जीवन कैसे उत्पन्न हुआ? उसका प्रारम्भिक रूप क्या था? प्रगति किस आधार पर हुई। उन प्रश्नों में से सबका उत्तर एक साथ देना तो कठिन है पर इतना निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं हुई, जैसा कि अति उत्साही प्रकृति समर्थक नास्तिकवादी वैज्ञानिक पिछले दिनों मानने लगे थे।
जीवन,जीवन से ही उत्पन्न हो सकता है। उसका लय−कलेवर भले ही भौतिक रसायनों का बना हुआ हो पर उसका मूल अस्तित्व वैसा नहीं है जिसे कि पदार्थ का उत्पादन कहा जा सकेगा। इस संदर्भ में जो भ्रान्तियाँ समय समय पर उठती रही हैं, क्रमशः उनका समाधान भी होता चला आया है।
शताब्दियों तक इस पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति एक साधारण-सी बात समझी जाती थी। उस समय लोगों के लिए यह बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। अनेक वैज्ञानिकों एवं विज्ञान के जनक माने जाने वाले ग्रीक दार्शनिक अरस्तू का भी विचार था कि जीवों की उत्पत्ति स्वतः ही निर्जीव पदार्थों से हुई है। जबकि ईसा के तीन शताब्दी बाद के महान दार्शनिक प्लोटिन का विचार था कि जीवों से उत्पत्ति मिट्टी के सड़ने से हुई है।
सन् 1862 के बाद उपरोक्त मान्यता को बहुत बड़ा आघात पहुँचा जब कि “जीवन की उत्पत्ति जीवन से ही सम्भव है।” “लुई पास्चर” के प्रयोग ने यह साबित कर दिखाया कि वर्तमान परिस्थितियों में छोटे−छोटे जीवधारियों की भी उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती। पास्चर के इस प्रतिपादन के बाद जीवधारियों की उत्पत्ति सम्बन्धी समस्या वैज्ञानिकों के लिए दर्द बन गयी।
इस पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ हैं। एक दल की मान्यता है कि जीवन शाश्वत और इसकी उत्पत्ति हमारी पृथ्वी पर नहीं हुई, अपितु अन्तरिक्ष है और इसकी उत्पत्ति हमारी पृथ्वी पर नहीं हुई, अपितु अन्तरिक्ष से यह हमारी पृथ्वी पर आया जहाँ उसका स्थायी निवास है। वैज्ञानिकों के दूसरे दल का विचार है कि जीवों की उत्पत्ति इसी पृथ्वी पर हुई, लेकिन जीवन विहीन पदार्थों से। उस मान्यता को सर्वमान्य बनाने के लिए उन्होंने कुछ प्रायोगिक आंकड़े भी प्रस्तुत किये लेकिन इस मान्यता को ख्याति नहीं मिल पाई। ‘फ्रेडरिक ऐन्जिल्स ही पहला वैज्ञानिक था, जिसने जीवधारियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपना उत्पत्ति आकस्मिक रूप में नहीं हुई, वरन् पदार्थों के क्रमिक विकास के दौरान हुई।
प्राणि−संरचना के बारे में भारतीय मत सर्वथा भिन्न है। भारतीय मत ऐसा है कि − ईश्वर ने हर प्राणी को सृष्टि के आरम्भ में ही स्वतंत्रता सत्ता सौंपी है। अमीबा अभी भी अमीबा है, हाथी हाथी है, सरीसृप सरीसृप है, बन्दर बन्दर है तथा मनुष्य मनुष्य है। वह प्राणियों के आदिम सृजन काल से ही मनुष्य काल से ही मनुष्य है। शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक क्षमताओं में उतार चढ़ाव, हेर फेर क्रियाशीलताओं की दिशाओं में उलट पुलट और जीवनयापन के स्वरूप में कालक्रम से परिवर्तन तो होता ही रहता है इस संसार का ध्रुव नियम परिवर्तन ही है, किन्तु मूल सत्ता अक्षुण्ण रहती है। समस्त प्राणी आरम्भ काल में अपनी समस्त मौलिक विशेषताओं के साथ जन्मा है− यही भारतीय प्रस्थापना है जो पश्चिम के विकासवाद और कुछ धार्मिक कठमुल्लों के विघटनवाद या पतनवाद दोनों सर्वथा भिन्न है। साथ ही प्राण चेतना भारतीय दृष्टि से मौलिक आदि तत्व हैं− वह जड़ की उत्पत्ति नहीं है।