मानवी अन्तराल में प्रसुप्त दिव्य-क्षमता

August 1976

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सामान्य मनुष्यों में न पाई जाने वाली आध्यात्मिक विशेषताओं को अतीन्द्रिय चेतना कहते हैं। प्रयत्न करने पर इन्हें हर कोई जगा सकता है मनुष्य की विदित क्षमता सीमित है किन्तु अविज्ञात सामर्थ्यों का कोई अन्त नहीं। शरीर साधारणतया अन्न, जल और वायु पर जीवित रहता है, पर यदि उसकी असाधारण क्षमताओं को जगाया जा सके तो अदृश्य जगत की वायवीय स्थिति में विद्यमान आहार सामग्री को आकर्षित करने से काम चल सकता है और जिस अन्न, जल और हवा के ऊपर सामान्य प्राणी जीवित रहते हैं उन्हें अनावश्यक सिद्ध किया जा सकता है।

स्वामी विवेकानन्द ने तत्कालीन एक महात्मा ‘‘पौहारी बाबा’’ का विवरण प्रकाशित किया था कि बिना वह अन्न, जल के मुद्दतों से जीवित हैं। उनकी घोषणा को जांचा गया और सही पाया गया था। समाधि लेकर कई हठ योगी गुफा में बन्द हो जाते हैं और लम्बी अवधि तक बिना अन्न, जल एवं हवा के जीवित रहते हैं। जिस स्थिति में बैठे थे उसी स्थिति में बने रहते हैं। मल मूत्र विसर्जन करने एवं सोने, उठने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कितने ही हठयोगी रक्त संचार एवं हृदय की धड़कन बन्द करके भी जीवित रहने के प्रमाण विशेषज्ञों के परीक्षणों के साथ दे चुके हैं सामान्य मनुष्य जीवन से कई गुनी आयु वाले तथा असह्य शीत में निर्द्वन्द्व निवास करने वाले योगी अभी भी विद्यमान हैं।

योगशास्त्र में शरीर को असाधारण रूप में हलका या भारी बना लेने-अदृश्य हो जाने जैसी सिद्धियों का वर्णन है। यदा-कदा इनके प्रमाण भी मिल जाते हैं। सामान्य अभ्यास में नट, बाजीगर शरीर साधना के ऐसे कौतुक कौतूहल दिखाते हैं जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह अतिरिक्त वस्तुतः सामान्य ही होता है। मूर्छित स्थिति में ऐसी अगणित विशेषताएं मानवी काया में विद्यमान हैं जो दैनिक जीवन में दृष्टिगोचर न होने से असामान्य अथवा चमत्कारी दीखती हैं, पर वस्तुतः यहाँ चमत्कार कुछ भी नहीं है। जो कुछ हो रहा है, हो सकता है वह प्रकृति की नियत विधि-व्यवस्था के अन्तर्गत ही होता है।

परमाणु शक्ति कहीं आकाश से नहीं टपकती है, सृष्टि के आरम्भ से ही उस अदृश्य कण में वह विद्यमान थी। मूर्छित होने के कारण वह विदित नहीं होती थी। वैज्ञानिक उसे प्रयत्नपूर्वक जागृत क्षमता का परिचय देती है। समूचे शरीर के सम्बन्ध में यही बात है उसकी अतिरिक्त, असामान्य एवं विशिष्ट शक्तियों का कोई ठिकाना नहीं। जड़ परमाणु की शक्ति को देखकर चकित रह जाना पड़ता है फिर चेतन जीवाणु के भीतर कितनी क्षमता हो सकती है इसका अनुमान इसी गणित से लगाया जा सकता है कि जड़ की तुलना में चेतना को कितना अधिक महत्व दिया जा सकता है और समर्थ माना जा सकता है।

शरीर के उपरान्त मन का क्षेत्र आता है। मस्तिष्क उसका केन्द्र है और नाड़ी संस्थान के माध्यम से विस्तार सम्पूर्ण शरीर में देखा जा सकता है। ज्ञानेन्द्रियों में अपने-अपने स्तर की सरसता और अनुभूतियाँ होती हैं। कर्मेन्द्रियों में अपने अपने ढंग की कार्यक्षमता देखी जाती है। यह सब कुछ मन-मस्तिष्क का ही चमत्कार है। आँखों के माध्यम से मस्तिष्क ही दृश्य देखता और उनसे किसी प्रकार का निष्कर्ष निकालता है। मस्तिष्क यदि अस्त-व्यस्त हो तो आँखों के खुले रहने और घटनाक्रम सामने से गुजरने पर भी दृश्य का समुचित निष्कर्ष न निकाला जा सकेगा। सौन्दर्य बोध आँखों का काम नहीं, वरन् विकसित कलात्मक सम्वेदना की अनुभूति है। एक ही वस्तु को देखकर एक मनुष्य उसकी आकृति-प्रकृति मात्र को समझ पाता है। जबकि दूसरा भावुक या अन्वेषक उसमें से सौन्दर्य सम्वेदना अथवा अन्यान्य विशेषताएं अनुभव करता है। यह अन्तर आँखों की दृश्य शक्ति का नहीं वरन् मस्तिष्कीय चेतना की स्तर भिन्नता का है।

यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में है। उनकी सामान्य सम्वेदनाओं का अनुभव भी स्थानीय नहीं, मस्तिष्कीय होता है। ज्ञान तन्तुओं को सुन्न कर देने पर रसास्वादन तो दूर काट पीट तक का पता नहीं चलता। कर्मेन्द्रियों भी मस्तिष्क का आदेश पाने पर ही सक्रियता एवं शिथिलता प्रकट करती हैं। यह तथ्य अब दिन-दिन अधिक स्पष्ट होता जाता है कि शरीर पर मन का पूर्णतया शासन है। आरोग्य शास्त्र अब धीरे-धीरे निष्कर्ष पर पहुँचता जाता है कि मनोविकार ही शारीरिक दुर्बलता एवं रुग्णता के प्रधान कारण होते हैं। विषाणुओं से, वात-पित्त कफ से, अपच से, ऋतु प्रभाव से, आहार-विहार से जितना प्रभाव शरीर पर पड़ता है उन सब के सम्मिलित प्रभाव की अपेक्षा अकेला मनोबल कहीं अधिक प्रभावित करता है। नवीनतम ‘शोधों’ ने मानसिक सन्तुलन को- हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी को-आरोग्य रक्षा का सबसे बड़ा कारण और आधार माना है। रोगियों में अधिकांश की मन स्थिति ही विकृत एवं डांवाडोल होती है। समर्थता प्रकट करने वालों में से कितने ही शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होते हुए भी मनस्वी एवं ओजस्वी होने के कारण शूरवीरों जैसे पराक्रम दिखाते हैं।

शरीर और मन का अविच्छिन्न सम्बन्ध होने से आरोग्य, दीर्घजीवन, पुरुषार्थ, सौन्दर्य, प्रतिभा, स्फूर्ति जैसे अनेक लक्षणों से मानसिक स्थिति का परिचय मिलता है। मन गिरा, हारा होने पर शरीर का गठन सही होने पर भी उसमें निर्जीवता, निराशा, थकान, उदासी छाई दीखती है और आकर्षण न जाने कहाँ चला जाता है। इसके विपरीत काली कलूटी और गठन की दृष्टि से गई गुजरी आकृति होने पर भी भीतरी उत्साह उस काया को असाधारण रूप से तेजस्वी और आकर्षक बना देता है। मुर्दों की आकृति देखकर उनकी मन:स्थिति जानना कठिन है, पर जीवित व्यक्ति का चेहरा देखकर उसकी आन्तरिक स्थिति का बहुत कुछ परिचय सहज ही मिल जाता है। यह मन का शरीर के माध्यम से अपनी स्थिति प्रकट करने का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

शरीर को कठपुतली की तरह नचाने वाला मन उसका केन्द्र संस्थान मस्तिष्क अपने आप में कितना विचित्र और विलक्षण है यह उसके गठन और क्रिया कलाप को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सामान्य बुद्धि वैभव का विकास विस्तार जीवन की अनेकानेक सफलताओं का द्वार खोलता है। उसमें त्रुटि रह जाने पर मनुष्य को पिछड़ी स्थिति में रहना पड़ता है। ऐसे ही लोग उपेक्षित एवं उपहासास्पद स्थिति में पड़े हुए गुजर करते हैं। जीवन की बहिरंग परिस्थितियों को मन स्थिति ही प्रभावित करती है। उसी की प्रतिक्रिया से व्यक्ति आकर्षित एवं उदासीन बनते हैं। सहयोग एवं असहयोग का सिलसिला भी इसी आधार पर चलता है। सफलताओं एवं असफलताओं के चक्र भी इसी धुरी पर घूमते हैं।

यह चर्चा शरीर पर-दैनिक जीवन पर पड़ने वाले मनःस्थिति के प्रभाव की है। आगे की बात और भी अधिक गम्भीर एवं महत्वपूर्ण है। प्रकट व्यक्तित्व और उसके व्यापक प्रभाव की आधारभूत सत्ता, मानसिक चेतना का अपना स्वरूप देखने, समझने का प्रयत्न किया जाता है तो आश्चर्य चरम सीमा तक पहुँच जाता है। छोटे से शरीर में कैद तनिक सी चेतना हर दृष्टि से नगण्य है। उसका प्रभाव और कार्य-क्षेत्र अपनी छोटी सी सत्ता तक सीमित दीखता है, पर अन्वेषण यह बताता है कि यह समष्टि मन तत्व के साथ भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है और चेतना के समुद्र में से जब जितना-जिस स्तर का- आदान-प्रदान चाहती है उतना निर्बाध रूप से उपलब्ध कर लेती है।

मस्तिष्कीय संरचना लगभग उसी स्तर की है जैसी कि पृथ्वी के ध्रुव प्रदेशों की। अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान के लिए इन दोनों छोटे क्षेत्रों की असाधारण रूप से अद्भुत होती है। मस्तिष्क की स्थिति भी ऐसी है। उसके सामान्य दीखने वाले वसा कण-वस्तुतः अनौखे चुम्बकत्व से भरे पूरे हैं। उनकी विद्युतीय ऊर्जा यों थोड़ी बहुत तो इलेक्ट्रो कार्डियो फोन जैसे छोटे उपकरणों से भी जानी, नापी जा सकती है, पर वस्तुतः वह चेतना स्तर की होने के कारण यान्त्रिक पकड़ एवं परख से बहुत आगे की है। यन्त्रों में जीवात्मा-जीवन तथा उसके सम्वेदनात्मक उतार-चढ़ावों को जानने का कोई उपकरण निकल नहीं सका है और भविष्य में वैसी संभावना भी नहीं है। क्योंकि भौतिक यंत्र मात्र पंचभूत प्रकृति के बने जड़ शरीर की हलचलें भर नाप सकते हैं। चेतना का स्वरूप और सम्वेदनाओं का प्रभाव यन्त्रों की पकड़ में नहीं आता।

मस्तिष्क घटकों का चुम्बकत्व जीवाणु को जितना प्रभावित करता है उतना तो प्रत्यक्ष प्रयोग से जाना भी जाता है और उतने को भी ऐसा माना गया है जिसकी तुलना में यान्त्रिक विद्युत का स्तर बहुत ही घटिया बैठता है इसकी गहरी परतें तो दो ही प्रकार से जानी जा सकती हैं। एक तो उसी स्तर की विकसित चेतना, योग दृष्टि उसे परख सकती है। दूसरे उसकी क्रिया प्रतिक्रिया के चमत्कारी घटनाक्रमों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस सामान्य के पीछे कुछ असामान्य काम कर रहा है।

इस विश्व के कण-कण में अजस्र शक्ति का भण्डार भरा पड़ा है। पर वह है प्रसुप्त स्थिति में। छोटे स्तर के प्राणी उसमें से बहुत ही स्वल्प मात्रा की जानकारी रखते हैं। शरीर यात्रा के लिए प्रकृत पदार्थ जिस प्रकार काम आते हैं वे उतना भर जानते हैं। विकसित मानवी चेतना ने अग्नि का उपयोग, कृषि, चिकित्सा आदि प्रयोजनों में काम आने वाले रहस्यों को प्रयत्नपूर्वक जाना और लाभ उठाया। अब तो विज्ञान की गगनचुम्बी प्रगति हो चुकी है और एक के बाद एक दैत्य उपकरण उसके हाथ में आ गये हैं। भविष्य में इससे भी अनेक गुनी शक्ति हाथ में आ सकती है। उन उपलब्धियों के पीछे तथ्य इतना ही है कि विकसित चेतना ने प्रकृत पदार्थों के पीछे प्रस्तुत स्थिति में पड़ी शक्ति को पहचाना और उसे जागृत करके अपना काम बनाया। जीवाणु सत्ता के बारे में भी यही बात है। शरीर में विद्यमान विभिन्न वर्गों के जीवाणुओं पर शोध हो रही है और टेस्ट ट्यूबों में मनचाही आकृति-प्रकृति के मनुष्यों के अभिनव सृजन का प्रयत्न चल रहा है। यह प्रसुप्ति के जागरण की चेष्टा भर है। मस्तिष्कीय क्षेत्र के प्रधान रूप से परिलक्षित होने वाली चेतना को जिन घटकों में काम करते देखा गया है वहाँ की खोज-बीन भी उसी उत्साहपूर्वक चल रही है। अतीन्द्रिय चेतना के चमत्कार प्रत्यक्ष होने लगे हैं और समझा जाने लगा है कि मस्तिष्क की स्थिति जीवनयापन के सामान्य क्रिया-कलाप पूरे करने जितनी सीमित नहीं है अपितु उसके पीछे एक से एक बड़ी अद्भुत सम्भावनाएँ झाँकती देखी जा सकती हैं।

साधारणतया परमाणु में भार, घनत्व, विस्फुटन, चुम्बकीय क्षेत्र आदि भौतिक परिचय देने वाले लक्षण होते हैं। पर अब किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए विज्ञान की पकड़ में ऐसे सूक्ष्म विद्युतीय कण आ गये हैं जिनमें भौतिक परमाणु में पाया जाने वाला एक भी लक्षण नहीं है। फिर भी वे प्रकाश की गति से शरीरों के भीतर और पोले आकाश में निर्बाध भ्रमण करते रहते हैं वे भौतिक परमाणुओं को बेधकर आर-पार निकल जाते है। पदार्थ की कोई दीवार उन्हें रोक तो नहीं पाती, पर यदा-कदा उनमें टकराव उत्पन्न होते देखा गया है। इस टकराव के अवसर पर ही उनका अस्तित्व अनुभव में आता है। गणित शास्त्री एड्रियांड्राब्स आदि मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने इसी जाति के साइन्नोन कणों के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। यह सोचा जा रहा है कि सम्भवतः न्यूत्रिनी कणों के साथ साँठ-गाँठ करके अतीन्द्रिय चेतना उभारने का पथ प्रशस्त करते हैं।

अब न्यूत्रिनी कणों का प्रभाव मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना और तन्तु समूह पर क्या हो सकता है इसकी गहरी खोजे चल रही हैं। वैज्ञानिक एक्सेल फरसेफि का कथन है कि मानसिक चेतना पर वे जब प्रभाव डालते हैं और वहाँ एक नई जाति के ऊर्जा कणों का जन्म होता है जिन्हें माइन्जेन नया नाम दिया गया है। अनुमान है कि यदि इनका उद्भव और विकास मस्तिष्क में होने लगे तो मनुष्य का उपचेतन मन ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के साथ सम्बन्ध होकर अपनी ज्ञान परिधि और क्रिया शक्ति असीम कर सकता है। तब शरीर बन्धनों के कारण उसकी सीमित क्षमता के असीम बनने में कोई कठिनाई न रहेगी।

जीवन विज्ञानवेत्ता प्रो0 फ्रेंक ब्राउन की लम्बी शोधें इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि जिस प्रकार हमारे ईद गिर्द हवा भरी है उसी प्रकार इस ब्रह्मांड व्यापी ऊर्जा समुद्र में सृष्टि का प्रत्येक प्राणी जीवन प्राप्त करता है। उस महान प्रसारण को प्रत्येक प्राणी एक छोटे रेडियो रिसीवर की तरह अपनी पात्रता के अनुरूप ग्रहण करता है और उसमें अपना उपार्जन सम्मिलित करता है। इस प्रकार हर प्राणी अथवा पदार्थ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए एक ही संयुक्त सत्ता का अंश है। भिन्नता के बीच एकता के वेदान्त सिद्धान्त को अब क्रमशः विज्ञान के क्षेत्र में भी मान्यता मिलती चली जा रही है।

मनुष्यों में जो अन्य प्राणियों से स्तर दृष्टिगोचर होती है, जिसे शरीर संवेदना से आगे की चेतना कहा जा सकता है। यह आखिर है क्या? इस संबंध में शोधकर्त्ताओं ने कई निष्कर्ष निकाले हैं। न्यूयार्क विश्व विद्यालय के डॉ0 राबर्ट वेकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, ब्रह्मांड व्यापी विद्युत चुम्बकीय शक्ति को, विश्व के प्रत्येक पदार्थ को-जड़ चेतन को, अपने साथ जकड़े हुए है। विश्व की प्रत्येक इकाई उसी समष्टि की एक घटक है। अस्तु पृथकता के बीच सघन एकता विद्यमान है और प्राणियों में दृश्य-अदृश्य आदान-प्रदान होता है। जो क्रम आये दिन अनुभव में आता रहता है वह सामान्य और जो यदा-कदा दीख पड़ता है वह असामान्य, अतीन्द्रिय या चमत्कार कहा जाता है।

सृष्टि के रहस्यों की गहरी परतों के ऊपर चढ़े हुए आवरणों को उठाते हुए मनुष्य प्रकृति की अद्भुत क्षमताओं का अधिपति किस आधार पर बनता चला जाता है? उसने जल, थल और नभ पर आधिपत्य स्थापित करने में सफलता’ क्यों कर पाई? मानवी मस्तिष्क के विकास की सम्भावना किस आधार पर बन सकी जब कि अन्य प्राणियों के मस्तिष्क अपने क्षेत्र में मनुष्य से भी अधिक विशिष्ट स्तर के होने पर भी निर्वाह परिधि से आगे किसी विकास क्षेत्र में प्रवेश न कर सके? मानवी मस्तिष्क को प्रस्तुत उपलब्धियाँ कहाँ से क्यों कर प्राप्त हो सकीं? इस प्रश्न के सम्बन्ध में सामान्य से समाधान नहीं होता उसके पीछे कुछ असामान्य होने की बात सोचनी पड़ती है।

परा मनोविज्ञान अनुसंधान की दिशा में विधिवत प्रयत्न लगभग एक शताब्दी से चल रहे हैं। इसका श्रीगणेश लन्दन सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च के रूप में हुआ। इसके तीन वर्ष बाद वैसी ही शोध सभा अमेरिका में भी गठित हुई उसका नाम रखा गया-‘अमेरिकन’ सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च’ इंग्लैण्ड में हेनरी लिजविक सर कानन डायल, सर अलीवर लाज, सर विलियम क्रुक्स जैसे मनीषियों ने इन प्रयोगों में गहरी दिलचस्पी ली। अमेरिका में हुए शोध प्रयत्नों में पिछली पीढ़ी के मनीषियों में विलियम जेम्स, मैक्डागल का नाम अग्रिम पंक्ति में है। रूप के शरीर शास्त्री बी0 एम0 वेख्तेरेफ की खोजों ने पूरा मनोविज्ञान शोध को आगे बढ़ाने में भारी प्रयत्न किये हैं।

इन दिनों कितने ही विश्वविद्यालयों में परा मनोविज्ञान सम्बन्धी शोध कार्य बड़े उत्साहपूर्वक चल रहे हैं। कैलीफोर्निया की स्टैन फोर्ड युनिवर्सिटी, नीदरलैण्ड की ग्रोर्निंगन युनिवर्सिटी, हारवर्ड युनिवर्सिटी, शिकागो युनिवर्सिटी ड्यूक युनिवर्सिटी आदि में चल रहे शोध प्रयत्नों ने इस विज्ञान के नये अध्याय आरम्भ किये हैं और ऐसे प्रमाण एकत्रित किये हैं। जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य में काम चलाऊ व्यवहार बुद्धि के अतिरिक्त और ऐसा भी बहुत कुछ है जिसे असामान्य और अद्भुत कहा जा सके। ऐसा क्यों होता है। अचेतन और उपचेतन मन की विलक्षण क्षमताओं का स्वरूप और कारण समझने में इन शोध प्रयत्नों से बहुत सहायता मिली है और भविष्य में अधिक जान सकने की सम्भावना का पथ प्रशस्त हुआ है।

‘फाउण्डेशन आफ रिर्चस आन दि नेचर आफ मेन’ से सम्बद्ध ‘इन्स्टीट्यूट फॉर पैरासाइकोलॉजी’ ने परा मनः शक्ति के सन्दर्भ में अति महत्वपूर्ण शोध सामग्री एकत्रित की है।

ड्यूक विश्वविद्यालय के डॉ0 जे0 वी0 राइन द्वारा लिखित पुस्तक फ्रंटियर्स आफ माइण्ड में मस्तिष्कीय विलक्षणता पर गम्भीर प्रकाश डाला गया है। इन को विकसित करने पर प्राप्त हो सकने वाले लाभों की और अंगुलि निर्देश किया है।

परा मनोविज्ञान कभी जादुई कौतूहल समझा जाता था पर अब उसे संसार भर में विशुद्ध विज्ञान का दर्जा मिल गया है और प्रायः सभी देशों में अपने-अपने स्तर के शोध संस्थान सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर यह तलाश कर रहे हैं कि रहस्य मानस के पीछे क्या सिद्धान्त और कौन तत्व काम करते हैं?

यह सारा ब्रह्माण्ड सामान्य भी है और असामान्य भी। आकाश की नीली छत में टिमटिमाते जुगनू उड़ रहे हैं और दो बड़े झाड़ फानूस उजाले बखेरने की ड्यूटी पूरी कर रहे है। इतनी छोटी सामान्य व्याख्या अन्तरिक्ष की कर देना बाल बुद्धि के लिए पर्याप्त है। असामान्य को जब खोजा जाता है तो ग्रह तारकों और नीहारिकाओं की आकृति-प्रकृति का विस्तार देखते हुए चकित रह जाना पड़ता है। उनकी दूरी-चाल, कक्षा और विस्तृति का विवरण सामने आता है तो सहसा उस पर विश्वास करने को जी नहीं करता। सौर मण्डल के सदस्यों का पारस्परिक आदान-प्रदान इतना महत्वपूर्ण है कि उसे देख कर लगता है जैसे एक ही शरीर के विभिन्न अवयव मिल जुल कर किसी काय व्यवस्था को पूरी करने में संलग्न हों।

सामान्य दृष्टि से मानवी शरीर और मस्तिष्क भी सामान्य है-उसे भौतिक विश्लेषण के अनुसार चलता-फिरता पौधा अथवा कोटि कोटि जीवधारियों की सैन्य शृंखला का एक नगण्य सा घटक कहा जा सकता है, पर जब उसके अन्तराल में प्रसुप्त क्षमता का थोड़ा सा परिचय मिलता है तो लगता है यह अद्भुत है-असामान्य है। यदि यह प्रसुप्ति जागृति में बदली जा सके तो बीज के वृक्ष बन जाने की तरह नर को नारायण स्तर की भूमिका निभा सकने की पूरी-पूरी सम्भावना विद्यमान है।


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