भावनाशील तो बनें, पर भावातिरेक से बचे

July 1982

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प्रत्यक्ष शरीर और बुद्धि के ही क्रिया कलाप दिखायी पड़ते हैं, इसलिए महत्व भी इन्हीं दोनों पर अधिक दिया जाता हैं, इसलिए महत्व भी इन्हीं दोनों को अधिक दिया जाता है। मानवी सामर्थ्यों में शरीर बल और बुद्धिबल को ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। इनसे सम्बद्ध संस्थानों पर ही प्रायः अधिक ध्यान दिया जाता है। इन्हें बलिष्ठ एवं प्रखर बनाने तथा असन्तुलनों को दूर करने के लिए विविध प्रकार के उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती है। यह उचित है और आवश्यक भी। पर शरीर और बुद्धि के अतिरिक्त एक सूक्ष्म परत और भी है जो इनकी तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान है− वह है− भाव संवेदनाओं से युक्त अन्तःकरण की। जिसमें विक्षेप होने से समूचा शरीर संस्थान प्रभावित होता है। भावनात्मक असन्तुलन शारीरिक एवं मानसिक असन्तुलनों की तुलना में कहीं खतरनाक सिद्ध होता है।

विगत दिनों शरीर और मस्तिष्क संस्थान के सन्तुलन पर ही अधिक ध्यान दिया जाता रहा, भाव−संस्थान उपेक्षा की गर्त में पड़ा रहा। फलस्वरूप अनेकों प्रयत्नों के बावजूद भी मनुष्य को स्वस्थ और सन्तुलित जीवन का लाभ नहीं मिल सका। मनःशास्त्री इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि भावनात्मक विक्षोभों के रहते स्वस्थ और सफल जीवन की आशा नहीं की जा सकती। मनोविज्ञान की आधुनिकतम खोजों ने भावनात्मक असन्तुलन को सर्वाधिक खतरनाक ठहराया है तथा यह तथ्य उजागर किया है कि शारीरिक एवं मन के उपचार के लिए भी दिया जाना चाहिए।

सम्बद्ध विषय पर गहराई से खोजबीन करने वाले मनःशास्त्री जार्ज बेंगल का कहना है कि भावातिरेक ही सभी प्रकार के मानसिक एवं भावनात्मक व्यतिरेकों को जन्म देता है। लेखक ने एक लेख “कैनयोर इमोशन्सकिल यू” में लिखा है कि उसे इस सम्बन्ध में खोज करने की प्रेरणा स्वयं के जीवन की एक घटना से मिली। उसके भाई का आकस्मिक निधन दिल के दौरे से हो गया इस घटना की बरसी की तिथि पर शोकातुर था। अचानक उसे भी दिल का गम्भीर दौरा पड़ा जिस पर बड़ी कठिनाई से नियन्त्रण हो सका। स्वस्थ होने पर उसने आकस्मिक मौत से मरने वाले दो सौ पचहत्तर व्यक्तियों की मृत्यु के कारणों का अध्ययन किया तो पाया कि अधिकाँश की मृत्यु का एक मात्र कारण था, भावात्मक असन्तुलन। जार्ज बेंगल का मत है कि भावातिरेक की स्थिति में मनुष्य सामान्य-सी घटना को भी असाधारण महत्व देता और छोटी−मोटी प्रतिकूलताओं का सामना करने में भी अपने को असमर्थ पाता है। परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठा पाने के अभाव में वह जीवन से निराश होकर ऐसे आत्मघाती कदम उठाता है। उदाहरणार्थ उपरोक्त दो सौ पचहत्तर मृत व्यक्तियों के मृत्यु के कारणों का पता लगाने पर उन्होंने पाया कि वे इतने गम्भीर नहीं थे, पर अतिशय भाव−विक्षेप के कारण उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। इन व्यक्तियों में से एक सौ दस ऐसे थे जिनकी मृत्यु मात्र उनके निकटतम सगे सम्बन्धियों के मृत्यु कारण हो गयी। एक सौ पाँच व्यक्तियों की मृत्यु का समाचार सुनकर दिल का दौरा पड़ने लगा और थोड़ी देर बाद ही मृत्यु की गोद में जा पहुँचे जबकि इसके पूर्व उन्हें कभी भी दिल का दौरा नहीं पड़ा था। तीस व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के मोटर दुर्घटना के शिकार होते−होते बचे थे, पर उस दुर्घटना की आशंका से उतना घबड़ा उठे कि बिना किसी रोग अथवा कारण के अकाल मृत्यु की गोद में जा पहुँचे। मरने वाले तीस व्यक्ति छोटी−मोटी जीवन की ऐसी असफलताओं से निराश थे जिन्हें कि सामान्यतः अधिकाँश व्यक्ति उतना महत्व नहीं देते हैं।

‘हाउ योर माइन्ड कैन कन्ट्रोल−योर हेल्थ’ नामक एक शोध निष्कर्ष में डॉ. फ्रान विल्सन लिखते हैं कि ‘भावातिरेक अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों को जन्म देता है। भावातिरेक की स्थिति में मनःसंस्थान तनावग्रस्त हो जाता है जिससे शरीर के ‘हारमोनल सिस्टम’ पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मनःशास्त्री इस असन्तुलन से होने वाले मनःरोगों को ‘साइकोजेनिक’या ‘इमोशन काँल्ड’ रोगों का नाम देते है। प्रायः मनोचिकित्सकों के पास उपचार के लिए पहुँचने वाले ऐसे रोगियों की बहुलता होती है।

मनःशास्त्री डॉ. फ्रान विल्सन का कहना है कि प्रायः प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनाधिक रूप से यह जानकारी होती है कि स्वस्थ एवं विकृत भावनाओं का मन एवं शरीर संस्थान पर तद्नुरूप प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ का मुकता के भाव अपनी तुरन्त प्रतिक्रिया दर्शाते हैं तथा समूचे शरीर और मन को उत्तेजित कर डालते है। पर जाने अनजाने दुष्प्रभावों को देखते हुए भी अधिकाँश व्यक्ति उन्हें नियन्त्रण करने का प्रयास नहीं करते है। फलस्वरूप अश्लील चिन्तन शारीरिक और मानसिक शक्तियों को भीतर ही भीतर क्षीण करता रहता है। भावातिरेक का यह भी एक विकृत पक्ष है। जो अन्य प्रकार का भी हो सकता है तथा अपनी दुःखद प्रतिक्रिया छोड़ सकता है।

डॉ. जाँनविग ने एक घटना का उल्लेख किया है कि रुथ केडविक नामक स्त्री ने चार बार गर्भधारण किया और चारों बार उसे गर्भपात हो गया। पांचवीं बार वह एक गर्भ−विशेषज्ञ के पास पहुँची जो मनःशास्त्र का भी विशेषज्ञ था। उस गर्भ−विशेषज्ञ आँव्स्ट्रेटिशियन ने महिला से पूछा—’आपके मन में प्रसव वेदना के सम्बन्ध में कैसा विचार है? उत्तर में महिला ने बताया कि ‘सन्तान उत्पन्न करने की तो मेरी हार्दिक इच्छा है, पर बचपन में प्रसव के सम्बन्ध में मैंने इतनी खौफनाक बातें सुन रखी है कि मेरे मन में भयानक धारणाएँ बन गयी है। जब भी प्रसव का समय सन्निकट आता है मैं असामान्य रूप से भयभीत हो उठती हूँ। डॉक्टर ने उसकी मानसिक तुष्टि के लिए कुछ मीठी गोलियाँ दवा के रूप में दे दीं और अपनी रिपोर्ट हर दूसरे दिन देते रहने के लिए कहा। चिकित्सक के निर्देशानुसार वह हर दूसरे दिन अपने स्वास्थ्य की रिपोर्ट देने पहुँचने लगी। जब भी वह चिकित्सक के पास अपने स्वास्थ्य की रिपोर्ट देने जाती वह विस्तार से उसके मनोभावों को जानने का प्रयास करता। साथ ही मनोवैज्ञानिक ढंग से उसके मन में जड़ जमायी प्रसव के सम्बन्ध में भय की प्रबल भावना को समाप्त करने का प्रयत्न करता। क्रमशः इस प्रयास से महिला का भय जाता रहा और निश्चित समय पर उसने एक स्वस्थ बालक को जन्म दिया।

इस घटना का विश्लेषण करते हुए कोलोरेडा विश्वविद्यालय के अनुसंधान कर्त्ताओं ने बताया कि महिला के गर्भधारण करने के बाद प्रसव वेदना की भयपूर्ण कल्पनाओं के कारण शरीर से ऐसे विशेष प्रकार के हार्मोन पैदा होने लगते थे जो गर्भ स्राव में सहायक होकर गर्भपात के कारण बनते थे। इन विशेषज्ञों के अनुसार मस्तिष्क अवस्थित पिट्यूटरी ग्लैण्ड जिसे मास्टर ग्लैण्ड कहा गया है भावातिरेक से उत्पन्न होने वाले मानसिक व्यतिरेकों, भय, चिन्ता, आशंका आदि से अत्यधिक प्रभावित होता है। इसका नियन्त्रण मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस, गले में स्थित थाइरायड तथा एडीनल ग्रन्थि के स्रावों पर भी होता है। पिट्यूटरी ग्रन्थि के प्रभावित होने से हारमोनल सिस्टम भी असन्तुलित हो उठता है जिसका दुष्प्रभाव विविध प्रकार के शारीरिक एवं मनोरोगों के रूप में दिखायी पड़ता है।

इस विषय पर कोलोरेडा विश्वविद्यालय में अनुसंधान करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक जो जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं उनसे यह ज्ञात हुआ है कि भावनाओं के कारण होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाओं का रहस्य इसी पिट्यूटरी ग्रन्थि में छिपा है। जिसके सम्बन्ध में अभी चिकित्सा शास्त्र को बहुत थोड़ी जानकारी प्राप्त हो सकी है अधिकाँश तो अविज्ञात हैं।

अमेरिकन ‘हैण्डबुक ऑफ साइकियाट्री’ पुस्तक में डॉ. मेलिटाश्मिडबर्ग ने कहा है कि जितनी आवश्यकता शरीर के आवश्यक अंगों की है उतनी ही मानसिक प्रतिरक्षा मेंटल डिफेंस की है। यह प्रतिरक्षा भावनाओं के ऊपर नियन्त्रण द्वारा ही सम्भव है। डॉ. इमान स्टीवेंसन ने अमेरिकन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में लिखा है कि जिस प्रकार विभिन्न रोगों से लड़ने के लिए शरीर की प्रतिरोधक शक्ति एण्डीबाँडी उत्पन्न कर लेती है उसी प्रकार मन में भी विरोधी मानसिक तत्वों से लड़ने की सामर्थ्य विद्यमान है। मन भी विचार रूपी सूक्ष्म एण्टीवाँडी पैदा करने में समर्थ है, पर उसकी सामर्थ्य का लाभ इसलिए नहीं मिल पाता है कि भावातिरेक की स्थिति में मानसिक एण्टीवाडी का बनना बन्द हो जाता है। यदि भावनात्मक सामंजस्य स्थापित किया जा सकें तो दुःखदायी परिस्थितियाँ जो मनःविक्षोभ का कारण बनती है, वे भी मनुष्य के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है। अपनी बात के समर्थन में डॉ. स्वीवेंसन कहते है कि “मानसिक आघात की अवस्था में मानसिक रिआर्गेनाइजेशन की प्रक्रिया उसी प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार शारीरिक टूट−फूट की स्थिति में। ऐसी हालत में भावनात्मक सन्तुलन बना रहे तो कितने ही बच्चों का विकास असाधारण रूप से होता है। उदाहरण स्वरूप विश्व की मूर्धन्य प्रतिभाओं का जन्म एवं विकास प्रतिकूलताओं में हुआ। इसका कारण यह है कि प्रतिकूलताओं में आत्मविश्वास जगने एवं सुदृढ़ होने का अधिक अवसर मिलता है। जो प्रगति में असाधारण सहायक सिद्ध होता है।

सुप्रसिद्ध साइकियाट्रिस्ट डॉ. डॉक्टर कार्ल मिर्निजर ने ऐसी अनेकों प्रतिभाओं का प्रमाण प्रस्तुत किया है जिन्हें भयंकर मानसिक वेदनाओं से होकर गुजरना पड़ा प इसके बावजूद भी उनका मनोबल घटने के स्थान पर बढ़ता ही गया। उदाहरणार्थ विश्वविख्यात लेखक तथा विचारक जॉनस्टुअर्ट मिल, विलियम जेम्स, बर्नार्डशा आदि को अपने आरम्भिक दिनों गम्भीर मानसिक असन्तुलनों तथा नर्वस ब्रेक डाउन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनसे गुजरने के बाद उनकी प्रतिभा में निखार आया। फलस्वरूप वे सर्वोत्तम साहित्य लिखने में सफल हो सके। संस्कृत के उद्भट विद्वान कालीदास तथा मानसकार तुलसीदास की प्रतिभा भी इसी प्रकार आघात सहकर निखर कर सामने आयी।

अन्तःकरण की इस सर्वोत्तम प्रतिरक्षा व्यवस्था को अध्यात्म मनोविज्ञानियों ने आत्मश्रद्धा के नाम से सम्बोधित किया है। शब्दों के हेर फेर से आधुनिक मनोविज्ञान इसे ही ‘सेल्फ एक्सेप्टेन्स’ कहता है। विलियम जेम्स तथा डॉ.मिनिजर ने इसे अन्तःशक्ति का नाम दिया है। इन विद्वानों का मत है कि प्रसुप्त अथवा जागृत अवस्था में हर व्यक्ति के भीतर यह महान शक्ति विद्यमान है। जिसका अवलम्बन यदि मनुष्य ले सके तभी मानसिक व्यतिरेकों के मूलभूत कारण भावनात्मक असन्तुलनों से बचाव सम्भव है।


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