इन दिनों युग सन्धि केक प्रथम चरण में युग मनीषियों द्वारा लोकमानस के परिशोधन—परिष्कार का महापुरश्चरण संयुक्त रूप से चलाया जा रहा है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि काँटे से काँटा निकलता है विष को विष से मारा जाता है और घूँसे का जवाब घूँसे से दिया जाता है। प्रचालनों की अवाँछनीयता का उन्मूलन प्रतिपक्षी प्रचलन उत्पन्न करके ही सम्भव है। इन तथ्यों को दृष्टिगत रख नवयुग का शिलान्यास चिन्तन में ‘शालीनता’ भरने की सुविस्तृत योजना के साथ किया गया है। वही अगले दिनों आदर्श चरित्र बनकर उभरेगी। चिन्तन और चरित्र के समन्वय से ही भली बुरी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनसे प्रभावित होकर लोग पतन−पराभव गर्त्त में गिरते, रोते–कल्पते मौत के दिन पूरे करते है अथवा उमंगों से उछलते, सुख−सन्तोष व्यक्त करते प्रगति पथ पर द्रुतगति से अग्रसर होते है। अगले दिन प्रज्ञा युग के होंगे। सृष्टा की युगान्तरीय चेतना ‘महाप्रज्ञा’ बनकर अवतारी प्रयोजन पूर्ण करेगी। परिवर्तन की आधारभूत पृष्ठभूमि यही है।
इस अनुष्ठान के तीन विनियोग हैं [1] लेखनी [2] वाणी [3] क्रिया। अदृश्य क्षेत्र के भाव परिवर्तन में लेखनी और वाणी द्वारा प्रतिपादित विचारधारा अपना चमत्कार दिखायी है। मस्तिष्क को ज्ञानेन्द्रियों के दृश्य माध्यम से प्रभावित करने के लिए एक रचनात्मक घटना क्रम प्रस्तुत करने होते है जिनसे उत्साह बढ़े, साहस उभरे और अनुकरण का प्रवाह चल पड़े। दृश्य रचनात्मक कार्यों की भूमिका निभाने में चिन्तन क्षेत्र में लेखनी और वाणी के माध्यम से अनुकूलता उत्पन्न करती है। वही किया भी जा रहा है। प्रज्ञा अभियान में प्राथमिकता धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण को दी गई है। उसी का दूसरा पक्ष रचनात्मक कार्यक्रमों का स्वरूप बनाना और गति देना है। जिन्हें मिशन की गतिविधियों से निकट का संपर्क है वे जानते है कि युग परिवर्तन के सूत्र संचालक किस प्रकार लेखनी की गंगा, वाणी की यमुना और कार्यक्रमों की सरस्वती का त्रिवेणी संगम बनाने के लिए भागीरथी और दधिचि जैसा पुरुषार्थ करने में संलग्न है।
इन पंक्ति यों में लेखनी वाले प्रथम चरण की चर्चा हो रही है। परिवर्तन प्रयासों में अब तक की प्रगति का पर्यवेक्षण करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इतने स्वल्प समय में इतना बड़ा काम जिन आधारों के सहारे सम्भव हो सका लेखनी की भूमिका को प्रधान मानने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। प्रज्ञा साहित्य भले ही प्रचार पत्रकों में छपा हो या ग्रंथों के बड़े आकार में उसमें भरी हुई ज्योति ज्वाला ने जन−जन के मन−मन को हुलसाया है और सृजन शिल्पियों के रूप में जागृत आत्माओं का अग्रदूतों का एक बड़ा समुदाय परिवर्तन के लिए की गई मोर्चे बन्दी में जुझारू योद्धाओं की तरह शस्त्र पाणि किया है। अब उस प्रयास को समय की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप और भी बड़ा आकर और भी प्रचण्ड प्रवाह देने का निश्चय किया गया है। मनुष्य जीवन बहुमुखी है। चिन्तन की अनेकानेक धाराएं है। समस्याओं और के अगणित स्वरूप है इन सभी में घुसी हुई विकृतियों का समाधान अभीष्ट है। अतएव युग चेतना भी बहुमुखी होगी और चिन्तन के हर क्षेत्र को प्रभावित करने वाला युग साहित्य लिखे जाने और उसे प्रभावित करने वाला युग साहित्य लिखे जाने और उसे जन−जन तक पहुँचाने का व्यापक प्रयास करना होगा। जिनके कन्धों में सूत्र संचालन का उत्तरदायित्व है, वे उस प्रयास में प्राणपण से निरत भी हैं। इस क्षेत्र की उज्ज्वल सम्भावनाओं के सम्बन्ध में विज्ञ समुदाय पूरी तरह आशावान है।
जागृत लोक−मानस की भूख बुझाने के लिए इन दिनों प्रज्ञा साहित्य उसी गति से लिखा जा रहा है जिससे कि व्यास ने एकांत गुफा में बैठकर अठारह पुराणों और अठारह उपपुराणों का सृजन एकाकी प्रयासों से संपन्न किया था और उस समय की बौद्धिक आवश्यकता को समाधान दिया था। यह एक पक्ष हुआ। उन दिनों विश्व भाषा संस्कृत थी। इसलिए किसी लेखन को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। प्रेस न होने पर भी वह कार्य हाथ से लिखकर भी सम्पन्न कर लिया जाता था। पर आज एक विशेष कठिनाई है। भाषाओं के अपने−अपने सामन्ती ठिकाने और किले है। जिनमें प्रवेश पाने के लिए किसी न किसी प्रकार अवरुद्ध लौह कपाटों को खोलना ही पड़ेगा। बन्द दरवाजों के बाहर खड़े रहकर गुहार मचाने, सिर फोड़ने से काम नहीं चलेगा। प्रवेश पाये बिना कोई रास्ता नहीं। अभी प्रज्ञा साहित्य प्रधानतया हिन्दी क्षेत्र तक ही सीमित है। जबकि भारत में ही चौदह भाषाएँ है। संसार भर में उनकी संख्या 450 से अधिक है। अपने देश को तो प्रथम चरण में ही सँभालना पड़ेगा। अस्तु प्रज्ञा साहित्य को युग सन्धि के प्रथम पाँच वर्षा में ही इन सभी भाषाई क्षेत्र में प्रवेश दिलाने का पथ प्रशस्त करना है। इसके बिना देश की एक तिहाई हिन्दी भाषी जनता तक ही युग आलोक सीमाबद्ध होकर रह जायगा। यह बन्धन कटने ही चाहिए और व्यापकता का पथ प्रशस्त होना ही चाहिए।
इस संदर्भ में दो कठिनाइयाँ हैं—[1] देश की भाषाओं में अनुवाद करने के लिए श्रम [2] उनके प्रकाशन के लिए धन। प्रज्ञा अभियान के वर्तमान साधनों में इन दोनों की ही कमी है। न तो शान्ति−कुञ्ज में ऐसे शब्द एवं प्रवाह में अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद कर सकें और न उतनी पूँजी ही जिससे अब तक के हिन्दी प्रकाशन के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में बड़े परिमाण में प्रकाशन सम्भव हो सके यह दोनों ही आवश्यकताएँ कितनी महत्वपूर्ण है। हैं यदि इस तथ्य को हृदयंगम किया जा सके तो उसका परिणाम एक शब्द में आश्चर्यजनक हो सकता है। जो कार्य हिन्दी क्षेत्र में पिछले तीस वर्षा में सका वह समूचे भारत की समस्त भाषाओं में एक वर्ष के भीतर ही हो सकता है। अनुवाद के लिए उपयुक्त व्यक्तियों का श्रम और प्रकाशन के लिए आर्थिक साधनों को जुटा लेने भर से ऐसा कुछ हो सकता है जिसकी कल्पना भर से बाँछे खिलती और रोमाञ्च उठते है।
समय ही बतायेगा कि यह आवश्यकताएं किस प्रकार पूरी हुई। इन पंक्ति यों का सीमित उद्देश्य है। अखण्ड−ज्योति परिवार में कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें गुजराती, मराठी, बँगला, उड़िया उर्दू, तमिल, तेलुगु, अँग्रेजी भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। जिनमें अनुवाद की ऐसी साहित्यिक क्षमता है, जो हिन्दी अभिव्यक्तियों को उसके प्रवाह की रक्षा करते हुए सही स्वरूप में अनुवादित कर सकते हों ऐसे लोग पूरे या अधूरे समय शान्ति−कुञ्ज में रहकर अनुवाद कार्य में सहायता कर सकते है। यह कार्य घर रह कर भी हो सकता है। न्यूनतम दो घण्टे नित्य एवं साप्ताहिक छुट्टी का आधा दिन इन दिनों सभी प्रज्ञापुत्र दे रहे हैं। उपरोक्त सेवा कर सकने में समर्थ व्यक्ति अपने घरों पर रहकर भी यह कार्य कर सकते है। यह कार्य वैतनिक आधार पर नहीं सभी सेवा भाव से करते हैं। जिनके लिए यह सम्भव हो वे पत्र व्यवहार कर लें। आवश्यकता है कि अनुवाद कार्य तो अभी से आरम्भ कर दिया जाय। इसमें मात्र श्रम का नियोजन है जिसे भावना रहने पर व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी युग धर्म की गरिमा समझते हुए बिना किसी कठिनाई के दे सकता है। इन पंक्ति यों में आह्वान उन्हीं लोगों का है। इससे प्रथम चरण तो उठ ही सकेगा। अनुवाद संग्रह रहने पर प्रकाशन की सुविधा होते ही उस उपक्रम को चला देने में न तो कठिनाई पड़ेगी न समय लगेगा। अनुवाद समय और श्रमसाध्य है। उसमें परामर्श; मार्गदर्शन संशोधन आदि अनेक प्रकार की काट छाँट करनी पड़ती है, किन्तु प्रकाशन में वैसी कठिनाई नहीं है। साधन होते ही अनेकों प्रेसों में पुस्तकें छपने दे देने पर इतना कार्य कुछ महीनों में ही पूरा हो सकता है जितना कि युग निर्माण योजना के अंतर्गत पिछले तीस वर्षा से सीमित साधनों की कठिनाई के कारण धीरे−धीरे होता रहा है।
जो उपरोक्त आवश्यकता का अनुभव करते हैं, जिन्हें उपरोक्त भाषाओं में अच्छी साहित्यिक प्रतिभा प्राप्त हैं, जिन्हें अपनी क्षमता का उल्लेख करते हुए यह बताने का अनुग्रह करें कि उनका समयदान किस प्रकार, कितनी मात्रा में इस पुण्य प्रयोजन के लिए उपलब्ध हो सकता है। अनुवाद शृंखला को इन्हीं दिनों अविलम्ब अग्रसर करने की आवश्यकता अनुभव की गई है। आकाश परस्पर विरोधी व्यवहार डडडड डडडड की पुष्टि की।
मनोविज्ञानियों ने व्यक्तित्वों के अन्तर्द्वन्द्व को समस्त मनोविकारों एवं मनोरोगों की जड़ माना है। आधुनिक मनोविज्ञान व्यक्तित्व की परतों के अध्ययन, विश्लेषण तक सीमित है। अन्तर्द्वन्द्वों की समाप्ति किस प्रकार हो, इसके लिए इतना कहकर चुप हो जाता है कि परस्पर दो व्यक्तित्वों के रूप में विघटित मानवी सत्ता में ऐक्य स्थापित किया जाय तभी द्वन्द्वों से छुटकारा पा सकना सम्भव है। दूसरा व्यक्तित्व क्यों विकसित हो जाता है जो मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों में—अनैतिक गतिविधियों में निरत करता है। इस दिव्य द्वन्द्वात्मक स्थिति से छुटकारे के लिए, कोई ठोस उपाय मनोविज्ञान नहीं बताता। अध्यात्म मनोविज्ञान की मान्यताएँ इस गुत्थी को सुलझाने एवं समाधान प्रस्तुत करने में सहयोग देती हैं।
अध्यात्म मनोविज्ञान का कहना है कि मानवी अन्तः−करण की संरचना दैवी तत्वों से मिलकर हुई है। अन्तः−करण अन्तरात्मा का क्रीड़ा क्षेत्र है। यहाँ से सदा सत्प्रेरणाएँ उभरती रहती हैं। अन्तःकरण की सद्प्रेरणाओं की उपेक्षा−अवहेलना करने तथा दुष्कृत्यों में निरत होने से अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न होती तथा मनुष्य को त्रास देती है। मनुष्य की मूलभूत सत्ता दैवी तत्वों से युक्त है तो क्यों कर कोई दुष्कर्मों की ओर आकृष्ट होता है? अध्यात्म विज्ञानी इसका कारण कर्मों के संस्कार को मानते हैं। जन्म−जन्मान्तरों के पशुवत् संस्कार मानवी चेतना पर छाये रहते हैं। उनकी जड़े मन की अचेतन परतों में गहराई तक जमी रहती हैं।
स्थिति से अन्त में सद्प्रेरणाएं उभरती डडड हैं, पर अभ्यास में पूर्वकृत कुकृत्यों के कुसंस्कार बने रहने से कोई विशेष प्रतिफल नहीं दिखा पाती। अन्तःकरण की दैवी सत्ता पर कुसंस्कार हावी रहते और मनुष्य को श्रेष्ठता के—महानता के मार्ग पर बढ़ने में भारी अवरोध खड़ा करते हैं।
अधिकाँश व्यक्तियों को दुष्प्रवृत्तियों से उबरने की इच्छा होती है। इसके लिए प्रयास भी करते हैं, पर आँधी, तूफान की भाँति हठीले कुसंस्कार अपने प्रवाह में बहाले जाते हैं और अभीष्ट इच्छा मात्र एक कल्पना बनकर रह जाती है। दुष्प्रवृत्तियों से जकड़े जाल−जंजाल से निकलते नहीं बनता। मनःचिकित्सा शास्त्र एवं आधुनिक मनोविज्ञान इस असमंजस की स्थिति से उबरने का कोई ठोस उपाय नहीं सुझाता। अध्यात्म तत्ववेत्ताओं ने इसके लिए तप−तितिक्षा की प्रायश्चित प्रक्रिया को एक समग्र और समर्थ उपचार माना हैं। मानसिक द्वन्द्वों से उबरने के लिए पूर्व में किये पापों का जहाँ समर्थ मार्गदर्शक के समक्ष प्रकटीकरण आवश्यक है वही यह भी जरूरी है कि जो किया गया है उस भूल के लिए सहर्ष प्रायश्चित्त भी किया जाय। प्रायश्चित्त द्वारा ही दुहरे व्यक्तित्व से बन आयी मनोग्रन्थियों, का उन्मूलन सम्भव है। साथ ही अन्तःकरण की सत्प्रेरणाओं का परिपालन कर सकना सम्भव है। इन प्रेरणाओं के अनुरूप मन का भी चिन्तन चलने लगे तो व्यक्तित्व की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करना सुगम बन जाता है। अन्तरात्मा अपनी निश्छल तथा श्रेष्ठ विशेषताओं के रूप में व्यक्तित्व में परिलक्षित होने लगे, यही पूर्णता की स्थिति है।