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July 1982

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त्रिपञ्चांगान्यथो वक्ष्येपूर्वोक्त स्य हिलबधये। तैश्च् सर्वेः सदा कार्य निदिध्यासनमेव च॥

नित्याभ्यासाहते प्राप्तिर्न भवेत्सच्चिदात्मनः। तस्माद्ब्रह्म निदिध्यासेज्जिज्ञासुः श्रेयसे चिरम्॥ —अपरोक्षानुभूति—100−101

अर्थात्—स्वामी शंकराचार्य जी कहते है कि—आत्म ज्ञान के लिए अब मैं पन्द्रह साधन बताता हूँ, उन सबसे सर्वदा निदिध्यासन करना चाहिए। निरन्तर अभ्यास कि ये सत् और चित् स्वरूप आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। अतः आत्मज्ञान के इच्छुक साधक को चिरकाल तक निदिध्यायन—ब्रह्म चिन्तन—करना चाहिए।


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