देवासुर संग्राम-हमारे दैनिक जीवन में

August 1976

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पुराणों में आधे से अधिक कथा प्रसंग देवासुर संग्राम के हैं। असुरों का देवताओं से तगड़े बैठना, आक्रमण करके देवताओं को हरा देना, उनकी विशेष सहायता प्राप्त करना, फिर नये सिरे से युद्ध आरम्भ करना, अन्तिम बार असुरों को परास्त करके फिर अपना पद प्राप्त करना इसी एक कथानक को अनेक नाम, रूप एवं घटनाओं के साथ भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न ढंग से कहा गया है।

इस वर्णन के मूल में आसुरी और दैवी शक्तियों के संघर्ष की आलंकारिक चर्चा है। यह सर्वत्र दिखाई देता है। कोई क्षेत्र ऐसा बचा हुआ नहीं है जहाँ यह संघर्ष चलता न हो।

यह संसार सत और तम से मिल कर बना है। तम अर्थात् जड़, चेतन अर्थात् सत। जड़ यों निर्जीव दीखता भर है, पर उसका आकर्षण रहा होता तो चेतन को उसके प्रति रुचि ही क्या होती और क्यों होती? सत और तम का संयोग यथावत बना रहे। चेतन की सहायता से जड़ को अधिक सुव्यवस्थित विकसित होने का अवसर मिले और, जड़ के सम्पर्क से चेतन की सरस संवेदनाएं उपलब्ध होती रहें। इस दृष्टि से नियति ने दोनों को परस्पर जोड़ दिया है। प्राणी का शरीर जड़ पंच तत्वों से बना है और उसमें प्राण सत्ता चेतना रूप में विद्यमान है। यह जड़ चेतन का संयोग ही तो है जिसके कारण दोनों परस्पर मिल-जुल कर रहते और जीवन रथ को आगे चलाते हैं। दोनों को दोनों के प्रति आकर्षण और दोनों का दोनों से सहयोग। यह सहयोग की सौम्य अवस्था हुई।

प्रकृति की सुन्दरता और उपयोगिता सर्वविदित है। तारों से जगमगाता नील आकाश, सूर्य चन्द्र का उदय-अस्त, शीतल वायु, ऋतु परिवर्तन प्रातः सायंकाल की रंग-बिरंगी झाँकी, बादल, वर्षा, बिजली आदि के कारण अपना ऊर्ध्वलोक कितना सुन्दर प्रतीत होता है। धरती पर पर्वत, वन, नदी, सरोवर, समुद्र, हरीतिमा, पुष्प, उद्यान आदि कितने सुन्दर लगते हैं। पशु-पक्षियों की आकृति कितनी सुहावनी लगती है। धान्य, खनिज आदि की प्रकृति सम्पदा कितनी उपयोगी है। क्या धरती- क्या आकाश। सर्वत्र सुन्दरता और उपयोगिता प्रचुर परिणाम में भरी होने से ही प्राणी इस संसार में रहता और क्रीड़ा कल्लोल करता है। यदि यहाँ कुछ भी आकर्षण न होता तो सम्भवतः जीवधारी को जीवन से कुछ भी प्यार न रहा होता।

नियति की इच्छा है कि जड़-चेतन, परस्पर सहयोगपूर्वक रहे और एक दूसरे के लिए उपयोगी सिद्ध हों। नर ओर मादा के बीच काम आकर्षण की एक ऐसी सरस शृंखला जुड़ी हुई है जिसके कारण वे निकट आते और घनिष्ठता के सूत्र में बंधते हैं। यदि यह सरसता सूत्र न रहा होता तो नर और मादा के बीच न तो आकर्षण रहता और न सन्तानोत्पादन का अतीव झंझट भरा उत्तरदायित्व वहन करने के लिए कोई तैयार होता। जड़ और चेतन के बीच में सुन्दरता, उपयोगिता एवं स्पर्शजन्य सरसता के ऐसे ही सूत्र जुड़ें हुए हैं जैसे नर और मादा के बीच। नियति चक्र इसी तरह घूम रहा है जैसे ग्रह नक्षत्रों की पारस्परिक आकर्षक शक्ति से खिंचे बंधे समस्त आकाशीय पिण्ड अपनी अपनी कक्षाओं में परिभ्रमण कर रहे हैं।

सृष्टि की इस औचित्य प्रक्रिया से किसी को कोई शिकायत नहीं हो सकती। यदि सन्तुलन बना रहे तो गड़बड़ी का कोई कारण नहीं। अव्यवस्था तो असन्तुलन से फैलती है। प्राणी के दृष्टिकोण में जब विकृति आती है तो औचित्य एवं उपयोग का तथ्य भूल जाता है और अतिवाद की नीति अपनाने लगता है। संग्रह आधिपत्य और उपभोग के अन्तर्गत रखा जाय तो जड़ चेतन का पारस्परिक संयोग हर दृष्टि से हर किसी के लिए सुखद हो सकता है। अमर्यादित मात्रा में चाहने से साम्य वितरण में गड़बड़ी फैलती है। एक जगह अधिक संग्रह दूसरी जगह अभाव की स्थिति उत्पन्न करेगा। यह प्रक्रिया अवाँछनीय है। प्रकृति इसको संतुलित करने की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। इसी का नाम देवासुर संग्राम है।

अनगढ़ मनुष्य प्रकृति के साधनों पर व्यक्तिगत रूप से अनावश्यक मात्रा में आधिपत्य जमाता है। परिग्रही, संग्रही, अमीर बन कर अपने अहंकार एवं बड़प्पन का आतंक दूसरों पर छोड़ना चाहता है। इस ललक का नाम तृष्णा है। अमीर बनने, बड़ा कहलाने में जहाँ अधिक सुविधा साधनों के उपभोग की सम्भावना बढ़ती है वहाँ अहंकार भी तुष्ट होता है, तृष्णा इसी स्थिति का नाम है, दूरदर्शिता से रहित व्यक्ति इसी तृष्णा में बेतरह बंधते हैं। और बेतुके ढंगों अनावश्यक, अनुपयोगी कामों में संलग्न रह कर जीवन सम्पदा को नष्ट करने वाली बाल-क्रीड़ाओं में लगे रहते हैं।

दूसरा आकर्षण शरीरगत है। शरीर में कुछ संवेदन अवयव ऐसे बने हैं जिन्हें प्रकृति की अमुक स्थिति के साथ सम्पर्क बनाने में विचित्र प्रकार की सरस संवेदना अनुभव होती है। जीभ को खट्टे, मीठे, नमकीन, चरपरे पदार्थ विशेष रूप से सुहाते हैं। जननेन्द्रिय को रति कर्म में असाधारण रस आता है। कान को अमुक प्रकार के शब्द, आँख को अमुक स्तर के दृश्य, नाक को अमुक प्रकार के गन्ध और त्वचा को अमुक स्तर के स्पर्श बहुत सुहाते हैं। अनगढ़ मनुष्य इनकी असीम मात्रा चाहता है और मर्यादाएं तोड़ कर शहद पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह उसी में लिपट कर संकट ग्रस्त होता है।

सीमित, संतुलित और विवेकपूर्ण स्थिति में औचित्य का ध्यान रखते हुए इन्द्रिय सुखों का संतुलित उपभोग लाभदायक सिद्ध होता है और उत्साह बढ़ाता है। शरीर से बाहर की वस्तुओं का सम्पर्क भी अमुक प्रयोजन के लिए अमुक मात्रा में उत्पादन एवं उपभोग किया जा सकता है। किन्तु जब संतुलन बिगड़ता है और अतिवाद अपनाया जाता है तो उसकी हानिकारक प्रतिक्रिया के ध्यान में रखते हुए विज्ञ पुरुष उस असंतुलन की भर्त्सना करते हैं। वस्तुओं के अनावश्यक संग्रह को-तृष्णा और इन्द्रिय भोगों की लिप्सा को-वासना कहते हैं। इन दोनों से ही व्यक्ति और समाज की हानि होती है इसलिए उन्हें दूरदर्शियों ने हेय एवं निन्दनीय, अवाँछनीय एवं त्याज्य ठहराया है। वासना और तृष्णा के अतिवाद को अपना की विकृत हुआ स्तर व्यक्तिवाद कहलाता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के रूप में उसे व्यवहृत होते देखा जाता है। इसी को असुरता कहा गया है। दैत्य दानव इसी दुष्प्रवृत्ति के प्रतीक प्रतिनिधि होते हैं।

अवांछनीयताओं से भरे वातावरण में रहने वाले इस अनीति को अपनाते हैं और फिर नशे की तरह उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों का अपना आकर्षण और अपना दबाव है। पानी गिरते ही नीचे की ओर बहने लगता है। उसे किसी घेरे में बन्द करके रखा जाय तो ही शान्तिपूर्वक रोककर यथा स्थान रखा जा सकता है अन्यथा उसे फैलने, नीचे बहने में देर न लगेगी। यही हाल मानवी चेतना का है। अनेक योनियों में संग्रह किये निकृष्ट स्तर के कुसंस्कार बड़ी मात्रा में जुड़े रहते हैं। मनुष्य के लिए उपयुक्त उच्चस्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए द्विजत्व जैसे विशिष्ट प्रयत्न करने पड़ते हैं। अन्यथा निम्न योनियों के संग्रहीत कुसंस्कार अवाँछनीय वातावरण में और भी अधिक फलने-फूलने लगते हैं और अनगढ़ मनुष्य चिन्तन एवं कर्तृत्व की दृष्टि से घटिया स्तर का रह जाता है। इस घटियापन को ही व्यक्तिवाद, संकीर्ण स्वार्थपरता, अनैतिकता, असुरता आदि नामों से पुकारते हैं। इस मन:स्थिति का मनुष्य अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए दूसरों को बड़ी से बड़ी हानि पहुँचाने में नहीं चूकता। अनेकानेक नाम रूपों के अनाचार, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म, अपराध करने में उसे कोई हिचक नहीं होती वरन् उन क्रूर कर्मों को करने पर अपने को दुस्साहसी, शूरवीर आतंकवादी आदि विशेषताओं से युक्त मान कर गौरवान्वित अनुभव करता है। इन्हीं प्रवृत्तियों को असुरता कहते हैं, इनमें जो जितना ग्रसित है उतने ही स्तर का असुर कहलाता है।

असुरता आक्रमणकारी और आतंकवादी होती वह अपने विस्तार के लिए प्रयत्न करती है और आग की तरह जो भी उसकी पकड़ में आता है उसे आकार विस्तार के लिए जकड़ लेती है। असुरता के अतिरिक्त जो बचता है-वह देव है। सत और तम के-जड़ और चेतन के समन्वय से ही संसार बना है। रजोगुण तो इन दोनों का वैसा ही समन्वय है जैसे रात्रि और दिन के समन्वय से बना संध्याकाल। वस्तुतः संध्याकाल का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। रात और दिन ही प्रधान है। समन्वय से तीसरी चीज बन जाने की रासायनिक क्रिया से ही रजोगुण उत्पन्न हुआ है। उसकी कोई स्वतन्त्र दार्शनिक विवेचना नहीं हो सकती।

असुरता का आक्रमण देवत्व पर ही होता है। असुरता की वृद्धि के लिए देवत्व ही ईंधन हो सकता है। रात-दिन को खाकर विकसित होती है और दिन-रात को परास्त करके अपना वर्चस्व जमाता है। असुरता की वृद्धि देवत्व को उदरस्थ करने से ही सम्भव हो सकती है। यही असुरों को देवताओं पर आक्रमण करने पुराण वर्णित अलंकारिक कथा गाथाओं की पृष्ठभूमि है।

देवता आत्म रक्षा के लिए लड़ते तो हैं, पर वे उपयुक्त पोषण प्राप्त न कर सकने के कारण दुर्बल बने रहते हैं। प्राथमिक आक्रमण में वे हारते हैं। स्वभावतः देवत्व दुर्बल नहीं है। पर वह असुरता की तुलना में बहुधा दुर्बल पड़ता है। इसके दो कारण हैं असुरता के संस्कार जीव के साथ निम्न योनियों से जुड़े आते हैं और वर्तमान वातावरण में भी उन्हीं का बाहुल्य छाया होता है। दैनिक अभ्यास में भी वे ही प्रवृत्तियाँ काम आती हैं। अस्तु पर्याप्त खाद, पानी पाकर वे परिपुष्ट होती रहती हैं और अपनी क्षुधा बुझाने के लिए देवत्व पर, मानवी मर्यादाओं पर ही हमला बोलती हैं। आग को बढ़ने के लिए ईंधन तो चाहिए ही। इसके लिए उस दावानल को वन प्रदेश में उगी हुई सूखी गीली वनस्पति को ही अपनी लपेट में लेना पड़ता है। असुरता को बढ़ना है तो उसे देवत्व को ईंधन की तरह प्रयुक्त करना होता है। यही असुरता का देव सत्ता पर आक्रमण होता है।

देवत्व भी चुपचाप उदरस्थ नहीं हो जाता। आत्मरक्षा की लड़ाई उसे लड़नी पड़ती है। आदर्शवाद भी जीवित रहना चाहता है। अस्तु विरोध, विद्रोह तो वह भी करता है। कम से कम मनुष्य की अन्तः भूमिका में अन्तर्द्वन्द्व के रूप में तो उसका रोष-आक्रोश एवं संघर्ष दृष्टिगोचर होता ही है। असुरता के सम्मुख नितांत निष्क्रिय आत्मसमर्पण नहीं हो सकता। देवत्व हारता तो है, पर उसका प्रतिरोध किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। आत्म चेतना के साथ जुड़े हुए मानवी आदर्श सर्वथा नष्ट नहीं हो सकते। यदि उन्हें भी जीवन प्रक्रिया में प्राचीन भारत जैसी उत्कृष्ट परिस्थितियों का पोषण मिला होता, तो उनकी बलिष्ठता असुरता से बढ़कर रही होती और हारने का कोई प्रश्न ही न उठता। खाद, पानी जिसे भी मिलेगा वही परिपुष्ट होगा। वातावरण एवं अभ्यास प्रयोग का अवसर जब असुरता को मिल रहा है तो परिपुष्ट उसे ही होना है। यदि वैसा ही पोषण देवत्व को मिला होता तो निश्चित रूप से सतयुगी, स्वर्गीय परिस्थितियाँ सामने रही होतीं और देवत्व की विजय पताका फहराती दिखाई पड़ती।

देवत्व का स्वरूप है व्यापकता। एक को बहुत में देखने की सद्भाव भरी सत्प्रवृत्ति। वासनात्मक अतिवाद के कारण होने वाली शारीरिक और मानसिक विनाश की अपरिमित क्षति देव चक्षुओं से स्पष्ट दीख पड़ती है। इसी प्रकार तृष्णाग्रस्त होकर अधिक संचय एवं उपभोग से अपनी अहंकारिता एवं विलासिता का बढ़ना और दूसरों का उस परिकर से वंचित रहना उसे काँटे की तरह चुभता है। देव मानस सोचता है कि अपने श्रम, समय, मनोयोग, प्रभाव, वर्चस्व एवं धन का लाभ यदि संकीर्ण स्वार्थपरता के क्षेत्र से बाहर तक जाने दिया जाये तो उससे कितने बड़े परिमाण में प्रयोजन पूरे हो सकते हैं। यह तुलनात्मक विचार करते ही देव मानव को यही सूझ सूझती है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई उपलब्धियों का उपयोग, जीवनक्रम को आदर्श एवं अनुकरणीय बनाने में किया जाय। शरीर और परिवार के लिए सुविधाएँ संचित करते रहने की लोभ, मोहग्रसित क्षुद्रता से ऊपर उठा जाय और क्षमताओं तथा सम्पदाओं के रूप में जो कुछ उपलब्ध है व्यापक क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के लिए लगाया जाय। देव मान्यता यही है। देवत्व इसी स्तर की गतिविधियाँ अपनाने के लिए उत्कंठित रहता है। ऐसे चिन्तन में ही उसे रस आता है और ऐसे कर्तृत्व में ही उसे सन्तोष मिलता है।

असुरत्व और देवत्व में निरन्तर संघर्ष इसलिए होता रहा है कि जीवन सम्पदा पर अधिकार जमाने के लिए दोनों की ही प्रबल चेष्टा रहती है। देवत्व की माँग यह है कि दिव्य जीवन जिया जाय। अपने आचरण अनुकरणीय रहें। असुरता तात्कालिक वासना और तृष्णा की तृप्ति चाहती है। अधिकाधिक इन्द्रिय उपभोग की वासनात्मक लिप्सा हर घड़ी छाई रहती है। उसी की उधेड़-बुन का ताना-बाना चलता रहता है। तरह-तरह के व्यंजन, काम-क्रीड़ा के प्रयोग एवं दृश्य, श्रव्य, स्पर्शजन्य विलास प्रयोजन कैसे पूरे हों इसके सपने सँजोये और घरौंदे बनाये जाते हैं। इससे थोड़ी फुरसत मिलती है तो धन कमाने-अमीरी का दर्प दिखाने वाले ठाट-बाट बढ़ाने के लिए प्रयत्न चल पड़ते हैं। जीवन सम्पदा इन्हीं लोभ और मोह के-वासना, तृष्णा के-प्रयोजनों में खर्च हो जाय यह असुरता की परिधि और प्रेरणा है।

देवत्व ऐसी क्षुद्रता की बालक्रीड़ा में सीमाबद्ध नहीं रहना चाहता, उसे बड़े प्रयोजन पूरे करने की आकांक्षा बेचैन किये रहती है। यही अन्तर्द्वन्द्व देवासुर संग्राम है, जो प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य में अपने-अपने पक्ष समर्थन में निरत रहते हैं। भोजन करते समय यह खींच-तान देखी जा सकती है। एक और स्वादिष्ट किन्तु गरिष्ठ हानिकारक पदार्थ और दूसरी ओर कम स्वाद के किन्तु सात्विक पदार्थ सामने होते हैं। दोनों ही थाली में सामने रखे हैं किसे ग्रहण किया जाय? किसे छोड़ा जाय? इसमें भीतर ही भीतर अन्तर्द्वन्द्व चलता है। यही देवासुर संग्राम है। जिस पक्ष की प्रबलता होगी उसी की बात चलेगी। जो दुर्बल होगा वह कल्पना-जल्पना करता रह जायगा। थाली के मोर्चे पर देव जीते या दैत्य इसका निर्णय आसानी से किया जा सकता है।

धन उपार्जन में नीति-अनीति के-कर्म में श्रमशीलता और आलस्य-प्रमाद के, चिन्तन में विकारी एवं आदर्शवादी विचारों की, उपभोग में संयम-असंयम की, आचरण में आदर्शवादिता एवं भ्रष्टता की, दर्शन में आस्तिकता नास्तिकता की आकांक्षाएं हर घड़ी, हर क्षण मल्ल युद्ध करती हैं। यही देवासुर संग्राम है। परस्पर विरोधी दिशा में चल रही खींच-तान में से कब किसकी विजय हुई यह आत्म निरीक्षण यदि सतर्कतापूर्वक जारी रखा जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि अन्तर्द्वन्द्व के महाभारत में किस पक्ष की सेना हारती और किसकी जीतती है ?

व्यक्तिगत जीवन की विचारणा एवं क्रियाशीलता के क्षेत्र से आगे बढ़कर परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व के व्यापक क्षेत्र में भी यह देवासुर संग्राम चलता है। गरम युद्ध और शीत युद्ध के मोर्चे हर क्षेत्र में गढ़े होते हैं। इन्हें मूक दर्शक की तरह तो कोई जीवित मृतक ही दीखते रह सकते हैं। जीवान्त चेतना को किसी का पक्षधर बनना पड़ता है। जो नीति का पोषण नहीं करता वह परोक्ष रूप से अनीति का समर्थक है। निष्क्रियता भी किसी न किसी पक्ष को सबल या दुर्बल बनाती है। नीति के पक्षधर अनीति से जूझते हैं। जोखिम भरा कठोर संघर्ष न कर सकें तो भी विरोध एवं असहयोग तो जारी ही रखते हैं। इतने से भी अनीति का मोर्चा कमजोर होता है। सत्प्रवृत्तियों का समर्थन एवं सहयोग करना प्रत्यक्षतः देव पक्ष को विजयी बनाने का योगदान है। इसी प्रकार असुरता को सहन करने, उसके विरोध में मुँह तक न खोलने से भी प्रकारान्तर से असुर पक्ष का समर्थन बन जाता है और दुष्प्रवृत्तियों को खुले खेलने की छूट मिल जाती है। इस प्रकार हर व्यक्ति अपने हर चिन्तन एवं कर्म में प्रकारान्तर से देवता एवं असुरों की सेना का सैनिक एवं समर्थक बनकर दोनों में से किसी न किसी को सफल एवं असफल बनाने का प्रयत्न कर रहा होता है। देवासुर संग्राम मल्लयुद्ध की तरह अथवा तीर-तलवारों से तो कभी-कभी ही देखने में आता है, पर वह सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों में टकराव की तरह सर्वत्र होता रहता है। पुराणों में इसी सूक्ष्म स्थिति को विभिन्न कथानकों के रूप में चित्रित किया है। देवताओं और असुरों के नामों की तथा घटनाक्रमों की भिन्नता के रूप में व्यापक क्षेत्र में फैली हुई प्रवृत्तियों के बीच होते रहने वाले संघर्ष की ही चर्चा है।

लोक प्रवाह में आसुरी तत्वों का बाहुल्य रहने से बहुत मोर्चों पर दैत्य ही जीतता है। देवत्व दुर्बल पड़ता और हारता है, पर यह जीत-हार अस्वाभाविक है। आत्म चेतना का ईश्वरीय अंश मूलतः अति समर्थ है। सत में हजार हाथियों के बराबर बल बताया जाता रहा है। सामान्य विवेक सहज ही देवत्व का पक्षधर होता है। चोरों के झुण्ड से पूछा जाय कि चोरी अच्छी होती है या ईमानदारी तो उनमें से प्रत्येक ईमानदारी के पक्ष में ही अपना मत देगा। वह ईमानदार दुकान से सौदा खरीदता, ईमानदार नौकर तलाश करता है और ईमानदारी से ही व्यवहार करने कर इच्छुक रहता है। चोर होते हुए भी ईमानदारी का यह सरल समर्थन बताता है कि देव पक्ष कितना प्रबल है जो विपक्षी के मुंह से भी अपना समर्थन करा लेता है। व्यभिचारी भी अपनी पत्नी या बेटी को उस मार्ग पर नहीं चलने देना चाहता। अपने घर में सदाचारियों को ही प्रवेश देते हैं। स्वयं व्यभिचार रत व्यक्ति भी जब सदाचार का समर्थन करता है तो स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति किसकी प्रबल है! सारा संसार व्यवहारतः असत्यवादी हो जाय तो भी बिना समर्थन का सत्य भी अपनी वरिष्ठता का विजय ध्वजा फहरा रहा होगा और असत्यवादियों के मुंह से भी सत्य की गरिमा गाई जा रही होगी। यह तथ्य बताते हैं कि देवत्व की मूल शक्ति कितनी प्रबल और प्रचण्ड है? अस्तु देवताओं की पराजय अस्थायी ही होती है, उसका निराकरण जल्दी ही हो जाता है। देवासुर संग्राम के कथानकों में असुरों की विजय कभी भी स्थायी नहीं हुई है, उन्हें फिर पराजित होना पड़ा है और देवताओं ने अपना पूर्व पद फिर से प्राप्त कर लिया है।

पराजय को विजय में परिणत करने का आधार इन कथानकों में ईश्वरीय विशिष्ट सहायता ही रही है। इसे हम सत्साहस के रूप में अवतरित हुआ देख सकते हैं। व्यक्ति के जीवन में जब देवत्व के पक्ष-समर्थन की अदम्य अभिलाषा जग पड़े और वह अवाँछनीयताओं से लड़-पड़ने का आक्रोश बन कर सत्प्रवृत्तियों को मूर्त रूप देने में जुट पड़े तो समझना चाहिए कि यह मनःस्थिति प्रत्यक्ष ही ईश्वरीय अवतरण में उभरे हुए प्रचण्ड आन्दोलन के सम्बन्ध में कही जा सकती है। अपने-अपने समय की विकृतियों का निराकरण करने का नेतृत्व श्रेय किन्हीं विशेष व्यक्तियों को ही मिलता है पर यथार्थता यह है कि लोकमानस में उठती हुई संतुलन की वृत्ति के रूप में अवतार सत्ता का दिव्य अवतरण होता है। किस समय, कहाँ किस प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हुईं और उनका निवारण करने के लिए किस प्रकार की प्रतिक्रिया उभरी यह घटनाक्रम प्रायः नवीनता युक्त होता है। पिछले घटनाक्रम एक जैसे नहीं दुहराये जाते तो भी तथ्य एक ही रहता है। अधर्म का- अवांछनीयता का निराकरण और धर्म का औचित्य का-संस्थापन। रामायण काल और महाभारत काल की अनीति का स्वरूप और उनके निवारण का उपक्रम एक जैसा नहीं था घटनाएं भिन्न-भिन्न प्रकार से घटीं तो भी तथ्य यथास्थान रहे भगवान के अवतरण का स्वरूप सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप होता है। लोकमानस में अभीष्ट परिवर्तन के लिए भारी आवेश भरा होता है, उसी आधार का नेतृत्व प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति तथा घटनाक्रम दृश्यमान होते हैं। इन्हीं को अवतार की लीला कहा जा सकता है। श्रेय किन्हें मिला किन्हें नहीं इससे कुछ अन्तर नहीं आता है। लंका विजय का श्रेय राम, लक्ष्मण, अंगद, हनुमान या नल, नील में से किस को दिया जाय, इस पर विवाद करना व्यर्थ है। महाभारत की भूमिका में कृष्ण या अर्जुन में से किसे श्रेय मिले इस झंझट में पड़ने से कोई लाभ नहीं। नियति के उभार किसी को भी अपना वाहन बना सकते हैं। ईश्वर व्यक्ति नहीं शक्ति है वह दिव्य चेतना का उभार बन कर व्यष्टि अथवा समष्टि में अवतरित होता है। समय की विकृतियों का समाधान और सुकृतियों का अभिवर्धन करके संतुलन सही करना ही उसका लक्ष्य होता है। भगवान की अवतार लीलाएं इसी प्रयोजन के लिए उभरती, और लीला करती दिखाई पड़ती हैं।

देवताओं के ईश्वर के शरीर में जाने का तात्पर्य है अन्तर्जगत की दिव्य चेतना को आवेशपूर्वक अपनाया जाना। पिचकारी का भीतरी काग जितना कड़ा होता है उसमें जितनी पोल होती है उसी क्रम से उतनी ही मात्रा में खींचने की क्रिया आरम्भ होते ही पानी ऊपर खिंचता चला आता है। ईश्वर की शरण में जाने एवं उसका विशेष अनुग्रह पाने के लिए उसकी शरण में जाना आवश्यक माना गया है। शरण का तात्पर्य यह रोना-गाना नहीं है-प्रचण्ड उत्कण्ठा उभारना है। जीव चेतना का आन्तरिक चुम्बकत्व ही सूक्ष्म जगत की सत्ताओं को अपने भीतर धारण करता है। पिचकारी दूध भी खींच सकती है और विष भी। आन्तरिक आकर्षण से आसुरी तत्व भी अपने भीतर-भरते हैं और जब देवत्व की आवश्यकता होती है तो वह भी उसी प्रकार भीतर भरता आता है। ईश्वर साक्षी और दृष्टा है वह विश्व जीवन का क्रम भर चलाता है।

सामयिक उथल-पुथल लोगों के वैयक्तिक अथवा सामूहिक हलचलों के फलस्वरूप बनती बिगड़ती रहती है। ऊपर के दबाव से ज्वार-भाटे उठते रहते हैं समुद्र की मूलसत्ता शान्त है। परब्रह्म की स्थित सामयिक भली-बुरी उथल-पुथल से ऊपर है। इसे तो लोक चेतना ही अपने प्रवाह को आगे-पीछे करके बिगाड़ती-सुधारती है। भगवान का अवतार इसी चेतनात्मक उभार को ही कह सकते हैं, जो व्यक्ति के भीतर, भक्तों के मनःक्षेत्र में व्यक्तिगत रूप से आदर्शवादी उत्कण्ठा के रूप में प्रकट होता है और वही समष्टि क्षेत्र में लोकचेतना के रूप में आँधी-तूफान की तरह उभरता है और क्रान्तिकारी परिवर्तन करके अपने लीलाकृत्य को पूर्ण कर देता है।

आसुरी और देवी शक्तियों के संघर्ष में हमें किस का पक्षधर बनना है इसका निर्णय स्वयं ही करना पड़ता है। अदूरदर्शिता तात्कालिक लाभ भर देखती है और असुरता के आवेश में फँस कर नरक को आमन्त्रित करती है और सर्वनाश के गर्त में फँसती है। विवेकशीलता उज्ज्वल भविष्य को देख सकती है और उस फसल को उगाने के लिए धैर्यबद्ध किसान की तरह कष्ट साध्य श्रम करने में उत्साह बनाये रहती है। फलस्वरूप स्वर्ग सामने आ खड़ा होता है और जीवात्मा को-महात्मा-देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। देवत्व और असुरत्व की रस्साकशी में हमें किसी के पक्षधर बन सकते है। अनवरत चल रहे देवासुर संग्राम के हम मूक दर्शक नहीं रह सकते। इच्छा या अनिच्छा से किसी का समर्थन सहकार तो करना ही होता है। फैसला गम्भीरता और सजगता पूर्वक किया जाय इसी में बुद्धिमानी है।

असुरता के कुचक्र में फँस जाने पर यदि नारकीय पीड़ाएं अधिक दुःख दे रही हों और स्थिति असह्य बन रही हो तो भलाई इसी में है कि ईश्वर की शरण में जाय जाय अर्थात् औचित्य को अपनाने के लिए जिस आदर्शवादी दुस्साहस की आवश्यकता पड़ती है उसे आवेशपूर्वक अपनाया जाय और चल रहे अवांछनीय ढर्रे को बदलकर विवेक सम्मत रीति नीति अपनाने के लिए चिन्तन कर कर्तव्य में काया-कल्प जैसा क्राँतिकारी परिवर्तन किया जाय। यही है ईश्वर की तात्विक शरणागति। इस शरणागति नीति को अपनाने के बाद देवत्व निश्चित रूप से जीतता है और अपना खोया वर्चस्व पुनः प्राप्त करता है।

देवासुर संग्राम के पुराण वर्णित कथाक्रम ऐतिहासिक हैं या नहीं इस में माथा-पच्ची करना व्यर्थ है। उनमें यह शाश्वत तथ्य सुनिश्चित रूप से भरा पड़ा है कि दैवी और आसुरी प्रकृति के आकर्षण प्राणी को खींचते है। इनमें से देवत्व का पक्षधर बनने और ईश्वर की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है।


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