एक था यात्री, दूर देश की यात्रा पर निकला था वह। अभी एक योजन ही चला था कि एक नदी आ गई, किनारे पर नाव लगी थी। उसने कहा-यह नदी मेरा क्या करेगी? पाल उसने बाँधा नहीं डाँड उसने खोले नहीं, जाने कैसी जल्दी थी। मल्लाह को उसने पुकारा नहीं। बादल गरज रहे थे। लहरें तूफान उठा रही थी। फिर भी वह माना नहीं, नाव को लंगर से खोल दिया और आप भी उसमें सवार हो गया।
किनारा जैसे-तैसे निकल गया, पर नाव मझधार में आई वैसे ही भंवरों और उत्ताल तरंगों ने आ घेरा। नाव ऊपर तक उछली और यात्री समेत जल में समा गई।
एक दूसरा यात्री आया। किनारे लगी नाव टूटी-फूटी थी, डाँड कमजोर थे, पाल फटा हुआ था, तो भी उसने युक्ति से काम लिया। नाविक को बुलाया और कहा-मुझे उस पार तक पहुँचा दो। नाविक यात्री को लेकर चल पड़ा। लहरों ने संघर्ष किया, तूफान टकराये, हवा ने पूरी ताकत लगाकर नाव को भटकाने का प्रयत्न किया, पर नाविक एक-एक को सम्भालता हुआ यात्री को सकुशल दूसरे पार तक ले आया।
मनुष्य जीवन भी एक यात्रा है, जिसमें पग-पग पर कठिनाइयों के महासागर पार करने पड़ते हैं, जो नाव छोड़ने से पूर्व भगवान को अपना नाविक नियुक्त कर लेते हैं, भगवान उनकी यात्रा को सरल बना देते हैं, क्योंकि जीवन पथ की सभी कठिनाइयों के वही ज्ञाता और वही मनुष्य के सच्चे सहचर हैं। अपने अहंकार और अज्ञान में डूबे मनुष्यों की स्थिति तो उस पहले यात्री जैसी है जो नाव चलाना न जानने पर भी उसे तूफानों में छोड़ देता है और बीच में ही नष्ट हो जाता है।
-नानक
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