उठो, जागो और विकास करो

July 1982

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“उत्तिष्ठत, जागृत।” उत्थान करो, जागृत होओ−यह श्रुति का आदेश है। परम पिता का हरेक के अन्तःस्थल में गूँज रहा उद्घोष है। इसे हममें से किसने सुना, किसने नहीं,पता नहीं, किन्तु यह वाक्य बारबार गूँजा है और इस ने हमारे अंतर्कपाटों को हर बार खटखटाया है। संसार में प्रायः हर बाधा ने, हर दुःख ने, हर विच्छेद ने शत शत बार हमारी अन्तरात्मा की तंत्रिकाओं को आघात कर झंकृत किया है और उससे केवल एक ही वाणी निकली है−” उत्थान करो, जागृत होओ।” हमारे नव जागरण के लिए अन्तः में प्रतिष्ठित वह आत्मदेव निखिल अनिमेष नेत्रों से प्रतीक्षा कर रहा है कि कब प्रभात आयेगा और कब रात्रि का यह अन्धकार दूर होकर हमारे अपूर्ण विकास को निर्मल नवोदित आलोक से प्रकाशवान−उदीयमान कर देगा।

पुष्प को प्रभात होते ही कहना पड़ता कि ‘रजनी गयी’, प्रभात हो गया−तुम अब प्रस्फुटित होओ। यह आत्म विस्तार की एक सहज प्रेरणा है जो पुष्प को प्रफुल्लित−विकसित कर देती है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो सोचता है कि क्यों नहीं विश्वव्यापी आनन्द किरण वर्षा से,ऐसी ही स्वाभाविकता से वह भी विकसित सो उठता। वह क्यों अपनी पंखुड़ियों को संकुचित किये बैठा है। प्रभातकालीन सूर्य से लेकर प्रकृति का कण कण निखिल जगत प्रतिक्षण हमसे यही कहता है−अपने आपे का समर्पण करो, अपने स्वार्थों की ओर से मुँह मोड़कर एक बार विश्व वसुधा की ओर भी देखो, इस सुख दुःख से भरे विचित्र संसार में अचिन्त्य अगोचर ब्रह्मसत्ता के प्रति अपने आपको अर्पित कर दो।


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