जाको राखे साइयाँ मारि सके ना कोय

July 1982

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अप्रत्याशित अदृश्य सहयोग की कितनी ही घटनाएँ प्रकाश में आती हैं जिन्हें मात्र संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता। उनकी गहराई में जाकर सूक्ष्म पर्यवेक्षण करें तो सहायता के पीछे करुणामय नियामिक सत्ता की ही करुणा परोक्ष सहयोग बनकर बरसती दिखायी पड़ती है। मानवी पुरुषार्थ जब समाधान ढूँढ़ने में असमर्थ सिद्ध होता है तो ऐसी विकट घड़ियों में उस महान सत्ता की अनुकम्पा कितने ही परोक्ष अथवा माध्यमों के रूप में अवतरित होकर पीड़ितों की रक्षा करती है निराकार होने से वह साकार माध्यमों को ही विशेष प्रयोजन के लिए विशेष प्रकार की प्रेरणा भरकर सहयोग के लिए प्रेरित करती है। ऐसी घटनाओं के कितने ही प्रमाण समय समय पर मिलते रहते हैं।

विश्व के न्यायिक इतिहास में यह अद्भुत,आश्चर्य जनक और अविश्वनीय घटना थी। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में इंग्लैंड के एक्स्टर जेल में जॉन ली नामक व्यक्ति को फाँसी की सजा दी जानी थी। निर्धारित तिथि और समय पर डॉक्टर ने जॉनली के स्वास्थ्य की परीक्षा की और उसे स्वस्थ घोषित किया। आपराधिक न्याय शास्त्र के अनुसार ‘ली’ की अन्तिम पूछी गयी। उत्तर में उसने मात्र इतना कहा −” मैं निरपराध हूं।” मजिस्ट्रेट ने उसकी इस बात पर बिल्कुल नहीं दिया। स्थानीय धार्मिक रिवाज के अनुसार पादरी ने जॉनली के अपराधों के लिए परमात्मा से क्षमा प्रार्थना करने जॉनली के अपराधों के लिए परमात्मा से क्षमा प्रार्थना करने की रस्म पूरी की। मजिस्ट्रेट की देखरेख में फाँसी का फन्दा ली के गरदन में फंसा दिया। जल्लाद ने पैरों के नीचे से मजिस्ट्रेट का आदेश पाते ही तख्ता खींचा पर टस से मस नहीं हुआ। जल्लाद जेम्स ने तख्ते की परीक्षा की कि शाय वह कहीं जाम हो गया हो, पर ऐसा कुछ नहीं था। परीक्षा की अवधि में वह भली भांति सरकने लगा था, पर जैसे ही पुनः फाँसी के लिए उसने तख्ता खींचना चाहा वह चट्टान की भांति अड़ा रहा। तीसरी बार मजिस्ट्रेट ने स्वयं भी जेम्स के साथ तख्ते का परीक्षण करने पर किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं पायी। तीसरी बार पूरे जोर से जेम्स ने तख्ता खींचना चाहा पर वह पूर्णतया असफल रहा। पूरे सात मिनट तक ली को फाँसी दी जाती रही, पर अन्त तक असफलता ही हाथ लगी।

जेम्स और मजिस्ट्रेट दोनों ही हैरान थे। इस घटना को देखकर। घटना का पूरा विवरण देखकर मजिस्ट्रेट ने उच्चतम न्यायालय में फाँसी के लिए अगली तारीख देने के लिए निवेदन किया किन्तु न्यायालय ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की कारण यह था कि न्यायालय की आपराधिक दण्ड प्रक्रिया में ऐसा कोई प्राविधान नहीं है कि किसी भी व्यक्ति को दो बार फाँसी दी जाय। जॉनली कैद से छूट गया। पत्रकारों ने ली से पूछा कि वह फाँसी के फन्दे से जीवित बचकर कैसे आ गया। उत्तर में उसने कहा −”मैं निर्दोष था। अपने को निर्दोष साबित करने के लिए मैं सबूत जुटाने में असमर्थ रहा। मैं हृदय से परमात्मा को स्मरण करता रहा उसने मेरी पुकार सुन ली। उसी के अदृश्य हाथों ने मुझे बचाया है”

नवम्बर 1950 की बात है। एक दिन वाशिंगटन के प्रसिद्ध लेखक ग्लक अपने कमरे में धूम रहे थे। बाहर ठण्डी हवा चल रही थी। हल्की बूँदा बाँदी भी तेज हवा के साथ शुरू हो चुकी थी। अचानक उनके मन में यह तीव्र प्रेरणा उठी कि समुद्र के किनारे चलना चाहिए। कारण वह स्वयं भी नहीं समझ पा रहे थे। पत्नी ने कहा तो उसने विरोध किया कि ऐसे मौसम में जाना उचित नहीं, पर वे रुके नहीं और चल पड़े। मार्ग में एक मित्र का घर था उसे भी साथ लिया और समुद्र के किनारे पहुँच गये। मित्र को भी प्रतिकूल मौसम में समुद्र के किनारे जाना उचित नहीं लगा, पर स्नेह वश इन्कार नहीं कर सका।

किनारे पहुँचने पर दोनों ने देखा कि थोड़ी दूर पर दो व्यक्ति समुद्र पर तूफानी लहरों से संघर्ष कर रहे हैं। थोड़ा भी विलम्ब होने का अर्थ था कि उन दोनों का मृत्यु की गोद में जा पहुँचना। किनारे समुद्र के एक छोटी नाव पड़ी थी। बिना एक क्षण गंवाये हैराल्ड ने नाव को तूफानी लहरों के बीच छोड़ दिया। दोनों मित्र पतवार से सहारे नाव का सन्तुलन बनाये रखते हुए डूबते व्यक्तियों तक पहुँचने पर मौत के मुख से वापस लौटे व्यक्तियों ने बताया कि एक नाव दुर्घटना में दोनों समुद्र में गिर पड़े। डूबते उतराते वे ईश्वर में वे दोनों समुद्र में गिर पड़े। डूबते उतराते वे ईश्वर से सहायता की याचना करते रहे। कृतज्ञता व्यक्त करते हुए सजल नेत्रों से उन दोनों ने कहा कि आपको भेजकर परमात्मा ने हमें नवजीवन दिया है। अकारण मन में उठने वाली तीव्र प्रेरणा का रहस्य हैराल्ड ग्लड को तब समझ में आया। उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उनके हाथों से किसी के जीवन की रक्षा हुई।

सन् 1874 की प्रख्यात घटना इंग्लैंड के इतिहास में आज भी अंकित है जिसका अध्ययन करके उस करुणा मय सत्ता के प्रति हृदय श्रद्धा से आविर्भूत हुए नहीं रहता। इंग्लैण्ड का एक जहाज धर्म प्रचार के लिए न्यूजीलैण्ड के लिए रवाना हुआ। कुल 214 यात्री जहाज में सवार थे। अचानक जैसे ही जहाज विस्के की खाड़ी पार कर रहा था उसके पैंदी में छेद हो गया। पानी भीतर आने से बन्द करने के सारे प्रयास असफल रहे। जहाज में पानी निरन्तर भरता जा रहा था। नाविक ने सूचना दी कि जो अपने की रक्षा कर सकते हैं तैर कर कर लें अन्यथा जहाज अब डूबने ही वाला है। नाव में बैठे चन्द ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्हें तैरना आता था। अधिकाँश तैरना नहीं जानते थे। पादरियों की एक मण्डली नाव में बैठी परमात्मा से इस खतरे से रक्षा के लिए प्रार्थना कर रही थी। जो तैरना जानते थे वे कूदने ही वाले थे कि एक अनहोनी घटना घटी, नाव में जहाँ छेद हुआ था। उसमें एक बड़ी मछली इस प्रकार डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड जान बच गयी।

ऐसे उदाहरण पुराणों में अनेकों मिलते हैं जो उपरोक्त घटनाओं की भाँति विकट घड़ियों में ईश्वरीय सहयोग की पुष्टि करते हैं। कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीर हरण किया जा रहा था, मनुष्य का नहीं ईश्वरीय सहायता से उसकी लाज बच गयी। दमयन्ती बीहड़ बन में अकेली थी। व्याघ्र उसका सतीत्व नष्ट करने पर तुला था। कोई सहायक नहीं था। दमयन्ती के नेत्र ज्योति में से शक्ति धारा फूटी और व्याघ्र जलकर भस्म हो गया। प्रहलाद का पिता उसकी जान का ग्राहक बना था। खम्भे से नृसिंह भगवान प्रकट हुए और प्रहलाद की रक्षा की। घर से निकलने गये पाण्डवों की सहायता करने भगवान स्वयं आये। नरसी महत्ता के सम्मान की रक्षा स्वयं भगवान ने आगे बढ़कर की। ग्राह के मुख से गज के बन्धन छुड़ाने के लिए प्रभु नंगे पैरों दौड़े आये थे। मीरा को विष का प्याला और साँपों का पिटारा भेजा गया न जाने कौन उनके हलाहल को चूस गया और मीरा बच गयी। समुद्र से टिटहरी के अण्डे वापस दिलाने में सहायता करने भगवान अगस्त्य मुनि बनकर आये थे। इस तरह के उदाहरणों से पुराणों की गाथाएँ भरी पड़ी हैं जो यह बताती हैं कि मानवी पुरुषार्थ जब संकटों के निवारण में अक्षम सिद्ध होती है तो ईश्वरीय सत्ता का सहयोग माँगने पर अवश्य मिलता है।

शर्त एक ही है कि उस नियामक सत्ता की मर्यादाओं के अनुरूप कार्यविधि अपनायी जाय और अपनी अन्तः श्रद्धा को जीवन्त बनाये रखा जाय। जो स्वयं किया जा सकता है उसमें किसी प्रकार की कमी न रखी जाय। स्वयं की सामर्थ्य कम पड़ने पर अच्छे कार्यों के लिए माँगने नियम आदि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।


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