अदृश्य सहायकों का अद्भुत संसार हमारे इर्द−गिर्द

July 1982

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मरण और पुनर्जन्म के बीच की अदृश्य सूक्ष्म कड़ी अपने में कितने ही रहस्यों एवं विलक्षणताओं को समाहित किये हुए है। अशरीरधारी जीवों की इस दुनिया में ही भूत, प्रेत, पितर जैसी योनियाँ निवास करती हैं। पृथ्वी के जीवधारियों की तुलना में उनकी गतिविधि अभिरुचि आकृति एवं प्रकृति सर्वथा भिन्न है। भौतिक नियम मर्यादाओं से वे परे हैं। अशरीरधारी सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाले इन जीवधारियों से यदि किसी तरह संपर्क साधा और सहयोग प्राप्त किया जा सके तो निश्चित ही महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ करतलगत करने का एक ऐसा मार्ग खुल सकता है जो भौतिक प्रयासों द्वारा सम्भव नहीं है।

कभी कभी अनायास भी अशरीरी आत्माएं अपने अस्तित्व का परिचय देती है। ये दुष्ट और सौम्य दोनों ही स्तर की होती हैं। किसी किसी को उनका कभी कभी अप्रत्याशित सहयोग मिलने लगता है और कितनों को ही उनके कोप का भोजन भी बनना पड़ता है। जीवन काल में जिनसे सघन आत्मीयता जुड़ी रहती है, मरणोपरान्त भी कितनी ही आत्माएँ अपना सम्बन्ध उन प्रियजनों से बनाये रहती तथा समय समय पर सहयोग करती देखी गयी हैं। इसके विपरीत दुष्ट की आत्मा का परिचय उनके विभिन्न प्रकार के दुष्कृत्यों से मिलता है। वे स्वयं विक्षुब्ध रहतीं तथा दूसरों को भी संत्रस्त करती हैं।

अमेरिका का ‘आर्थर एडवर्ड स्टिवैल’ नामक व्यक्ति मजदूरी करके किसी तरह अपना गुजारा करता था। घोर आर्थिक तंगी के कारण वह सदा चिन्तित रहता था। एक दिन उसे एक प्रेत ने नौकरी छोड़ देने का सुझाव दिया। पहले तो उसने सुनाई पड़ने वाली अदृश्य आवाज पर ध्यान नहीं दिया, पर कई दिनों तक इस घटना की पुनरावृत्ति हुई। साथ ही उसे यह आश्वासन मिला कि छः प्रेतों को एक पूरी मण्डली उसका निरन्तर सहयोग करती रहेगी ‘एडवर्ड स्टिलबैल’ के अनुसार प्रेतों की इस मण्डली में तीन इंजीनियर एक लेखक, एक कवि और एक अर्थशास्त्री थे। रेलमार्ग, बन्दरगाह बनाने तथा नहर खोदने जैसे स्वतन्त्र कान्टे्रट लेने के लिए प्रेतों ने परामर्श दिया। साधनों एवं योग्यता की दृष्टि से अक्षम होते हुए भी आर्थर को यह विश्वास हो चला कि उसे हर तरह का सहयोग मिलेगा। देखते ही देखते अप्रत्याशित ढंग से सभी साधन जुटने लगे और अरबों अरबों की योजनाएं पूरी हो गयीं जिनमें आर्थर एडवर्ड को अरबों रुपये का लाभ हुआ। उसने न केवल अपार संपत्ति अर्जित की वरन् साहित्य के क्षेत्र में भी उसे मिली। इन उपलब्धियों को श्रेय ‘आर्थर’ उस प्रेत मंडली को देवता था जो समय समय पर उसका मार्ग दर्शन करती थी।

सन् 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध चल रह था। 13 न. को भारतीय सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी नक्शे के सहारे जम्मू कश्मीर की घाटियों की ओर की बढ़ रही थी। ‘कमाण्ड पोस्ट’ से वायरलैस सेट द्वारा टुकड़ी संपर्क बनाये हुए थी। पर नक्शे अथवा ‘पोस्ट’ से प्राप्त निर्देशों के बावजूद भी आगे का मार्ग स्पष्ट नहीं हो रहा था। वापस पीछे भी लौटना खतरे से खाली न था अगली भारतीय चौकी अभी 15 मील दूर थी जहाँ सवेरा होने के पूर्व पहुँचना था,अन्यथा डर था कि समीप में गश्त दे रहे पाकिस्तानी सैनिकों से मुठभेड़ न हो जाय। भयंकर बर्फ गिरने के कारण मार्ग अवरुद्ध था और अस्पष्ट भी। सभी गहरी चिन्ता में डूबे − किंकर्तव्य विमूढ़ बने खड़े थे। इतने में पेड़ों के झुरमुट से पदध्वनि सुनायी पड़ी है। सैनिकों ने देखा कि सामने एक भारतीय आप लोग उससे अपरिचित हैं। मेरे पीछे पीछे चलते आइये। सैनिकों ने देखा कि लेफ्टीनेन्ट की कमीज में पीठ पर गोल निशाना है। लगता था उतना अंश जल गया हो। लेफ्टीनेन्ट ने स्वयं बनाया कि कल की पाकिस्तानी गोलाबारी से पीठ पर था हिस्सा जल गया है बात के रुख को मोड़ देते हुए लेफ्टीनेन्ट ने कहना आरम्भ किया कि “क भी कभी मृत आत्माएँ भी आपत्ति कालीन परिस्थितियों में अपने स्नेह पात्रों का सहयोग करती हैं।” इस विषय पर बातचीत चलती रही, तब तक सामने चौकी आ गयी लेफ्टीनेन्ट चौकी की ओर इशारा किया तथा वहाँ स्वयं जाने में असमर्थता व्यक्त की। दस− पन्द्रह गज चलने के बाद सैनिकों ने पीछे मूढ़ पर देखा। आश्चर्य कि लेफ्टीनेन्ट का कहीं नामोनिशान नहीं था। एक मिनट से भी कम समय लगा होगा। इतना देर से कहीं दूर जाने की सम्भावना भी नहीं थी कुछ सैनिकों ने उत्सुकता वश पीछे वापस लौटकर पता लगाने की कोशिश की पर कहीं कुछ भी पता न लग सका। चौकी पर पहुँचने के उपरान्त सैनिकों ने चौकी का आश्चर्य को ठिकाना न रहा। कमाण्डर ने बताया कि कल ही बमबारी में उक्त लेफ्टीनेन्ट की मृत्यु पीठ पर चोट लगने से हो गयी थी जिसका दाह संस्कार भी कर दिया गया था। जिसने अदृश्य सहायक के रूप में प्रकट होकर सैनिक टुकड़ी की सहायता के रूप में प्रकट होकर सैनिक टुकड़ी की सहायता की।

प्रसिद्ध उपन्यास लेखक डॉ. ओलीवरलॉज ने एक पुस्तक में इंग्लैण्ड पर प्रकाश डाला है जो समय समय पर राज घराने के सदस्यों को सहयोग करती थी। जार्ज पंचम के समय उनकी बड़ी बहन ‘लुईस’ शादी के कुछ ही दिनों बाद विधवा हो गयी। लुई को अपने पति ड्यूक आफफिफ से गहरी आसक्ति थी। दिवंगत आत्मा न मरणोपरांत भी लुईस से सम्बन्ध रखा। ड्यूक की वार्ता सुनी। सम्राट एडवर्ड सप्तम की पत्नी महारानी एलेक्लेण्ड्रा को प्रेतो के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास था। वे प्रेतात्माओं का मन्त्रों द्वारा आह्वान भी करती थी। एक साधारण-सी बीमारी में सम्राट दिवंगत हो गये, पर महारानी विक्टोरिया के विषय में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है कि प्रेत विद्या विशेषज्ञ के माध्यम से उनका सम्बन्ध अपने पति से मरणोपरान्त भी जुड़ा रहा।

सन्त सुकरात कहा करते थे कि मेरे साथ रहस्यमय प्रेत डेमन रहता है जो समय समय पर मेरा मार्ग दर्शन करता है। प्लुटार्क नामक विद्वान ने दी ‘जेरिनयोसोक्रिटिस’ पुस्तक में एक प्रामाणिक घटना का उल्लेख किया है कि एक बार सुकरात कुछ सहयोगियों के साथ कहीं जा रह थे। एकाएक एक स्थान पर रुककर बोले कि आगे खतरा है मेरा डेमन आगे बढ़ने से रोक रहा है। अन्य साथियों ने इसे सुकरात के मन का भ्रम माना तथा चेतावनी की अवहेलना करते हुए आगे बढ़े। कुछ ही दूर बाद उन्हें जंगली सुअरों का सामना करना पड़ा जिसमें कितने ही लोग बुरी तरह घायल हुए।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता रोमान नावोरी के जीवन की एक घटना है। एक बार उसे रात्रि की किसी कार्य वश होटल में ठहराना पड़ा। होटल मालिक को मरे हुए कुछ ही दिन बीते थे। होटल की संपत्ति के बँटवारे को लेकर के मालिक के पुत्र आपस में कई दिनों से झगड़ रहे थे बाप द्वारा लिखी गयी वसीयत कहीं गुम हो गयी थी जिस कमरे में रोमान ठहरा था रात्रि के समय बार बार आलमारी में से आवाज भी सुनायी पड़ी कि आलमारी में लिखी हुई वसीयत रखी है उसे निकालकर लडको दे दें। बारम्बार वह आवाज कमरे में गूँजने लगी। नोवारो ने उठकर देखा तो सचमुच ही अलमारी में वह वसीयत रखी थी जिसमें नम मिलने से होटल मालिक के लड़के आपस में लड़ झगड़ मिलने से होटल मालिक के लड़के आपस में लड़ झगड़ रहे थे अमेरिका के भूतपूर्व अब्राहम लिंकन प्रेत विद्या विशारद कुमारी नैटी कोल वर्म के सहयोग से ह्वाइट हाउस में प्रेतों को आमन्त्रित करते तथा कितनी हरी राजनैतिक गुत्थियोँ में उनका सहयोग प्राप्त करते थे।

पं. जर्मन के एक साथ आश्रम के संचालक ‘एडवर्ड नेपल्स’ एक ईमानदार और प्रामाणिक व्यक्ति समझे जाते थे, पर उन्होंने जीवन के अन्तिम चरण में आश्रम की सम्पत्ति का एक बड़ा भाग चुपके से अपने नाम कर लिया था। मरते समय उन्हें इस बात का भारी पश्चात्ताप हुआ। तब तक उनकी अप्रामाणिकता का भेद भी खुल चुका था। आश्रम के ट्रस्टियों ने उनके मरने के बाद कोर्ट में दावा किया। पर कोई प्रमाण नहीं था कि जिसके आधार पर यह सिद्ध हो सके कि एडवर्ड के पुत्र को प्राप्त संपत्ति आश्रम की है। पुत्र को इस बात की पूरी जानकारी थी। न्यायालय में बयान देते समय उसने इस बात से स्पष्ट इन्कार कर दिया कि पिता से प्राप्त सम्पत्ति आश्रम की है।ठीक बयान देते समय एक विलक्षण घटना घटी। कोर्ट में एक तेज आवाज गूँजी तथा एक तमाचा लड़के के गल पर पड़ा। सभी यह देखकर आश्चर्यचकित थे। लड़के को यह समझते देर न लगी कि यह तमाचा उसके पिता द्वारा मारा गया है। उसने अपनी गलती स्वीकार कर आश्रम की संपत्ति वापस लौटा दी।

स्ट्रॉमवर्ग जून 1961 को जेमी केलधन नामक व्यक्ति शराब के नशे में धुत आधी रात बीते वापस घर की आरे बढ़ रहा था। इतने में पीछे से आवाज आयी ‘रुको’ मुड़कर देखा तो कहीं कोई नजर आ रहा था। आगे बढ़ने वाला ही था कि पुनः वही नारी आवाज सुनायी पड़ी। केलधन का नशा गायब हो गया। आवाज उसे सुपरिचित-सी लगी। ध्यान देने पर उसे मालूम हुआ कि आवाज उसकी माँ की है जो कुछ वर्षों पूर्व दिवंगत हो चुकी थी। दृश्य स्वर पुनः गूँज उठे ‘बेटे’ तुम कुकृत्यों को छोड़ दो। तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे इन कारनामों को देखकर मरणोपरान्त भी मुझे कितना कष्ट पहुँच रहा है माँ की वेदना पूर्ण बातों को सुनकर केलधन अपने कुकृत्यों के विषय में सोचने लगा। सचमुच ही उसने समूची पैतृक सम्पत्ति शराब में बहा डाली थी, और स्वयं अनेकों प्रकार के अवगुणों को शिकार बन गया था। केलधन ने संकल्प लिया कि आज से वह अपने जीवन में सुधार लायेगा। शराब कभी नहीं पीयेगा। माँ की उपस्थिति का प्रत्यक्ष प्रमाण जानने के लिए केलधन ने कहा कि “मैं सभी बुरी आदतों छोड़ दूँगा पर यदि तुम मेरी माँ हो तो अपने स्पर्श द्वारा मुझे आभास कराओ।” इतना कहना था कि माँ के ममता भरा हाथ केलधन के सिर पर रख दिया और पीठ को सहलाया हाथ के निशान कमीज पर उभर आये लन्दन के परगेटी म्यूजियम में केलधन की वह कमीज आज भी सुरक्षित रखी है जिस पर प्रेतात्मा के हाथ के निशान उभरे हुए हैं।

फ्रांस के हेनरी चतुर्थ को एक प्रेतात्मा छाया द्वारा यह सूचना मिली कि उनकी हत्या का षडयन्त्र रचा जा रहा है अतः अपने बचाव के लिए सुरक्षा उपाय कर लें। इस घटना का उल्लेख हेनरी न राजदरबारियों की उपेक्षा कर दी। पर संसार जानता है कि हेनरी चतुर्थ कर निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गयी पादरी जेरेन्सीटेलर घोड़े पर सवार होकर बेलफास्ट में गेटो जा रहे थे। रास्ते में अचानक कोई अपरिचित व्यक्ति घोड़े के पीछे बैठ गया। पूछने पर उसने अपना नाम ‘हैडकजेम्स’ बताया तथा अपना पूरा परिचय देते हुए कहा कि ‘मैं में प्रेत योनि मैं हूँ। मेरी जीवित पत्नी के कृपया यह सन्देश पहुँचा दे कि उसका नया पति शीघ्र ही उसकी हत्या कर देगा।” पादरी ने निर्दिष्ट पते पर सन्देश पहुँचा दिया किन्तु पत्नी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। निश्चित समय पर पति द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी।

ये तो विदेशों के कुछ उदाहरण मात्र हैं। भारतीय ग्रन्थों में तो भूत प्रेत पितर योनियों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उनसे संपर्क साधन तथा लाभ उठाने की विद्या का भी उल्लेख है। अदृश्य जगत में विचरण करने वाली इन अशरीरी आत्माओं से विशिष्ट साधनाओं द्वारा सम्बन्ध स्थापित कर उनसे इतना सहयोग प्राप्त किया जा सकता है जितना कि प्रत्यक्ष भौतिक पुरुषार्थ द्वारा सम्भव नहीं।

अन्तरिक्ष से निरन्तर आती ध्वनियों के अनुसंधान क्रम में भिन्न भिन्न प्रकार की लहरें खोजी, पकड़ी गई हैं। ज्ञात यह हुआ है कि सौर मण्डल तथा मन्दाकिनी आकाश गंगा से प्रकाश ही नहीं, शब्द प्रवाह भी पृथ्वी पर निरन्तर झर रहा है। अन्तरिक्ष की इन आवाजों का रहस्य वैज्ञानिक ढूँढ़ने में जुटे हैं। आशा है, निकट भविष्य में वे ऐसे समर्थ और संवेदनशील यन्त्र बना सकेंगे, जो इन शब्दों को सुन सकें।

दिव्य ध्वनियों का रहस्य भारतीय मनीषियों को शताब्दियों पूर्व ज्ञात था। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में विभूतिपाद (41) में लिखा है−

“श्रौत्राकाशयोः सम्बन्ध संयमाद्धिव्य श्रोत्रम्॥”

अर्थात्− प्रवणोन्द्रिय तथा आकाश के सम्बन्ध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है।

वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने जो कान दिये हैं, उनकी सामर्थ्य अनुपम है। प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि कानों की मदद से मनुष्य लगभग 5 लाख आवाजें सुनकर पहचान सकता हैं। जबकि सैकड़ों फुट ऊँचे एण्टीना, ट्रान्समीटर, रिसीवर, सुपर फ्रिक्वेन्सी वाली रेडियो ऊर्जा इन्डिकेटर, माडुलेटर, सिन्क्रोनाइजर जैसे अनेकानेक यन्त्र प्रणालियों से सज्जित राडारों में इससे बहुत कम क्षमता होती है। सामान्यतः कानों की बाह्यमुखी संवेदनधर्मिता और प्रखर एकाग्रता का अभाव व्यक्ति की श्रवण सामर्थ्य को सीमित रखता है। परन्तु कर्णेंद्रिय की शक्ति को योग साधना द्वारा जगाया जा सकता है और तब अनन्त ब्रह्माण्ड में होने वाली हलचल, पृथ्वी के चलने की आवाज, सौर घोष, मंदाकिनियों के टक्कर के भीषण निनाद सभी कुछ किसी भी स्थान में बैठकर सुने जा सकते हैं। परन्तु ऐसा सम्भव तभी है, जब सूक्ष्म और कारण शरीर में सन्निहित श्रवण शक्ति को विकसित किया जाय।

भारतीय मनीषियों ने ‘शब्द ब्रह्म’ एवं नाद ब्रह्म की बात कही है। अकूत, अनन्त, विराट्, सर्वव्यापी सत्ता का एक नया रूप और नाद भी है। ओंकार शब्द है, नाद भी। शब्द और उसके निहितार्थ दोनों का अपना महत्व है। नादानुसंधान सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने वाला साधन विधान ही है। परा प्रकृति से सम्बन्धित सूक्ष्म जगत की सचेतन हलचलें ध्वनि रूप में भी। ये हलचलें नादयोग के अभ्यास से सुनी समझी जा सकती हैं। ब्रह्माण्ड के अज्ञात केन्द्र से धरती पर आने वाले विलक्षण अन्तर्ग्रही ध्वनि प्रवाह से भूलोक के विभिन्न पदार्थों एवं क्रिया कलापों का सूत्र संचालन होता है, ऐसा इन अन्तरिक्षीय ध्वनि प्रवाहों के अध्ययन के उपरान्त विज्ञानियों ने माना है।

प्रकृति में संव्याप्त इन सूक्ष्म हलचलों की भली भांति समझने की क्षमता मानवीय अन्तरंग में विद्यमान है। दृश्य रूप में इन हलचलों को देख सकने में समर्थ बनाने वाली साधनों को अनहित योग कहते हैं। नाद और शब्द रूप में भी उन्हें जाना समझा जा सकता है और इस साधना को ही नाद योग कहा जाता है। इन सूक्ष्म शब्दों को और उनमें छिपे भावों दोनों को उसके द्वारा पकड़ा जा सकता है। उस हेतु सूक्ष्म शरीर के संयंत्र के विकसित करना होता है। सूक्ष्म जगत से अनुभूतियों के आदान प्रदान की भी अनेक विधियाँ हैं। इनमें से ध्वनियाँ और शब्दों के माध्यम से कि ये जाने वाले सूक्ष्म संपर्क को अध्यात्म विज्ञान में नादानुसंधान कहा जाता है।

जिस प्रकार इन अन्तरिक्षीय ध्वनि प्रवाहों का अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक कर रहे है, उसी प्रकार अध्यात्म वैज्ञानिकों ने इस दिशा में व्यापक और विस्तृत अनुसंधान किये हैं और नादयोग का ढाँचा खड़ा किया है। उस साधना विधान द्वारा चेतन और जड़ दोनों से सम्बन्धित जानकारियाँ मशीनों की तुलना में अधिक अच्छी तरह प्राप्त की जा सकती हैं।

नादयोग का अभ्यासी साधक थोड़े अभ्यास के उपरान्त अपने शरीरगत अवयवों की हलचल, रक्तप्रवाह, हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी उसी भांति प्राप्त कर सकता है, जैसे डॉक्टर स्टेथिस्कोप आदि उपकरणों द्वारा प्राप्त करते हैं। अभ्यास बढ़ने पर दूसरों के शरीर की स्थिति का विश्लेषण भी संभव है। ‘सूक्ष्म शरीर’ की कर्णेन्द्रिय का विकास कन नादयोगी मनुष्य पशु पक्षियों और जीव जन्तुओं की मनःस्थिति को भी जान सकता है और संसार में घटित होने वाले घटना क्रम को भी।

सूक्ष्म प्रकृति में हो रही हलचलों के संकेत शब्द − तरंगों को पकड़कर समझे जाते हैं। दूरवर्ती घटनाक्रमों के संकेत प्रकट करने वाली सूक्ष्म आवेश पकड़कर उनसे घटना का देशकाल क्रम समझा जा सकता है बिना उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय, आदान प्रदान हो सकता है। प्रकृति संकेतों को पकड़ा जाना और अपने इच्छित संकेतों द्वारा प्रकृति में हलचलें पैदा कर सकना भी संभव है। दैवी संकेतों को समझने, ईश्वर के साथ वार्त्तालाप और भावनात्मक आदान प्रदान करने से समर्थ बनाने वाली साधना ही नाच साधना कही जाती है। सूक्ष्म कर्णेंद्रिय के संयुक्त प्रयास से यह सम्भव होता है स्थूल कर्णेन्द्रिय को ग्रहण शक्ति तो स्वल्प और सीमित ही है।

अतिस्वन ध्वनि तरंगों का महत्व विज्ञानों जान चुके हैं और उनका उपयोग आज कपड़े धोने सुखाने सफाई तेल निकालने कागज बनाने से लेकर इस्पात की मोटी चादरें काटने तथा अतिस्वन (अल्ट्रासोनिक) और (सुपरसोनिक) महास्वन विमानों के निमार्ण तक में भिन्न भिन्न ढंग से किया जा रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में अश्रव्य ध्वनियों के प्रयोग से शरीर के कोमल ऊतकों की जानकारी पाने और रोग निवारण करने के कार्य हो रहे हैं। सुपरसोनिक माइक्रोस्कोप सिद्धान्त पर बने माइक्रोस्कोपों से अधिक शक्तिशाली होते है यह सब तो अश्रव्य ध्वनियों का रहस्य जानने का परिणाम है। अज्ञात लोकों से बरसने वाले ध्वनि प्रवाहों की जानकारियों की उपयोगिता इससे बढ़ी−चढ़ी होना स्वाभाविक ही है।

यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि नाद ध्वनियाँ स्थूल कर्णेंद्रियों से नहीं, सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनी जाती है। सूक्ष्म कानों की यह शक्ति अभ्यास और तन्मयतापूर्वक साधना द्वारा जगाई जाती है। सूक्ष्म कर्णेंद्रिय के सिद्धान्त सूत्र योग दर्शन में निर्दिष्ट हैं−

“शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत् प्रविभाग संयमात् सर्वभूतरुत्ज्ञानम्।”योग सूत्र (3।17)

अर्थात् − शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय के परस्पर अभ्यास के कारण अभिन्न भास होता है। उनके प्रविभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के उच्चारित शब्दों को अर्थज्ञान होता है।

वाक् इन्द्रिय के विषय हैं—वर्ण समूह और कानों से सुनी जाती हैं ध्वनियाँ। कान वर्ण की ध्वनि ग्रहण करता है। इन ध्वनियों के क्रम को समझ के साथ ग्रहण करने की सूक्ष्म सामर्थ्य विकसित हो जाने के साथ ग्रहण करने की सूक्ष्म सामर्थ्य विकसित हो जाने पर ध्वनियों के संघात का मूल अभिप्राय हृदयंगम हो जाता है। इसी सामर्थ्य के बल पर योगी इच्छानुसार किसी भी प्राणी की उच्चारित वाणी का अभिप्राय समझ सकते हैं। यह हुआ सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की प्रक्रिया का विश्लेषण अर्थात् जब शब्द तन्मात्रा की साधना में सिद्धि प्राप्त हो जाता है और शब्दों की ध्वनियों के क्रम को अलग अलग समझ सकने की विश्लेषण क्षमता आ जाती है, तब सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय विकसित समझनी चाहिए। इसे ही शब्द शक्ति सम्बन्धी संयम कहते हैं।

यह संयम शक्ति विकसित होने पर जब श्रोत्रेन्द्रिय और आकाश के सम्बन्ध पर उसे केन्द्रित किया जाता है, तब आकाश में सतत् प्रवाहमान दिव्य ध्वनि कम्पनों का कानों से ग्रहण सम्भव होता है।

ये दिव्य ध्वनियाँ उच्चस्तरीय प्रेरणाओं और प्रकाश द्वारा साधक के व्यक्ति को ऊपर उठाती और आगे बढ़ाती हैं। नाद संकेतों के सूत्रों के सहारे परमात्मा शक्ति से जुड़ा साधक अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ता चला जाता है।


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