एक एव मनो देवो ज्ञेथः सर्वार्थ सिद्धिदः। अन्यत्र विफलक्लेशः सर्वेषाँ तज्जयं बिना॥ −योगवाशिष्ठ
‘एक मात्र मन’ देवता को ही सम्पूर्ण सिद्धियों का देने वाला समझो। उसको बिना जीते हुए, अन्य क्रियाओं को असफल वाली ही जानो।’
पवनो वध्यते येन मनस्तेनैव बध्यते, मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते। मनो यत्र विलीयते पवनस्तत्र लीयते, पवनों लीयते यन्त्र विलीयते। −हठयोग प्रदीपिका
(प्राणायाम द्वारा) प्राणवायु को अधीन कर लेने वाला मनुष्य अपने मन को भी अपने अधीन कर सकता है। उसी प्रकार अपने मन का अधीन कर लेने वाला प्राणवायु को भी अपने अधीन कर लेता है। जिस स्थान (आधारचक्र) पर मन का लय होता है, उसी स्थान में प्राणवायु का भी लय हो जाता है। इसी भाँति जिस स्थान में प्राणवायु का लय होता है, उसी आधार चक्र संस्थान में मन भी आप ही आप लीन हो जाता है।