क्या मानवी सभ्यता मात्र आठ हजार वर्ष पुरानी है

July 1982

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विकासवादी मान्यता चल पड़ी है कि मनुष्य के आदि पुरुष वानर जाति के निकटवर्ती थे। अनुभवों से से सीख सीखकर सभ्य हुये। ऐसी ही एक सभ्य जाति थी आर्य, जो ईसा से दो हजार साल पहले मध्य पश्चिम एशिया में थी। उसी की एक शाखा ईरान से होते हुए भारत में आयी। यहाँ उस आर्य सभ्यता का कालक्रम से और अधिक विकास हुआ। उन्हीं द्वारा लगभग डेढ़ हजार ईसवी पूर्व से बारह सौ ईसवी पूर्व के बीच जो सांस्कृतिक साहित्य रचा गया, वह वेदों के रूप के रूप में विद्यमान है। इन अवधि के उपरान्त आरण्यक, उपनिषद्, सूत्र ग्रन्थ आदि रचे गये। इस स्थापना का कारण यही है कि विकासवादी पुरातत्व वेत्ता पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरम्भिक उदय कुल 4−5 हजार वर्ष पूर्व ही मानते हैं। किन्तु इस स्थापना के पीछे न कोई ठोस तर्क है, न ही पर्याप्त तथ्य।

जब ईसाई लोगों का विश्व पर प्रभुत्व बढ़ा और ज्ञान विज्ञान की अग्रिम पंक्ति में वे लोग आये तो आने अनजाने उन्होंने अपने ईसाई−संस्कारों का वैज्ञानिक परिकल्पनाओं (हाइपोथीसिस) में प्रक्षेपण किया। बाइबिल ने लिखा है कि सृष्टि को हुए मात्र आठ हजार वर्ष हुए हैं। उधर आधुनिक वैज्ञानिक गणनायें यह सिद्ध कर रही थी कि पृथ्वी की आयु 4 अरब वर्ष है। ऐसी स्थिति में ईसाई संस्कारों वाले विकासवादी वैज्ञानिकों ने यह परिकल्पना प्रस्थापित की की मनुष्य का वानर रूप में जन्म तो कुछ लाख वर्ष पूर्व हुआ है, किन्तु सभ्य मानव का जन्म मात्र आठ हजार वर्ष पूर्व हुआ। उससे उन्हें यह सन्तोष कर सकने का अवसर मिला कि बाइबिल की बात आँशिक रूप से सत्य है। किन्तु यह सन्तोष सत्य पर नहीं, परिकल्पना पर आधारित है। बिना सत्य का पूर्ण निष्ठा से अनुसंधान किये व्यक्ति को शान्ति मिल सकती है।

यहाँ तीन बातें स्मरण कर लेनी आवश्यक हैं− पहली यह कि वैज्ञानिकों के ही अनुसार अपनी इस पृथ्वी की आयु लगभग 4 अरब वर्ष है। दूसरी बात यह है कि यह पृथ्वी किन्हीं भी श्रेष्ठ प्राणियों के निवास के उपयुक्त है, और तीसरी यह कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह माना है कि अपने इस ब्रह्माण्ड के कतिपय अन्य ग्रहों में भी न केवल जीवन की, अपितु सुविकसित सभ्यता होने की भी सम्भावना है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. विल्स के अनुसार तो ब्रह्माण्ड में 18 करोड़ों ग्रह ऐसे हैं, जहाँ किसी न किसी रूप में जीवन अवश्यम्भावी हैं। 18 हजार ऐसे हैं, जहाँ मनुष्यों की तरह के विचारशील प्राणी रहने की सम्भावना है और 180 ग्रह तो ऐसे हैं, जो पंचभौतिक तत्वों की अत्यन्त सूक्ष्म जानकारियों से ओत प्रोत समृद्ध प्राणियों के निवास स्थल हो सकते हैं। यह भी वैज्ञानिक मानते हैं किसी पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म 10 लाख वर्ष से भी पहले हुआ।

जैवरसायन शास्त्री डॉ. एस. मिलर ने प्रकाश स्रोतों की रासायनिक संरचना का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि ऐसे समुन्नत एवं जीवधारी ग्रहों की संख्या एक लाख से कम कदापि नहीं हो सकती। ऐसे ग्रहों तक विद्युत−चुम्बकीय संकेत भेजकर उनसे संपर्क करने के प्रयास भी वैज्ञानिक कर रहे हैं। यदि उन ग्रहों में इन दिनों श्रेष्ठ सुविकसित प्राणी हो सकते हैं, तो आज से लाखों वर्ष पर्व इसी पृथ्वी पर श्रेष्ठ सुविकसित मनुष्य क्या न रहे होंगे? चार अरब वर्ष पुरानी पृथ्वी पर करोड़ों या लाखों वर्ष पूर्व सुविकसित बुद्धिमान मनुष्य रहें हों, इसमें कुछ भी असम्भव नहीं और सभ्य मनुष्य मात्र 5−6 हजार वर्ष से हुये हैं। इसका अर्थ है कि शेष सारी अवधि यानी 8 लाख 95 हजार वर्षों तक लगातार वन्य मानव तो रहा ही। इतनी लम्बी अवधि में अरबों खरबों वन्य मानव जन्में और मरे होंगे। उन सभी के कंकाल मिट्टी में दबते रहे। किन्तु आज तक पुरातत्व विदों को उनके कुल जीवाश्म जो मिले हैं, वे हजार भी नहीं हैं, उनकी संख्या सैकड़ों तक ही सीमित है और वे भी जीवाश्म आधे अधूरे मिले हैं। शेष अरबों खरबों वन्य मानवों के जीवाश्म कहाँ गये? वे क्यों नहीं मिलते?

इसके साथ ही दूसरी युक्ति यह है कि आज से लाखों वर्ष पूर्व सुविकसित मनुष्य थे तो फिर क्या प्रकृति के परमाणुओं में किसी व्यवस्था नहीं कि एक बीज से दूसरे भिन्न बीज वाले पदार्थ की उत्पत्ति हो सके। अमीबा अभी अमीबा ही है। अमीबा से ही ह्वेल और डायनासोर आदि विशाल आकार के जीव बने और फिर महासरीसृप आदि छोटी छिपकलियों में भी बदल गये,ऐसे विचित्र प्रतिपादन जो विकासवाद के पक्ष में किये जाते हैं, विवेक ग्राह्य नहीं है। जीवधारियों की आकृति एवं प्रकृति में कालक्रम से हेर फेर तो स्वाभाविक है किन्तु वह हेर फेर इतने आश्चर्यकारी अन्तर वाला नहीं हो सकता कि जिससे किसी जीव वर्ग की मूल सत्ता का कोई आधार तक शेष न रहे। मनु की सन्तान मानव ने अपनी लम्बी यात्रा में अनेक उतार−चढ़ाव तो अवश्य देखे होंगे। उसके चिन्तन, कर्तृत्व एवं जीवनयापन के क्रम में भी परिवर्तन स्वाभाविक ही हुये होंगे।

ईश्वर ने हर प्राणी को अपनी स्वतन्त्र सत्ता सृष्टि के आरम्भ में ही दी है। मनुष्य भी अपनी मूलभूत विशेषताओं के साथ प्रारम्भ में ही दी है। मनुष्य भी अपनी मूलभूत विशेषताओं के साथ प्रारम्भ से ही जन्मा है और काल −चक्र के अलग अलग सोपानों में वह अनेकानेक उतार चढ़ावों से गुजरता रहा है।

मनुष्य आगे पीछे, दायें बायें सभी ओर चलता रह सकता है। यात्रा आकाश की भी हो सकती है और पाताल की। दोनों को अपने अपने ढंग से प्रगति ही कहा जा सकता है। अपनी स्वतन्त्र सत्ता एवं इच्छाशक्ति के कारण मनुष्य तथा अन्य प्राणी भी जीवन के अनेक उतार चढ़ावों से गुजरते हैं, इस आलोक में ही विकास के क्रमों का अन्वेषण अधिक युक्ति युक्त होगा तथा सत्य के अधिक नजदीक ले जायेगा।

भारतीय आर्ष−ग्रन्थों में ऐसे अनेक सूत्र संकेत तथा विवरण भी विद्यमान हैं, जिनसे मानवी विकास के क्रम अन्वेषण में दिशा निर्देश व सहायता मिल सकती है। बाल्मिकीकृत रामायण में रावण का द्वार यानों और विमानों से सज्जित होने का उल्लेख है। कुछ पूर्व समय मेक्सिको में भूमिस्खनन से एक अतिश्रेष्ठ युद्धक विमान का अति प्राचीन प्रारूप प्राप्त हुआ है, जो मय−सभ्यता का अवशेष है। मानव मय रावण का समकालीन था और उसके नाम से मय वंश चला। यह शिल्पी समुदाय से रूप में प्रसिद्ध हुआ है। महाभारत काल में भी इस समुदाय के शिल्पी विद्यमान थे, ऐसे विवरण मिलते हैं।

विश्व के विभिन्न हिस्सों में हाथियों के जो जीवाश्म मिले हैं, उसके आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं का कथन है कि चार करोड़ वर्ष पूर्व ओलिगोसीन युग में हाथी विशाल संख्या में शिवालिक के जंगलों में विचरण करते थे। यह ‘तैतरा वेलोडान’ वर्ग, तदुपरान्त ‘मास्ताडान’ वर्ग और फिर ‘स्टेगोडान’ वर्ग। ‘स्टेगोडान’ वर्ग और फिर ‘स्टेगोडान’ वर्ग के ही हाथियों में चार दांतों वाले हाथी भी थे जो लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व शिवालिक पहाड़ियों में विचरते थे। भारत की परम्परागत गणना के अनुसार भी राम रावण का समय लगभग पौने नौ लाख वर्ष पुराना है। चार दाँतों वाले हाथियों का काल भी लगभग वही है। अतः राम रावण युद्ध का काल लगभग पौने लाख वर्ष पुराना ठहरता है। उस समय भारत में इतने सुविकसित सभ्य लोग रहते थे, कि उनके पास विमान, आग्नेयास्त्र आदि की दृष्टि से भी वे लोग अत्यन्त विकसित थे, विज्ञान और दर्शन में तो विकसित थे ही।

ऐसे विशिष्ट प्रमाणों और संकेतों के आधार पर हमें पूर्वाग्रह से पूर्णतः मुक्त रहकर अपने यथा सम्पूर्ण मानव जाति के इतिहास तथा क्रम विकास का गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन−विश्लेषण करना चाहिए। तभी ऐसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होंगे, जो सृष्टि−चक्र तथा मनुष्य की संकल्प शक्ति के यथा तथ्य स्वरूप पर प्रकाश डालेंगे और मनुष्य को ऊर्ध्वगामी, आलोकवादी बनने के प्रेरणा दे सकेंगे।


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