मानवी नस्ल सुधारने में “जेनेटिक्स” का प्रयोग

July 1982

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विकास साधनों की उपयोगिता आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता, वे अपना काम करते है और करना चाहिए। इनने पर भी यह असमंजस अपने स्थान पर यथावत् ही बना रहता है कि मनुष्य की अपनी निजी विशेषता एक सुनिश्चित तथ्य जैसी बनकर भारी चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहती है और बहुत हिलाने डुलाने उठाने हटाने का प्रयत्न करने पर भी उत्साहवर्धक परिणाम उपलब्ध करने के मार्ग में बाधा ही बनी बैठी रहती है। देखा गया है कि शारीरिक और मानसिक विकास में मनुष्य की निजी विशेषता का असाधारण महत्व है। सुधार प्रयत्नों से उन पर सीमित प्रभाव ही होता है और परिवर्तन भी यत्किंचित् ही हो पाता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के चेहरे, रंग एवं कार्यशक्ति पर दृष्टिपात किया जा सकता है। अफ्रीका के नीग्रो, योरोप के गोरे चीन के मंगोल, अरब के तगड़े काया के बौने एकत्रित करके यह जा सकता है कि उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति में भी भारी अन्तर पाया जाता है। चेहरा, नाक, आँख, होंठ, दाँत, बाल, नाखून जैसे अंगों को देखकर रह जाना सका है कि यह भिन्नता उन समुदायों की निजी विशेषता है। इसका परिस्थितियों या साधनों से कोई प्रधान देश में गोरों के बीच बसते हुए भी अपने रंग और चेहरे को पीढ़ी दर पीढ़ी यथावत् बनाये रहते हैं। इसी प्रकार गोरे लोग दक्षिण अफ्रीका जैसे गर्म क्षेत्र में शताब्दियों से बसे होने पर भी काले नहीं हुए। उनकी सन्तानें गोरे रंगी की तथा माँ−बाप जैसे चेहरों की ही होती हैं जबकि पड़ोस में बसे मूल निवासी अपने काले रंग घुंघराले छोटे बाल, चौड़ी नाम मोटे होठ जैसी विशेषताएँ यथावत् बनाये रहते है सन्तानें इसी प्रकार की उत्पन्न होती रहती हैं।

इससे प्रतीत होता है कि प्रान्त, क्षेत्र, वातावरण आदि का प्रभाव मनुष्य की शारीरिक स्थिति पर उतना नहीं पड़ता जितना कि वंश परम्परा का। पख्तूनिस्तान के पठान बंगाल में वन जाने पर भी प्रायः वैसी ही पीढ़ियाँ बनाये जाते रहते हैं और दुबले बंगाली पख्तूनिस्तान में बस जाने पर अपने वंशजों के कार्य कलेवर में कोई विशेष परिवर्तन कर नहीं पाते।

यही बात बौद्धिक संरचना के सम्बन्ध में भी है। मारवाड़ी, बंगाली, द्रविड़ केरली ब्राह्मण कार्यस्थ आदि वासी जैसे वंशजों के चिन्तन, स्वभाव, कौशल, स्वर चातुर्य आदि पर एक विशेष अवतरण चढ़ा पाया जाता है। यों सुधार प्रयत्नों का कुछ लाभ तो होता ही है,पर जन्मजात विशेषता में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कि होना चाहिए।

एक ही पेड़ पर रहने वाले, एक ही वातावरण में पड़ने वाले, एक जैसा आहार करने वाले पक्षियों की आकृति और प्रकृति का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है। पशुओं,पक्षियों से लेकर कृमि कीटकों तक के अगणित प्राणी,पास पड़ौस में बसते और एक ही प्रकार के साधनों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी मौलिक विशेषताएँ बनाए रहते हैं और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी चलाते रहते हैं। इसे वंश परम्परा कहते हैं।

वंश परम्परा की चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि अगले दिनों मानवी विकास के लिए किए जाने वालों प्रबल प्रयत्नों में यही कठिनाई सबसे अधिक आड़े आयेगी कि परम्परागत आकृति एवं प्रकृति में हेर−फेर कैसे किया जाय? धीमी गति से यत्किंचित् सुधार होते चलने की प्रतीक्षा करते रहना अब इस प्रगति युग में सम्भव नहीं। न इतना धैर्य है और न अवकाश, अवसर कि वंश परम्परा के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं में क्रमिक परिवर्तन की आशा लगाये बैठा रहा जाय और सुधार प्रयत्नों से होने वाले अत्यन्त धीमे परिवर्तन पर सन्तोष किया जाय?

मानवी विकास के नये आधारों में वंशानुक्रम विज्ञान का आश्रय लेने की बात गम्भीरतापूर्वक सोची जा रही है। यह विज्ञान अभी नया है और सर्वसाधारण को उसकी उतनी जानकारी नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। अतएव आवश्यक समझा गया कि इस संदर्भ में प्राथमिक जानकारी और पीढ़ी विकास के साथ उसके समावेश का आधार संक्षेप में समझा किया जाय। इन पृष्ठों पर उसी का प्रयत्न किया जा रहा है। मानवी नस्ल का सुधारने में दिलचस्पी रखने वाले प्रत्येक विज्ञजन को इस संदर्भ में काम चलाऊ जानकारी तो नोट करनी ही चाहिए।

समझा जाना चाहिए कि मनुष्य के अन्दर एक प्रकार से दो विशिष्ट आनुवाँशिक व्यवस्थाएँ हैं। एक तो वह जिसके माध्यम से जीन्स तथा गुणसूत्र द्वारा पिता से सन्तान को जैविक सूचनाएँ स्थानान्तरित होती हैं। दूसरी व्यवस्था वह है कि जिसके माध्यम से साँस्कृतिक आदान प्रदान होता है उदाहरणार्थ बोलने वाले से सुनने वाले को, पाठक को अध्ययन से दर्शक का दृश्यावलोकन से। यही हमारी साँस्कृतिक धरोहर बनाता है।

‘यूजेनिक्स’ एक विज्ञान का नाम है जिसके द्वारा जीन्स को सुधारने एवं वंश परम्परा को परिष्कृत करने की बात सोची जाती है। फ्रांसिस गॉल्टन ने इस सदी के प्रारम्भ में इस शब्द से वैज्ञानिक समुदाय को परिचित कराया। वैसे तो इससे भी पहले ‘प्लाटो’ ने ‘द रिपब्लिक’ नामक अपनी रक्षा में इस प्रकार की सम्भावनाओं का वर्णन किया है। जिसमें (सलेक्टिव ब्रीदिंग) सही चयन से उत्तम नस्ल का निर्माण पक्ष पलटकर आया। उसके अनुसार केवल शारीरिक रूप से समर्थ एवं मानसिक दृष्टि से बुद्धिमत्ता युक्त जोड़ो को ही विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि उत्पन्न सन्तान उत्तम कोटि की हो। जो इस दृष्टि से हीन या निम्नकोटि के पाये जायें उन्हें राज्य द्वारा विवाह की अनुमति ही न मिलनी चाहिए या सन्तानों को पैदा होने से पूर्व ही नष्ट कर देना चाहिए ताकि समाज पर अनावश्यक बोझ न बढ़े। यह तो प्लाटो का अतिवादी चिंतन था, जो उस समय साकार न हो सका। पर गॉल्टन ने इस तथ्य की ‘प्राकृतिक चयन’ (नेचुरल सलेक्शन) की तकनीक के बजाय समाज को बुद्धिमानी प्राणी देने के लिए ‘सोशल सलेक्शन’ की विधि अपनाई जानी चाहिए।

गॉल्टन एवं नीत्से के प्रतिपादनों से समर्थन पाकर जर्मनों ने ‘यूजेनिक्स’ का हवाला देते हुए स्वयं को ‘मास्टर रेस’ घोषित कर दिया। एक जर्मन आर्यन एवं एक अनार्य के बीच विवाहों पर बन्धन लगा दिया गया। हिटलर के अनुसार लाखों व्यक्ति मात्र उसकी इस मान्यता के कारण मार दिए गए कि वे अनार्य थे, हीन नस्ल के थे एवं उनके रहने से वंश परम्परा के विकृत होने की सम्भावना थी।

अमेरिका में उलटा देखा गया है। इस राष्ट्र में विभिन्न देशों की विभिन्न वंश परम्पराओं में उत्पन्न व्यक्ति ही इससे नागरिक हैं। ये सभी बाहर से आकर गत चार शताब्दियों में यहाँ बसे हैं। मूलवासी कहने को मात्र कुछ हजार”रेड इंडियन” हैं। यहाँ कहा पाया गया है कि बुद्धिमत्ता की दृष्टि से काले व गोरे एक से ही हैं बल्कि पदों पर अश्वेत नस्ल के व्यक्ति अधिक सक्षम पाये गये हैं।

विचारकों का कहना है कि नस्ल के आधार पर विशेषताओं का निर्धारण विज्ञान सम्मत नहीं है। बुद्धि की कुशाग्रता व शरीर की बलिष्ठता किसी एक वंश की बपौती नहीं है। हाँ, यह बात जरूर है पौष्टिक आहार की उपलब्धि, सांस्कृतिक विकास के अवसर एवं समाज की सन्तुलित से ऊँचा उठने की सम्भावनाएँ किसी एक वंश को अधिक आसानी से मिल जाने से वह अधिक श्रेष्ठ हो गयी हो।

आनुवाँशिकता अपनी जगह है एवं पर्यावरण अपनी जगह। अलग अलग जीन्स वाले व्यक्ति उपयुक्त अनुकूल वातावरण पाकर बुद्धि की दृष्टि से सुनिश्चित विकास दर्शाते हैं। समाज और अधिक रचनात्मक व्यक्तित्व तैयार कर सकता हैं, यदि इसके प्रत्येक घटक को शैक्षणिक एवं आर्थिक, साँस्कृतिक एवं नैतिक विकास का परिपूर्ण अवसर दिया जाए। ऐसे विकास के अभाव में कई ऐसे व्यक्ति उभर नहीं पाते जो सम्भवतः न्यूटन गल्टेयर,नेपोलियन, आइन्स्टीन की कोटि के जीन्स वाले थे। इस कारण दोनों ही परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।

‘यूजेनिक्स’ शब्द अपने आप में पवित्र है, यदि इसमें से वंशवाद नस्लवाद जैसा पूर्वाग्रहयुक्त दुर्गुण निकाल दिये जायें। नेगेटिव यूजेनिक्स का अर्थ है नुकसान पहुँचाने वाले जीन्स को हटाने का प्रयास कर सन्तति को शुद्ध परिपूर्ण बनाना। पॉजेटिव यूजेनिक्स का अर्थ है लाभदायक (शरीरगत बलिष्ठता, मानसिक कुशाग्रता बढ़ाने वाले) जीन्स को सन्तति में पहुँचाने का प्रयास करना।

‘सलेक्टिव मेटिंग‘ अर्थात् उचित नस्ल के चुनिन्दा समूहों में परस्पर संसर्ग के लिए जो एक सुझाव समाने आया था वह था “वीर्य बैंक” के रूप में, जिसके प्रणेता थे −−− हेनरी मूलर। प्रतिभावान, प्रख्यात एवं हर दृष्टि से समग्र कुछ व्यक्तियों के वीर्य को ‘डीप फ्रीज’ में रखकर उसका समय आने पर विरोधी लिंग का उचित पात्र मिलने पर उपयोग हो ताकि इनके से एक सर्वश्रेष्ठ सन्तति का जन्म हो, यही दृष्टि इसके पीछे थी। इसे वैज्ञानिकों के नाम दिया “यूटेलेजेनेसिस”। कृत्रिम गर्भाधान का इसे पर्यायवाची कह सकते है ‘महामानव निर्माण हेतु तो नहीं, परन्तु नपुँसक व्यक्तियों को पिता’ बनाने के लिए अवश्य अमेरिका में इसका प्रतिवर्ष 10 से 15 हजार बार प्रयोग होता है एवं करीब 60 प्रतिशत में सन्तति का जन्म इस विधि से सफलता पूर्वक हो जाता है।

दूसरी विधि जो सुझाया जाती है, वह है जीन्स के घटक डी.एन.टी के साथ सीधा हस्तक्षेप। इसे “जेनेटिक सर्जरी” नाम दिया गया। यूजेनिक्स की यह विधि लगती तो बड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, पर जिस द्रुतगति से आनुवाँशिकविदों के प्रयास इस दिशा में चल पड़े है, उससे लगता है डी.एन.ए की संरचना में वाँछित रूपांतरण करने में वैज्ञानिकों से सफलता अवश्य मिलेगी। जेनेटिक सर्जरी को कई प्रकार से प्रयुक्त किया जा रहा है।

प्रथम विधि में एक जीन के डी.एन.ण् को पृथक कर उसे जैविक अतिक्रमण (सेल्युलर इर्न्सशन) की तकनीक द्वारा प्रयोगशाला में दूसरे जीन के डी.एन.ए से सम्मिलित किया जाता है। 10 लाख में जीव जीवकोष इस विधि से पूरी तरह रूपांतरित किया जा सकना सम्भव है। दिक्कत यह है कि विशेषताओं को हम नये जीवकोष में चाहते है, उसका प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे छोटे घटक ‘न्यूक्लियोटाइड’ को पहले से कैसे पहचाना जाय ताकि चुनाव शत प्रतिशत कारगर हो?

दूसरी विधि में ‘वायरस’ के कणों की मदद से डी.एन.ए. का स्थानान्तरण किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि वायरस में एक रहस्यपूर्ण क्षमता यह होती है कि वे जीवकोषों में प्रवेश हेतु किसी रसायन अथवा वैद्युतिक व्यवस्था का सहयोग नहीं लेने देते। उसे भी असम्भव-सा ही माना जा रहा है।

तीसरी विधि में रसायनों की सहायता से डी.एन.ए के घटक न्यूक्लियोटाइडो में से कुछ की संरचना को आमूल चूल बदलने की बात सोची जाती है।

चौथी विधि जिसे पार्थिनोजोनेसिस कहा जाता है और भी विलक्षण युक्त है। इसमें वाँछित गुण संप्रेषित करने वाली महिलाओं की जनन ग्रन्थियों (आवेरी ) से डिप्लाइड (अण्डे) अलग कर लेने की बात सोची जाती है, जिन्हें अभी निषेचित न किया गया हो। माता से मिली इस जेनेटिक संरचना को आनुवाँशिक विशेषज्ञ कर सकते हैं तो सम्भवतः निषेचन के बाद उभर कर न आ पाते।

“जीन्स की कलम” के समर्थक वैज्ञानिकों की प्रतिपादित पांचवीं विधि में शारीरिक ऊतकों को प्रयोगशाला में भ्रूणवत् (एम्ब्रियोनिक) बना लिया जाता है। ऐसे ‘क्लोन्स’या कलम उन गुणों से भरे पूरे होते हैं जो उस व्यक्ति के क्रोमोसोम्स में परिपूर्ण मात्रा में थे, सम्भवतः निषेचन से उनमें परिवर्तन आ जाता। ऐसी कलम को उचित वातावरण व पोषण देकर कई कार्बन कॉपी उस व्यक्ति की तैयार की जा सकती है जिसके कि ऊतकों से कलम को तैयार किया गया था।

इस क्षेत्र में आनुवाँशिक रोगों को दूर करने में लगे वैज्ञानिकों को जिस सीमा तक सफलता मिली है उससे कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं, जब किसी भी भावी सन्तति के डी. एन.ए. में निर्धारित क्रमानुसार वाँछित परिवर्तन कर उसकी संरचना को मोड़ दिया जा सकता है।


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