मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

July 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विश्व के सभी तत्ववेत्ताओं ने मनुष्य की मूलभूत सत्ता को ‘सत्यं, शिवं सुन्दरम्’ से युक्त माना है। प्लेटो का कहना है कि ‘मनुष्य की अन्तरात्मा शक्तियों एवं सौंदर्य का भाण्डागार है, विकृतियाँ तो मन और भौतिक जगत के संयोग की उपज होती है।” प्रसिद्ध दार्शनिक स्पिनोजा ने मनुष्य को पूर्ण माना है। उसका कहना था कि अपनी मूलसत्ता तथा सम्बद्ध निर्देशों की विस्मृति के कारण ही वह अपूर्ण बनता है। रूसो कहता था कि सृष्टि के निर्माता ने सभी वस्तुएँ सुन्दर बनायी हैं, मनुष्य तो उसकी सर्वोत्तम कलाकृति है, पर अपने ही हाथों मनुष्य अपने सौंदर्य को नष्ट करता तथा स्वभाव को विकृत बनाता है। सन्त इमर्सन का कथन है कि “मनुष्य परमात्मा का प्रतीक−प्रतिनिधि है, पर विकृत आचरण के कारण उस गरिमा को गँवा बैठता है और अन्ततः दुःख कष्ट भोगता है।” संसार के मूर्धन्य मनः चिकित्सकों में डॉ. विलियम ब्राउन, चार्ल्स युँग, डॉ. एमील कुए आदि की विचारधारा भी लगभग इसी प्रकार की है। वे सभी मनुष्य की मूलभूत को सुन्दरतम् परिपूर्ण और शक्तियों का अजस्र स्रोत मानते हैं।

इमील कुए का मत था कि ‘मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति है। पर आत्म−विस्मृति के कारण उस सामर्थ्य का लाभ नहीं उठा पाता और असमर्थता की अनुभूति करता रहता है। आत्मसत्ता के निर्देशों का परिपालन न करने और बहिर्मुखी मन के आदेशों का गुलाम बने रहने से व्यक्तित्व की पूर्णता खण्डित होती और अंतर्द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न होती है। द्वन्द्व की हालत में आन्तरिक शक्तियों का नियोजन एक दिशा विशेष में नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य के भीतर दो प्रकार के व्यक्तित्व परस्पर विरोधी आचरण करने लगते हैं। अन्तरात्मा अपनी विशेषताओं के अनुरूप प्रेरणा देती है जबकि मन बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का गुलाम होता है। फलस्वरूप दोनों का सामंजस्य नहीं बन पता। फलतः मनुष्य अपनी सामर्थ्य का सही लाभ नहीं उठा पाता।

आधुनिक मनोविज्ञान को शोधों के अनुसार मानव सत्ता के भीतर परस्पर दो विरोधी व्यक्तित्वों का संघ अनेकों प्रकार के मानसिक रोगों को जन्म देता है तथा आन्तरिक शक्तियों को क्षीण करता है। मानसिक अशान्ति, क्लेश, भय, चिन्ता, आशंका, इच्छा शक्ति व दुर्बलता, आत्म−विश्वास की कमी तथा अनेकों प्रकार मानसिक एवं शारीरिक रोगों का एक प्रमुख कारण यह है कि मनुष्य के भीतर काम करने वाले दो व्यक्तित्व के बीच परस्पर सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता। यह उन दोनों के बीच परस्पर एकता बन सके तो मनुष्य असामान्य शक्ति का स्वामी बन सकता है। मनः शास्त्री के अनुसार मनुष्य अपने बाह्य व्यक्तित्व में सैद्धांतिक दृष्टि से नैतिक, सदाचारी और महान हो सकता पर भीतरी व्यक्तित्व में अनुदार, अनैतिक क्रूर और व्यभिचारी बने रहने से अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है। यह हर प्रकार के मानसिक असन्तुलनों का कारण बनता है

अध्यात्म तत्व वेत्ताओं के अनुसार मूलतः अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई है। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव जैसी क्रम को श्रेष्ठ बनाने तथा महानता के पथ अग्रसर होने की ही अदृश्य प्रेरणाएँ उठा करती सामान्यतया अन्तःकरण की देवी चेतना दुष्प्रवृत्तियों जीवन सत्ता में प्रवेश करने की छूट नहीं देना चाहती, जब इस क्षेत्र में निकृष्टता प्रविष्ट करती है तो उस सहज प्रतिक्रिया होती है। दोनों के बीच संघर्ष छिड़ा है। यही देवासुर संग्राम है जो मनुष्य के अन्तरंग चलता रहता है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे ही अंतर्द्वंद्वरूप में निरूपित किया है। संघर्ष की प्रतिक्रियाएँ सीमित स्थान तक नहीं रहती हैं—समीपवर्ती क्षेत्र को भी प्रभावित करती हैं। जहाँ युद्ध होते हैं—जिनके बीच डडडड जाते हैं प्रभाव उन्हीं तक सीमित नहीं रहता। अर्चना आकाश सामान्य भी हानि उठाता है। द्वंद्व तो भीतर चलता है पर उसकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया दिखायी पड़ती है। मन और तन दोनों ही क्षेत्रों से विकृतियाँ शारीरिक, मानसिक आधि−व्याधियों के रूप में फूट–फूटकर निकलती है। दुष्प्रवृत्तियां आत्मसत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए जी–जान से प्रयत्न करती है। अन्तरात्मा को यह दबाव असह्य होता है। वह विरोध पर अड़ी रहती है, फलस्वरूप मनुष्य के अन्तराल में संघर्ष चलता है जिसके दुष्परिणाम शोक सन्तापों के रूप में, रोग−क्लेशों के रूप में प्रस्तुत होते हैं।

मनःशास्त्री इस स्थिति को ‘डबल परसनाल्टी’—दुहरा व्यक्तित्व कहते हैं। एक शरीर में दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्वों का होना शरीर शास्त्रियों के अनुसार भी हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होता है तथा अनेकों प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करता है। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई शोधों से भी यह निष्कर्ष निकला है कि एक शरीर में दो व्यक्तित्व का होना मनुष्य के लिए खतरनाक हो सकता है। श्री एस. जे. डायमण्ड नामक विद्वान एवं न्यूरोसाइकोलॉजी विशेषज्ञ ने एक पुस्तक लिखी है—’इन्ट्रोड्यु सिंक− न्यूरोसाइकोलॉजी।’ पुस्तक में बताया गया है कि किन्हीं−किन्हीं व्यक्तियों के मस्तिष्क में व्यक्तित्व की दो परतें विकसित हो जाती है तथा स्वतन्त्र रूप से दो मस्तिष्कों के रूप में अलग−अलग व्यक्तित्वों का परिचय देती हुई काम करने लगती है। सामान्यतया मनुष्य के दृष्टितन्त्र की कार्यप्रणाली दोनों सेरिब्रल−हेमीस्फियर के संयुक्त प्रयास से काम करती है, पर किन्हीं− किन्हीं में दाहिने और बायें सेरिब्रल हेमीस्फियर्स में परस्पर तालमेल नहीं बिठा पाता और वे स्वतन्त्र तथा परस्पर एक−दूसरे के विरोधी आचरण का परिचय देने लगते हैं लेखक के अनुसार ऐसे व्यक्तित्वों में सामान्य मनुष्य की तरह एक नहीं, अपितु दो भिन्न−भिन्न दृश्य जगतों का अनुभव होता है।

‘साइन्टिफिक अमेरिकन’ पत्रिका के नवम्बर 1981 अंक में प्रकाशित एक शोध प्रबन्ध में डॉ. जे. शास्त्रियों सका मत है कि मस्तिष्क के दोनों सेरिब्रल हेमीस्फियर कभी−कभी अपनी−अपनी दिशा के अंगों को परस्पर विरोधी निर्देश भी देने लगते है। उदाहरणार्थ एक रोगी के परीक्षण में उन्होंने पाया कि उसका बांया हाथ जब भी गाडन का फीता बाँधने का प्रयत्न करता, दाहिना उसी समय उसे खोलने का प्रयत्न करने लगता। इसी प्रकार एक दूसरा रोगी जब भी घास काटने की मशीन की हैंडिल पर एक हाथ रखता। एक−हाथ उसे आगे चलाता तो दूसरा हाथ उसे पीछे की ओर उल्टी दिशा में धकेलने लगता। ऐसी स्थिति में रोगी की मानसिक उत्तेजना बढ़ जाती तथा वह अव्यावहारिक आचरण करने लगता। इसी तरह एक तीसरा रोगी जब पढ़ने के लिए बाँये हाथ से पन्ने उलटता तो दांया हाथ बार−बार उसे पलट देता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिए वह दायें हाथ को नीचे दबाकर उसी के ऊपर बैठ जाता। ऐसी हालत में प्रायः उसका स्वभाव उग्र हो जाता और वह पागलों जैसे व्यवहार करने लगता था। एक अन्य परीक्षण में देखा गया कि एक रुग्ण लड़की जब कभी भी आवश्यकता से अधिक सोती थी अथवा टेलीविजन में अवाँछनीय दृश्य देखती थी तो अनायास ही उसका बांया हाथ उसकी गाल पर चपत लगाने लगता था। लड़की का कहना था कि जागृतावस्था में वह इस कृत्य को रोकने का प्रयास करती पर असफल रहती थी।

प्रख्यात मनःशास्त्री प्रिंस मार्टिन ने अपनी मनोविज्ञान की एक पुस्तक में श्रीमती व्यूसाम्प नामक एक ऐसी महिला का उल्लेख किया है जिसके भीतर एक साथ दो व्यक्तित्व कहते थे। जिसमें एक का स्वभाव सन्त जैसा था जबकि दूसरे का शैतान जैसा। दोनों का व्यवहार परस्पर विरोधी होने से लड़की मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से सदा रुग्ण रहती थी। उसके जीवन पर कभी एक व्यक्तित्व हावी रहता तो कभी दूसरा। उदाहरण के लिए अपने नियत स्थान पर सन्त स्वभाव का व्यक्तित्व यदि कोई पुस्तक रख देता था तो दूसरा थोड़ी देर बाद उठाकर किसी ऐसे स्थान पर छुपाकर रख देता था जिसे ढूंढ़ने में भी कठिनाई होती थी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118