हास्य एक टॉनिक एक चिकित्सा

August 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारत और पाकिस्तान के बीच लड़े गये एक युद्ध में किसी अधेड़ महिला का पति मारा गया। भारतीय नारी के लिए वैधव्य मरण से भी अधिक दुःखदायी है। सो उस विदुषी को न केवल वैधव्य का दुःख ही सहना पड़ा, वरन् उस दुःख के भार से वह खिन्न, उदास रहने लगी और कुछ रोगों ने भी उसे आ घेरा। सहानुभूति व्यक्त करने के लिए भी जब कोई उसके पास जाता तो स्वजन, सम्बन्धी से लेकर परिचित और मित्रगण गम्भीरता से बात करते थे। उसकी जीवन-यात्रा भी अपने दिवंगत पति के पास पहुँचने के लिए मौत के निकट जाने लगी।

आखिर उसे न जाने क्या सूझी कि एक बार वह अपनी सहेलियों के साथ फोटोग्राफर के यहाँ फोटो खिंचवाने पहुँची। सब सहेलियों के चेहरे पर तो प्रफुल्लता थी और उनके बीच विधवा सैनिक पत्नी ऐसी लग रही थी जैसे खिले हुए फूलों के बीच एक मुरझाया पुष्प। फोटोग्राफर ने उक्त विधवा को सम्बोधित करते हुए कहा-‘मैडम, जरा आँखों पर चमक लाइये।’

महिला ने प्रयत्न तो किया, पर उसका मुख मण्डल उसी प्रकार म्लान बना रहा और बुझा-बुझापन दीखता रहा। फोटोग्राफर ने दुबारा कहा - ‘मैडम, जरा प्रसन्न दीखने की कोशिश कीजिए।’

सहेलियों में से एक स्त्री उठी और उसने फोटोग्राफर को अलग ले जाकर कुछ समझाया। फोटोग्राफर और वह स्त्री कुछ क्षणों के बाद यथास्थान आ गये। फोटोग्राफर अपना कैमरा ठीक करने लगा और कैमरा ठीक करते-करते ही उसने कोई ऐसी बात कही जिससे सभी स्त्रियाँ खिल-खिलाकर हँस उठीं। अब तो उस महिला से भी नहीं रुका जा सका और उसने भी अपनी सहेलियों का साथ दिया।

इसके उपहास प्रसंग से महिला में कुछ ऐसा प्रेरणा भाव आया कि उसने भी हँसना सीख लिया। फोटोग्राफर के यहाँ उसकी हँसी विधवा होने के बाद पहली हँसी थी। इसके बाद के अनुभवों का उल्लेख करते हुए उक्त महिला ने बताया है-‘जिस क्षण में हँसी उस क्षण मुझे ऐसा लगा कि मेरे हृदय पर छायी बोझिलता समाप्त हो गयी और मुझमें एक नई जीवनी-शक्ति का संचार होने लगा। इसके बाद हँसने के किसी भी अवसर पर मैंने अपने हृदय को मुक्त कर दिया और मैंने जी खोलकर हँसना अपना स्वभाव बना लिया। हमारे परिवार के लोग कहा करते हैं कि विधवा स्त्री को हँसना नहीं चाहिए, परन्तु हँसी के महत्व को मैं समझने लगी क्योंकि उसने मेरा नया कायाकल्प कर दिया था। न जाने क्यों धीरे-धीरे स्वास्थ्य सम्बन्धी वे शिकायतें जिनके कारण मैं स्वयं को मौत के मुँह में समझने लगी थी-वे भी दूर होने लगीं।

वस्तुतः हँसी-जो प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति है अपने आप में एक चिकित्सा और एक टॉनिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका के महानगर फ्राँसिस्को में घटी एक घटना जो पिछले दिनों ही समाचार पत्रों में छपी और वैज्ञानिकों, चिकित्सकों के लिए भी चर्चित रही इसी प्रकार की है। उक्त घटना के सन्दर्भ में प्रकाशित किया गया था कि-नगर की प्रख्यात, धनाढ्य महिला मिसेज एडवर्ड को हृदयवेधी पीड़ा की शिकायत थी। उसे इसी रोग के कारण अनिद्रा, अपच तथा साथ ही चिन्ता, शोक और उद्वेग के शारीरिक, मानसिक विकारों ने भी घेर लिया था। हृदय रोग की चिकित्सा के लिए वह बड़े-बड़े अस्पतालों में सिद्ध हस्त डॉक्टरों के पास गई तो उन्होंने महिला का स्वास्थ्य परीक्षण कर उसे सामान्य रूप से सही पाया। फिर क्या कारण था कि उसे हृत्शूल, अनिद्रा और अपच जैसी शिकायतें थीं। डॉक्टर इसका कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहे थे।

तभी उसे किसी ने मनोरोग चिकित्सक के पास जाने की सलाह दी। मनोचिकित्सक ने उसे प्रफुल्लचित रहने के लिए कहा और निर्देश दिया कि अचानक यह होना स्वाभाविक नहीं है इसलिए वह दिन में कम से कम तीन बार हँसने का नियम बना ले। भले हँसी का प्रसंग हो या न हो तो भी उसे तीन बार तो हँसना ही चाहिए।

महिला ने तीन बार हँसने के निर्देश का पालन किया। प्रातः मध्याह्न और साँध्याह्न वह हँसने का प्रयत्न करने लगी। धीरे-धीरे हँसी उसका स्वभाव बनने लगी। पति भी अपनी ओर से प्रयत्न करता कि वह हँसे। कोई विनोद प्रसंग न सूझ पड़ता तो वह यह कहकर खिल-खिला उठता कि आज तुमने अपना निर्धारित कोर्स (हँसी का) पूरा किया है या नहीं। कुछ ही दिनों में इस प्रारम्भिक प्रयास का चमत्कारी परिणाम दिखाई देने लगा और उसका स्वास्थ्य सुधरने लगा। कुछ ही महीने में वह इस स्थिति तक पहुँच गई कि न उसे हृत्शूल होता और न कोई पीड़ा। समय पर नींद भी आती और खुलकर भूख भी लगती।

क्या कारण है कि मुक्त हास्य असाध्य रोगों को भी ठीक कर देता है। अपनी प्रयोगशाला में लम्बे परीक्षण के बाद डॉ0 बटलर जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह उल्लेखनीय है। इस सम्बन्ध में लन्दन से प्रकाशित होने वाली चिकित्सा विज्ञान की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘लैन्सेट’ में भी छपा था-मुक्त हास्य की प्रवृत्ति रोगियों और दुर्बलों के लिए चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करती है। रोगियों में वह फिर से प्राण फूँक देती है और दुर्बल के लिए जीवन की सम्भावना में वृद्धि करती है।

हँसी फेफड़ों और आमाशय को वक्षस्थल में सुदृढ़ता से संयुक्त रखने और उन्हें सशक्त बनाने में बड़ी सहायक होती है। क्योंकि इसका आरम्भ वहीं से होता है। हँसी यकृत, आमाशय और शरीर के अन्य भीतरी अवयवों को तीव्रता से आलोड़ित करती है। यह आलोड़न एवं मंथन चेतना को सुखानुभूति प्रदान करता है। घुड़सवारी से जितना लाभ शरीर को मिलता है उतना ही लाभ और व्यायाम हास्य से भी हो जाता है। पाचन-क्रिया के दौरान आमाशय की चेष्टा ठीक वैसी ही होती है, जैसी कि दही मथते समय। जब आप ठठाकर हँसते हैं तब उदर को वक्षस्थल से जोड़ने वाली पेशी नीचे को सरकती है और आमाशय पर अतिरिक्त दबाव डालकर उसे झकझोर-सी डालती है। प्रायः हँसते रहने से आमाशय नृत्य सा कर उठता है। जिससे पाचन-क्रिया में तेजी आ जाती है और आमाशय नृत्य-सा कर उठता है। इससे हृदय का स्पन्दन अपेक्षाकृत तीव्र हो उठता है और पूरे शरीर में रक्त-संचार तेजी से होने लगता है।

शरीर के आन्तरिक अवयवों पर हँसी के होने वाले प्रभाव जानने के लिए डॉ0 ग्रीन का निष्कर्ष भी ज्ञातव्य है। उन्होंने बताया है-‘मानव शरीर की सूक्ष्मातिसूक्ष्म रक्त शिराओं का कोई भी छोर ऐसा नहीं है जिसे अट्टहास झकझोर न दे और उस पर हँसी का प्रभाव न हो। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में कहें तो हँसी रक्त-संचार केन्द्रों को अनुप्रेरित करती है और उनकी मालिश कर रक्त वेग को तीव्र करती है। हँसी का प्रभाव श्वसन क्रिया पर भी पड़ता है। वह श्वसन तन्त्र को सतेज बनाती है जिससे सम्पूर्ण शरीर यन्त्र को ऊष्मा और क्रांति प्राप्त होती है।

चिकित्सा-वैज्ञानिकों का यह अध्ययन निष्कर्ष भी द्रष्टव्य है कि निरन्तर हँसते रहने वाले प्रफुल्ल चित्त लोग अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा देर तक श्रम करने में समर्थ होते हैं। यह छाती को चौड़ा करती है, कम प्रयोग में आई हुई विषाक्त वायु को फुफ्फुस कोषों से निकाल बाहर करती है और उसमें सन्तुलन को, जो शरीर के सभी क्रिया-व्यापारों के सम्यक् रूप से सम्पन्न होने के फलस्वरूप उत्पन्न होता है स्थापित करने का प्रयास करती है। इसी को हम स्वास्थ्य कहते हैं जो हँसी के द्वारा बिना मूल्य प्राप्त होता है।

हास्य का होने वाला शरीर पर प्रभाव किसी भी चमत्कारी दवा से कम नहीं है। हँसने से पहले और हँसने के बाद की अपनी स्थिति का हम स्वयं अध्ययन करें तो यह आसानी से पता चल सकता है। छाती से लेकर पेट तक की माँस- पेशियों में जो सिकुड़न और शिथिलता होती है वह शायद ही अन्य किसी व्यायाम से अनुभव होता हो। हँसने के बाद मुखमण्डल आशक्त हो उठता है और मस्तिष्क ऐसा लगता है जैसे एक खिंचाव के बाद ढीला हुआ हो। खिल-खिलाकर हँसना, पेट और वक्ष का अच्छा व्यायाम है। कहा जाता है-हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गये। वस्तुतः ऐसा होता भी है। अधिक हँसने से पेट में दर्द-सा होने लगता है। इसका कारण यह है कि पेट की माँस-पेशियों पर हँसी व्यायाम जैसा ही प्रभाव डालती है। अधिक व्यायाम की तरह अधिक हँसी भी दर्द और ऐंठन लायेगी ही। अतः हँसने में सन्तुलन तो रखना चाहिए, पर हँसने का अवसर भी हाथ से न जाने देना चाहिए।

ऊपर चिकित्सा शास्त्रियों के जो उदाहरण दिये गये हैं वे अपने स्वयं के अध्ययन से भी किसी न किसी रूप में अनुभव किये जा सकते हैं। जैसे कहा गया है कि हँसी शरीर की विषैली वायु को प्रश्वास के द्वारा बाहर निकाल देती है। हँसने के बाद शरीर में अनुभव होने वाले हल्केपन का यही कारण है।

हास्य का शारीरिक ही नहीं मानसिक प्रभाव भी है। अशुभ समाचार सुनकर शोकाकुल, चिन्तातुर, व्यग्र, उद्विग्न और क्रुद्ध व्यक्तियों को कभी हँसी नहीं आती। इसका कारण यह है कि ये मनोविकार सर्वप्रथम चित्त की प्रफुल्लता को अपना शिकार बनाते हैं और मानसिक क्रियाओं के साथ-साथ शरीर व्यवस्था को गड़बड़ा देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को किसी प्रसंग वश हँसी आ जाय तो फिर न सन्ताप रहता है न शोक, न चिन्ता सताती है और न व्यग्रता। चमत्कारी ढंग से निरुद्वेग, शान्ति और निश्चित होकर विकारजन्य शारीरिक व मानसिक असन्तुलन को हँसी नष्ट कर देती है। यही कारण है कि सफलतम डाक्टरों ने मानस रोगों का उपचार हँसी बताया है। एक ऐसे ही प्रख्यात चिकित्सक का कहना था-वह सन्तुलन जो किसी निद्रा विहीन रात्रि, अशुभ समाचार या दुःख सन्ताप अथवा चिन्ता के कारण बिगड़ सकता है एक बार जी खोलकर हँस लेने से पूरी तरह पुनः स्थापित हो जाता है।

अमेरिका के एक मानसिक चिकित्सालय-‘बटलर मेण्टल हॉस्पिटल’ में तो पागल लोगों को हँसी द्वारा ठीक करने के सफल प्रयोग किये जा चुके हैं। जो लोग कोई अप्रिय घटना या भावनाओं को आघात पहुँचने से विक्षिप्त हो जाते हैं, प्रायः गम्भीर और उदास बने रहते हैं। हास्योपचार उनके लिए सफल चिकित्सा सिद्ध हुई है। उक्त अस्पताल के प्रबन्धक डॉक्टर रे तो मानसिक स्वास्थ्य के लिए हँसी को अनिवार्य आवश्यकता मानते हैं। उनका कथन है-‘मानसिक स्वास्थ्य के लिए तार्किक शक्ति के विकास की अपेक्षा हृदय से उठा हास अधिक वाँछनीय है।

मुख-मण्डल पर निरन्तर खेलती रहने वाली मुस्कान और हँसी का कोई अवसर न चूकना निरोग व्यक्तियों के लिए भी उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने और स्वस्थ रखने के लिए एक टॉनिक से अधिक ही प्रभावकारी रहता है। रोगी और हताश व्यक्तियों के लिए तो वह एक बिना मूल्य मिलने वाली अमूल्य औषध है ही।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles