ध्यानात्मा साधकेन्द्रो भवति परपुरे शीघ्रगामी मुलीन्द्रः सर्वज्ञः सर्वदर्शी सकल हिलकर सर्वशास्त्रार्थवेत्ता। अद्वैताचास्वादी विलसति परमापूर्वसिद्धित्रसिद्धो दीर्घायुः सोऽपि कर्त्ताः त्रिभुवन भवनै संहृतौ पालने च॥35॥ − षत् चक्र निरुपणम् 35
अर्थात् − आज्ञाचक्र को सिद्ध कर लेने वाला दूरगामी बन सकता है, सूक्ष्म रूप धारण कर सकता है। परकाया प्रवेश कर सकता है। सबका हितकारी शास्त्रों का ज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता,
प्रसन्न चित्त सिद्धि यदाऽऽत्मतत्वेन ब्रह्मातत्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्। − श्वेताश्वर 2।15
योग साधक आत्मा के द्वारा ही दीपक से समान प्रकाशयुक्त के दर्शन करता है।
नीहारधूमार्कानलानियानाँ खेद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्। एतानि रुपाणि पुरः सराणि ब्रह्ण्यभिव्यक्ति कराणि योगे॥ − श्वेताश्वर 2।11
अर्थात्− योग साधक को साधक को कुहरा, धुँआ, वायु, अग्नि, जुगनू, बिजली, स्फटिक मणि चन्द्रमा जैसे कई प्रकाश दृश्य दिखाई पड़ते हैं। यह योग की सफलता के चिन्ह हैं।