोन फिल्में अनावश्यक गर्मी सहन नहीं कर पाती। इस प्रकार के मस्तिष्क अब भी उत्तेजना एवं आवेश की स्थिति उत्पन्न होने पर एक प्रकार से अपना काम करना ही बन्द देते हैं। यदि कुछ करते भी हैं तो वह उलटा होता वह उलटापन लाभ के स्थान पर हानि ही उत्पन्न करने लगता है।

मस्तिष्क को बाहरी गर्मी, तेज धूप, गरक किन्हीं रसायनों की पड़ती है किन्तु भीतरी गर्मी उत्पन्न होने का कारण उत्तेजना होती है उसका जितनी बढ़ेगी उतनी ही मानसिक संरचना स्पष्ट रूप से हानि पहुँचेगी और सामने पड़े कामों को ठीक कर सकना उसके लिए सम्भव न रहेगा। देखा जा कि कोई आवेश चढ़ने पर आदमी अर्ध विक्षिप्त स्थिति में जा पहुँचता है। उसकी कल्पना, निर्णय, हरकतें सब कुछ विचित्र हो जाती हैं। क्रोध का जिस पर चढ़ रहा हो उसकी गतिविधियों पर ध्यानपूर्वक दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा, पागलपन में अब बहुत थोड़ी ही कमी रह गई है। अधिक क्रोध आने पर मस्तिष्कीय द्रव एक प्रकार से उबलने लगता है और यदि से ठण्डा न किया जाए तो मानसिक रोगों को लेकर हत्या आत्म हत्या जैसे क्रूर कर्म कर बैठने जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

क्रोध का आवेश शरीर पर क्या असर डालता है और बुद्धि को कैसा नष्ट कर देता है उसके उदाहरण हम सब आये दिन अपने आप पास ही देखते रहते हैं गुस्से से तमतमाया चेहरा राक्षसों जैसा बना जाता हैं। आंखें, होंठ नाक आदि पर आवेशों के उभार प्रत्यक्ष दीखते हैं। मुँह से अशिष्ट शब्दों का उच्चारण चल पड़ता है। रक्त प्रवाह की तेजी से शरीर जलने लगता है। हाथ पैर काँपते और रोये खड़े होते देखे जाते हैं। ऐसा स्वयं एक समस्या बन जाता है। ऐसी दशा होने पर हितैषी लोग सबसे पहला काम यह करते हैं। कि आवेशग्रस्त को येनकेन प्रकारेण शान्त करते हैं। जिस कारण उत्तेजना आई थी उसका निवारण करने पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना कि आवेश ठण्डा करने पर, किसी भी प्रतिकूलता में उतनी हानि नहीं होती जितनी कि आवेशग्रस्तता से। इस मोटी जानकारी से हर कोई परिचित रहता है इसलिए हितैषियों को प्रथम कार्य गुस्सा ठण्डा करना होता है। अन्य बातें पीछे सोची जाती हैं। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि एक घण्टे का क्रोध एक दिन के तेज बुखार में भी अधिक जीवनी शक्ति का विनाश करता है।

रक्त चाप में व्यतिरेक दो प्रकार के होते हैं−एक ऊँचा दूसरा नीचा। उच्च रक्तचाप हाई ब्लड प्रेशर लो ब्लड प्रेशर − ये लक्षण तो भिन्न होते हैं, पर कष्ट उससे भी उतना ही होता है। लो ब्लड प्रेशर का मरीज भारी कमजोरी अनुभव करता है। और अपने का अपंग असहाय जैसी स्थिति में पाता है। इन दो ही प्रकार के व्यतिरेकों में रोगी की कार्य क्षमता एवं मनः स्थिति पर हानिकारक प्रभाव लगभग एक जैसा ही होता है।

क्रोध की उच्च रक्तचाप से और खिन्नता को निम्न रक्तचाप से तुलना की जा सकती है। क्रोध वर्ग में द्वेष घृणा आक्रमण विनाश जैसे क्रूर प्रकृति के विचार एवं कृत्य गिने जा सकते हैं। खिन्नता वर्ग में निराशा, चिन्ता, शोक, भय, संकोच जैसी निष्क्रियता उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों का गणना होती है। इन्हें ज्वार भाटा के समतुल्य और अस्थिरता अव्यवस्था उत्पन्न करने वाला कहा जा सकता है। उफनते समुद्र में तैरना कितना कठिन होता है इसे सभी जानते हैं।

शोक ग्रस्त, भयभीत, निराशा व्यक्ति की मनोदशा उसके अच्छे खासे स्वास्थ्य को देखते देखते तोड़ मरोड़कर रख देता है। चेहरे पर मुर्दनी छा जाती है यही आवाज तक नहीं निकलती। लगता है शरीर को काठ मार गया, कुछ करते धरते नहीं बनता है। भूख प्यास गायब हो जाती है। नींद आने में भारी कठिनाई पड़ती है क्रोध में भी लगभग ऐसा ही होता है अन्तर इतना भर रहता है कि खिन्नता में बर्फ में जमने और गलने जैसी। सामान्य स्थिति तो दोनों ही दशाओं में नष्ट हो जाती है और न केवल मस्तिष्क वरन् साथ साथ शरीर भी अपनी साधारण गतिविधियाँ जारी रख सकने में असमर्थ बन जाता है।

मस्तिष्कीय क्षमता एवं कुशलता बढ़ाने का महत्व सभी जानते हैं और इसके लिए अध्ययन, परामर्श, संपर्क अनुभव सम्पादन अभ्यास जैसे कितने ही साधन जुटाते हैं। प्रसन्नता से मानसिक उर्वरता बढ़ने की बात को ध्यान में रखते हुए मनोरंजन के लिए कई ऐसे कार्य करते है जिनमें समय और पैसा काफी लग जाता है। इन रचनात्मक प्रयोजनों से परिचित होते हुए भी न जाने इस तथ्य को क्यों भुला दिया जाता है कि आवेश एवं अवसाद जैसी अव्यवस्था फैलाने वाली मनःस्थिति उत्पन्न न होने दी जाय। लाभ उपार्जन करने की बात का जितना महत्व है उतना हो हानि न होने देने का भी। एक ओर लाभ कमाया जाय, दूसरी और हानि बढ़ती जाय तो फिर अन्ततः व्यवसाय घाटे में फँसता चला जायगा और दिवालिया बनने की नौबत आ जायगी।

आवेशों का शरीर पर क्या असर होता है इसका पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि सामान्य कार्य क्षमता को उनके कारण भारी आघात पहुँचता है। आँख,कान, नाक, जीभ अपना काम मुश्किल से ही आधा अधूरा कर पाती हैं। जीभ का स्वाद चला जाता है। पेट की भूख उड़ जाती है। कान कुछ का कुछ सुनते हैं। आँखों से सामने गुजरने वाली घटनाओं में से बहुत कम की स्मृति रहती है। तापमान बढ़ता है। रोमाँच बड़े होते हैं। साँस तेज चलती है। हृदय की धड़कन और रक्त प्रवाह की तेजी बढ़ती है। यह सारे लक्षण मिलकर जीवनी शक्ति का बड़ी मात्रा में विनाश करते हैं। यह तो यदा कदा की बात हुई। यदि यह असन्तुलन आदत बन जाय—स्वभाव में सम्मिलित हो जाय तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व की स्थिरता और सुसम्भावना समाप्त ही हो चली। ऐसे असन्तुलनग्रस्त मनुष्य प्रायः अर्ध विक्षिप्तों जैसी स्थिति में जिन्दगी गुजारते हैं। पग−पग पर उपहासास्पद बनते, तिरष्कृत होते और असफल रहते देखे जाते हैं।

मानसिक असन्तुलन को परिस्थितिजन्य माना जाता है और कहा जाता है—अपना क्या कसूर है, घटनाक्रम ही ऐसा बन गया कि उत्तेजना या खिन्नता का शिकार बनना पड़ा। तर्क सीधा-सा लगता है और सही भी प्रतीत होता है किन्तु वास्तविकता वैसी है नहीं। एक ही परिस्थिति की भिन्न व्यक्तियों पर भिन्न प्रतिक्रिया देखी जाती है। तनिक-सी प्रतिकूलता आने पर एक व्यक्ति बेतरह घबराता और उत्तेजित होते देखा जाता है। जबकि दूसरा व्यक्ति ठीक वैसी ही अथवा उससे भी अधिक प्रतिकूलता में अपना सन्तुलन यथावत् बनाये रखता है। उसे जीवन क्रम का साधारण-सा उतार चढ़ाव मानता है और घबराने की तनिक भी आवश्यकता अनुभव नहीं करता। उसकी प्रतिक्रिया गड़बड़ी को सुधारने के लिए उपाय सोचने, काम करने और साधन जुटाने में संलग्न होने की होती है। घबराहट उत्पन्न करके असन्तुलन की नई विपत्ति को न्यौत बुलाना उसे मूर्खतापूर्ण लगता है। अस्तु स्वयं परेशान होने और दूसरों को परेशान करने वाली अस्त−व्यस्तता पर वह अपने सहज विवेक से नियन्त्रण कर लेता है। इन घबराने और बिना घबराने वाले दोनों व्यक्तियों के सामने परिस्थिति एक जैसी होते हुए भी मनःस्थिति में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। यह आत्म नियन्त्रण का— दृष्टिकोण के परिमार्जन का—प्रतिफल है। एक उससे वंचित रहता और दुःख पाता है। दूसरा उसका संचय करके हँसता मुस्कराता रहता है और आये दिन उत्पन्न होती रहने वाली प्रतिकूलताओं को ऐसे ही मजाक मसखरी में उपेक्षा पूर्वक उतार ही नहीं देता। दूरदर्शी विवेक को अक्षुण्ण बनाये रहकर उनका समाधान भी सरलतापूर्वक कर लेता है।

मस्तिष्क को ठण्डा बनाये रहना, उस पर आवेशों का आक्रमण न होने देना एक महत्वपूर्ण साज सँभाल है। घड़ी, साइकिल, आदि छोटी−छोटी मशीनों की साज सँभाल रखी जाती है तो मस्तिष्क को क्षति ग्रस्त होने से क्यों नहीं बचाया जाता है। जबकि दवाओं और खाद्य पदार्थों को ठण्डा रखा जाता है तो मस्तिष्कीय शान्ति बनाये रखने की आवश्यकता क्यों न समझी जाय। सन्तुलन बनाये रहना एक अत्यन्त ही बुद्धिमत्तापूर्ण उपाय ही हैं जिसमें रहना सुखी रहने और सफल होने के दोनों ही उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं।


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