चेतना अंतःक्षेत्र में भी विकसित हो

August 1976

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इस विश्व का निर्माण जड़ और चेतन के समन्वय से हुआ। पंच तत्वों से विनिर्मित-अणु संगठनों की हलचलों से युक्त जड़ जगत का अस्तित्व विविध पदार्थों के रूप में हमें दृष्टिगोचर होता है। ऋतु प्रभाव उत्पत्ति, अभिवर्धन और परिवर्तन प्रस्तुत करने वाली ऊर्जा अनेकानेक स्तर की चित्र-विचित्र हलचलें उत्पन्न करती रहती है। गतिचक्र अपने विविध-विधि कौतुक-कौतुहल उत्पन्न करता रहता है। प्रकृति की क्षमता असीम है। उसके एक-एक कण में शक्ति का अजस्र भण्डार भरा पड़ा है। अणु विस्फोट से निकलने वाली ऊर्जा प्रायः शताँश ही अपना प्रभाव अन्य पदार्थों पर छोड़ पाता है। शेष तो विस्फोट से प्रतिक्रिया उत्पन्न करने की स्थिति उत्पन्न होने के बीच ही अन्तरिक्ष में तिरोहित हो जाता है। यदि अणु विस्फोट की समस्त ऊर्जा संग्रह की जा सके तो उसका प्रभाव अब जो परिलक्षित होता है उससे सौ गुना अधिक आँका जा सकेगा।

प्रकृति की स्थूल और सूक्ष्म परतों का वैज्ञानिक आधार पर अन्वेषण किया जाता रहता है। पृथ्वी से उपज, पानी से सिंचन, आग से गर्मी जैसी मोटी विज्ञान प्रक्रिया से लोग चिरकाल से परिचित हैं। पिछली शताब्दियों में शब्द प्रकाश आदि के अनेक आधार प्राप्त कर लिए गये हैं और उनके सहारे विभिन्न आविष्कारों का चमत्कारी प्रतिफल सामने आया है। इस आधार पर सुविधा साधनों की अतिशय वृद्धि हुई है। इस क्षेत्र में हम पूर्वजों से कहीं आगे हैं। निकट भविष्य में प्रकृति के रहस्यों की और भी गहरी परतें खुलने की सम्भावना है और अपेक्षा की जाती है कि अगली पीढ़ी अब की अपेक्षा प्रकृति सम्पदा में और भी अधिक लाभान्वित होने की स्थिति में होगी।

इस विश्व का दूसरा पक्ष है चेतना। चेतना का अर्थ है- ज्ञान, अनुभव, कल्पना, सम्वेदना, आस्था आदि के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली वह शक्ति जो जड़ को उपयोगी बनाती और उपभोग करती है। वनस्पति, कृमि-कीटक, पशु-पक्षी और मनुष्य ऊपर से तो प्रकृत पदार्थों से विनिर्मित काय आवरण ओढ़े होते हैं, उनके भीतर एक स्वतन्त्र चेतन रहता है। इसी की इच्छा आवश्यकता एवं प्रेरणा से काया को विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप करने पड़ते हैं। परिवर्तन प्रवाह में पदार्थ को उत्पत्ति विसर्जन के चक्र में घूमना पड़ता है। अस्तु काया समयानुसार जराजीर्ण, रुग्ण एवं अशक्त होकर मर जाती है फिर भी चेतना का अस्तित्व किसी रूप में बना रहता है और वह फिर नये रूप में अपनी सत्ता का परिचय देती है।

जड़ पदार्थों की विचित्रता देखते ही बनती है। उनकी क्षमता और विविधता को बारीकी से देखा जाय तो सृजेता की कलाकारिता को देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। पर जब चेतना की अविकसित परिस्थिति में दृष्टिगोचर होने वाली विशिष्टताओं पर दृष्टिपात करते हैं तो आश्चर्य का अन्त ही नहीं आता।

वैज्ञानिक आविष्कारों और उपकरणों ने सुविधा साधनों के पहाड़ खड़े कर दिये हैं। पर चेतना के निम्न स्तर और उच्चतम स्तर की तुलना की जाती है तो लगता है यहाँ अनुपात वैसा ही है जैसा कि अति लघु परमाणु और विशालकाय पर्वत के बीच पाया जाता है। जड़ पदार्थों की स्वनिर्मित हलचलें सीमित और अनियमित हैं। वर्षा, तूफान, भूकम्प आदि की हलचलें होती तो किसी क्रम व्यवस्था के आधार पर ही हैं, पर सूर्योदय की तरह उनमें समय एवं स्तर का कोई निश्चय नहीं, इसलिए उन्हें अनियमित कहा जाता है। उन्हें मूर्छित स्थिति से सक्षम स्तर तक लाने में-व्यवस्थित और उपयोगी बनाने में-चेतना का बड़ा हाथ रहता है।

जड़ पदार्थों के सहारे प्राणियों को जीवनयापन की सुविधा मिलती है यह सही है, पर सही यह भी है कि चेतना द्वारा ही अनगढ़ पदार्थ को सुन्दर, व्यवस्थित एवं उपयोगी बनाया जाता है। जड़ को प्रजा और चेतन को शासक कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। आदिम काल की तुलना में संसार का नक्शा बहुत बदल गया है। तब खाड़-खड्डों से- झाड़-झंखाड़ों से जटिल स्थिति में रह रही इस धरती की आज की कलात्मक और सुव्यवस्थित दुनिया से तुलना की जाय तो जमीन-आसमान जितना अन्तर प्रतीत होगा। यह चेतना के ही कर्तृत्व का चमत्कार है। चेतना ने न केवल प्रकृति सम्पदा को ही सुन्दर व्यवस्थित बनाया है, वरन् आपको स्वयं अपने हाथों प्रगति के क्रमिक मार्ग पर चलते हुए इस स्थिति तक पहुँचाया है। आदिम काल का नर-वानर आज के सभ्य संस्कृत मानव की तुलना में कितना पिछड़ा था। यह सर्वविदित है। इस पिछड़ेपन को दूर करने में उसने असाधारण साहस, संयम, सूझ-बूझ और सृजनात्मक गतिविधियों का परिचय दिया है। इन प्रयासों को अध्यात्म क्षेत्र में आविष्कार कहा जा सकता है। भौतिक क्षेत्र में वैज्ञानिक प्रगति का चक्र द्रुतगति से घूमा है। अग्नि का प्रज्ज्वलन-पहिये का परिभ्रमण-नोंक और धार वाले उपकरणों का उपयोग आज भले ही तुच्छ प्रतीत हो, पर किसी समय ऐसी ही उपलब्धियों ने मानवी प्रगति का द्वार खोला था। कृषि, पशु-पालन, शिक्षा, चिकित्सा परिवार-गठन और शासन तन्त्र आज सरल स्वाभाविक बन गये हैं, पर किसी समय उन उपलब्धियों ने ही मनुष्य के भाग्य का निर्माण किया था। उसे अपने अन्य वनचारी सहचरों से अधिक ऊँची स्थिति में बढ़ चलने और अधिपति बन बैठने का श्रेय इसी प्रगति को दिया जा सकता है। भौतिक उपलब्धियाँ प्रकारान्तर से चेतना की उभरती हुई स्थिति की प्रतिक्रिया ही कही जा सकती हैं।

वैज्ञानिक प्रगति भौतिक जगत में बहुत हुई है-मनुष्य का मस्तिष्क क्रिया-कौशल भी बहुत आगे बढ़ा है, पर उसका क्षेत्र वस्तु जगत से अधिक लाभान्वित होने के क्षेत्र में ही सीमाबद्ध होकर रह गया। चेतना की अपनी निज की स्थिति भी है और विकास के लिए वह क्षेत्र भी असीम विस्तार की सम्भावनाओं से भरा हुआ है। इस दिशा में अन्यमनस्कता दिखाने का परिणाम यह हुआ है कि आत्मिक प्रगति-चेतना की स्थिति एक प्रकार से रुक ही गई। जिस प्रकार कई प्रकार के यन्त्र-उपकरण भौतिक पदार्थों एवं क्षमताओं को उपयोगी स्थिति में प्रस्तुत करते हैं लगभग वैसा ही कार्य मनुष्य भी कर पाता है। अब मनुष्य यन्त्र मानव बनता जाता है। पदार्थ के लिए वह और उसके लिए पदार्थ-लगता है उसी कुचक्र में चेतना फँस गई है और उसने निजी सत्ता का स्तर बढ़ाने में अरुचि दिखानी आरम्भ कर दी है। जब कि असली लाभ इसी स्तर की अभिवृद्धि के साथ जुड़ा हुआ है।

कला, सौन्दर्य, सम्वेदना, शालीनता, करुणा, मैत्री और उत्कृष्टता के प्रति आस्था जैसी सद्भावनाओं की मात्रा बढ़ जाने से चेतना का स्तर उस स्थिति पर जा पहुँचता है जिसे देव मानव कहते हैं। उपभोक्ता को पशु और उद्धत को पिशाच कहते है। पदार्थ के साथ प्राणी जितना घनिष्ठ रहता है, उसी आधार पर उसकी जड़ता बढ़ जाती है और यन्त्र मानव जैसी स्थिति में उसे जीवनयापन करना पड़ता है। सुविधा उपभोग के साधन इस स्थिति में बने रहते हैं और इन्द्रिय तृप्ति से जो थोड़ा सा सुख मिल सकता है उतने तक ही सीमाबद्ध बनकर रह जाना पड़ता है। यदि चेतना का भाव पक्ष विकसित हो सके-दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो स्थिति कुछ दूसरी ही होगी।

चेतना का स्तर ऊँचा रह सके तो उसका व्यक्तित्व ऐसी रीति-नीति अपनाता है जिससे उसकी सम्पदाएं एवं विभूतियाँ उत्कृष्ट एवं व्यापक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त हो सकें अविकसित चेतना उसे कहा जायगा जो भावना एवं आकाँक्षा की दृष्टि से बौनी है जो संकीर्ण स्वार्थपरता का ताना-बाना बुनने में तो कुशलता का परिचय देती है, पर व्यापक आवश्यकता एवं उदार आत्मीयता भी मानवी गरिमा की बनी रहनी चाहिए, इस तथ्य को प्रायः भुला ही बैठती है।

साधन भले ही असीम हों, पर उनका उपयोग यदि सीमित क्षेत्र में होते रहने पर गुब्बारे में अनावश्यक हवा भर जाने की तरह दुष्परिणाम ही सामने आवेंगे। याँत्रिक मनुष्य इतना ही सोचता और इतना ही करता है। उसने जो पाया, कमाया है वह उसी के काम क्यों न आये? दूसरों को क्यों हिस्सा बँटाने दें? यह एक मोटा तर्क है जिसका औचित्य समझा जा सकता है। पर दूरगामी प्रतिक्रिया देखने पर इसमें कई हानियाँ दिखाई पड़ती हैं। एक तो यह कि समाज का एक बड़ा भाग अविकसित स्तर का होता है-बालक, वृद्ध, अशक्त, रुग्ण, दुर्घटनाग्रस्त, विपत्ति संत्रस्त, अपंग, असमर्थ लोगों की कमी नहीं। भावनात्मक पिछड़ापन तो इससे भी अधिक फैला पड़ा है; यदि इन लोगों को उदार, सहयोग न मिलेगा तो समाज का बहुत बड़ा भाग दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ अपनी सड़न से सारे वातावरण को विकृत करेगा और उसकी प्रतिक्रिया उन स्वार्थ सिद्धि की वकालत करने वालों को भी चैन से न बैठने देगी।

दूसरे यह कि उदार और आदर्शवादी परम्पराएं ही पारस्परिक स्नेह, सद्भाव को बनाये रहती हैं। सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियां ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व को मानवी महानता के अनुरूप बनाये रही हैं। सृजन और सहयोग का वातावरण इसी आधार पर बनता है। संकीर्ण दृष्टिकोण के लोग ही अपहरण और आक्रमण की नीति अपनाते हैं और उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया से सर्वत्र विषाक्त फैलती है।

महामानव ही किसी युग के समाज की वास्तविक सम्पदा होते हैं। उनकी उदारता एवं चरित्र निष्ठा से प्रभावित होकर लोग अनुकरण के लिए तैयार होते हैं। श्रेष्ठता का सन्तुलन उन्हीं के प्रयासों से बना रहता है। उत्कृष्ट एवं उदात्त सम्वेदनाओं को अपनाकर ही कोई महामानव बन पाता है। इसके बिना कितनी ही बुद्धिमत्ता एवं सम्पदा रहने पर भी मनुष्य स्वार्थपरायण ही बना रहता है। उसकी क्षमता निज के छोटे दायरे में ही अवरुद्ध बनी पड़ी रहती है और रुके हुए जोहड़ के सड़े पानी की तरह दुर्गन्ध फैलाती है। जिस व्यक्तित्व की प्रतिभा का लाभ असंख्यों को मिल सकता था यदि वह संकीर्णता से जकड़ी रहे और तृष्णा, अहंता की आग में समीपवर्ती लोगों को ईंधन बनाती रहे तो उसकी प्रतिक्रिया न केवल उस सारे क्षेत्र के लिए वरन् स्वयं उसके लिए भी भयावह होगी।

यह तो हुआ अविकसित स्तर की चेतना का सामाजिक और वैयक्तिक परिणाम। इससे भी बड़ी बात यह है कि चेतना का क्रमिक विकास होते रहना ही जीवात्मा का वास्तविक लाभ है। इन्द्रिय तृप्ति और तृष्णा पूर्ति का लाभ क्षणिक भी है और तुच्छ भी। बड़ी बात है आत्म-सन्तोष, आत्म-बल और आत्म-परिष्कार और उस स्थिति में जिसमें मनुष्य का आत्म गौरव विकसित होता है। उसी सम्पदा के सम्मुख सम्पर्क क्षेत्र के लोगों की भाव भरी श्रद्धा, नत मस्तक होती है। यह आनन्द कितना उच्चस्तरीय है उसका मूल्यांकन अनुभव द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

अविकसित चेतना कृमि कीटकों में जिस स्तर की है वह हमें उपहासास्पद लगती है। ठीक उसी प्रकार सुविकसित अति मानवी के लिए-देवता के लिए- हमारी नर पशु जैसी स्थिति निराशाजनक है। दुर्बल काया और अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी महामानव अपनी गरिमा के सहारे स्वयं खिलते और दूसरों को खिलाते हैं। इसके विपरित क्षुद्र दृष्टिकोण रहने पर सुसंपन्न लोग भी कृपणता और तुच्छता की सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते हुए स्वयं मरते तथा दूसरों को मारते हैं। सम्पत्ति की शक्ति से सभी परिचित हैं, पर विभूतिवानों की सामर्थ्य कितनी बढ़ी चढ़ी होती है इसका अनुभव कोई विरले ही करते हैं। विभूतिवान स्वयं उठते हैं और अपने साथ-साथ प्रबल प्रभंजन द्वारा धूलि कणों को आसमान तक पहुँचा देने की तरह असंख्यों को ऊँचा उठाते हैं। अपनी प्रतिभा से अन्धकार और अवसाद की गई गुजरी परिस्थितियों को आलोक और ऊर्जा देकर इस तरह बदलते हैं- जिसे युग परिवर्तन के रूप में देखा जा सके।

भौतिक क्षेत्र में चेतना का विकसित क्रिया कलाप आदिम काल से अद्यावधि हुई प्रगति का पर्यवेक्षण करते हुए देखा जाना जा सकता है। यदि आत्मिक क्षेत्र में अन्तरंग की विभूतियों को विकसित करने में यही तत्परता नियोजित की जा सके तो सामान्य समझे जाने वाले नर नारायण के गौरव वैभव से सुसम्पन्न हो सकते हैं।

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