जीवात्मा, महात्मा, देवात्मा और परमात्मा

August 1976

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मानवी प्रगति के अनेक प्रशंसनीय प्रयासों में पिछड़ापन बहुत ही अखरने वाला और अशोभनीय है कि शरीर और मन रूपी वाहनों-उपकरणों एवं सेवकों की गुलामी उस पर पूर्ववत् लदी रहे। क्षुद्र प्राणियों को ऊँचा उठा कर उसने भोजन, वस्त्र और निवास की सुव्यवस्था के लिए कला और विज्ञान के उच्च स्तरों तक अपनी पहुँच पहुँचाती है तो फिर यह दयनीय स्थिति क्यों रहे, जिसमें शरीर और मन की लिप्साएं ही उस पर अधिकार जमाये रहें और अपनी मनमर्जी से उसी प्रकार नचाती रहे जिस प्रकार कठपुतली को बाजीगर नचाता है।

अपनी सम्पत्ति-अपनी प्रजा और अपने उपकरण औजारों एवं हथियारों का उपयोग जब स्वयं ही ठीक प्रकार किया जाने लगे तो समझना चाहिए कि अल्पवयस्कता दूर हो गई और प्रौढ़ता आ गई। नाबालिगों को न वोट देने का अधिकार होता है न वे कहीं कोई उत्तरदायी पद प्राप्त कर सकते हैं-अपनी निज की सम्पत्ति भी बेच नहीं सकते और न उनके दिये गये वचनों का कोई कानूनी मूल्य माना जाता है। चेतनात्मक दृष्टि से अविकसित और अपरिपक्व व्यक्ति वे हैं जिन्हें अभी तक अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारी निबाहने का अनुभव अभ्यास नहीं हो पाया। बड़ी उम्र के भी ऐसे अविकसित और विक्षिप्त लोग होते हैं जो बच्चों की तरह सोचते और उन्हीं के जैसे आचरण करते हैं। इन्हें भी अप्रमाणित माना जाता है और नागरिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। जिस की क्रियाएँ-विचारणाएँ और आकाँक्षाएँ चेतना की प्रौढ़ता से प्रभावित एवं संचालित रहती हैं समझना चाहिए कि वे वयस्क हो चुके और अपनी प्रशासनिक कुशलता का परिचय दे रहे हैं। इनकी चेतना पर इन्द्रिय लिप्सा का अधिकार है-अहंकार प्रदर्शन के लिए जिनका मस्तिष्क उच्छृंखल आतुरता का बेरोक-टोक परिचय दे रहा है, समझना चाहिए यहाँ वन्य पशुओं को पूरी छूट मिली हुई है। हाथी को अंकुश के सहारे घोड़े को लगाम के सहारे-ऊँट को नकेल और बैल को रस्सी के सहारे सही रास्ते पर चलाया जाता है। यदि यह नियन्त्रण न हो तो इन पशुओं के पालनकर्ता भारी घाटा और भारी जोखिम उठावेंगे। ठीक इसी प्रकार अविकसित चेतना जब वासनाओं और तृष्णाओं को कुछ करते रहने की छूट दे देते हैं उन पर अंकुश रखने में असमर्थता प्रकट करती है तो समझना चाहिए कि यही दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ होना नहीं है।

चेतना का स्तर जब भी विकसित होता है तो उसका प्रमाण आत्मानुशासन के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है। तब इन्द्रियों मचलना बन्द कर देती हैं और आज्ञाकारी सेवक की तरह शासन के निर्देशों का अक्षरशः पालन करने में अपनी तत्परता दिखाती हैं। शरीर की हर क्रिया अभीष्ट उद्देश्यों के लिए होती है और समय का उपयोग निर्धारित दिनचर्या के अनुरूप होने लगता है। शरीर में आलस्य और मन में प्रमाद छाया रहना चेतना की अर्ध मूर्छित स्थिति में ही सम्भव होता है यह अर्धमृतक स्थिति है। आलसी अपनी बहुमूल्य क्रियाशक्ति को ऐसे ही नष्ट करते रहते हैं और उसके सहारे जिस गगनचुम्बी प्रगति तक पहुँच सकना नितान्त सरल था उससे वंचित रह जाते हैं।

प्रमादी और भी अधिक घाटे में रहते हैं। शरीर कोल्हू के बैल की तरह चलता रहता है, पर वह सब बेगार भुगतने एवं भार ढोने की तरह होता है फलतः कर्म कोशल के उत्साह भरे आलोक की झाँकी नहीं मिलती। किसी कार्य को पूरे मनोयोग के उमंग और उत्साह के साथ न किया जाय तो उसमें विद्रूप अधूरापन ही परिलक्षित होता रहेगा। ऐसे कर्मों को कुकर्म तो नहीं, पर अकर्म अवश्य ही कहा जायगा। वे काने, कुबड़े, लंगड़े, लूले और कुरूप होते हैं उनसे कर्त्ता को श्रेय प्राप्त होना तो दूर उलटे उपहासास्पद बनना पड़ता है।

मस्तिष्क जब अशिक्षित, अनियन्त्रित और अविकसित होता है तब निरर्थक और भार-भूत संग्रह के लिए मचलता है यह उसकी बाल-क्रीड़ा तृष्णा के नाम से जानी जाती है। इस भौतिक संग्रह में बड़प्पन की मान्यता और अन्यान्य लोगों का ध्यान आकर्षित करके वाह-वाही लूटने की दृष्टि से ही तरह-तरह के ठाट-बाट बनाये और उद्धत प्रदर्शन किये जाते हैं। इतनी कठिनाई से-नीति-अनीति की परवाह किये बिना-इतने जोखिम उठाकर जो सम्पदा कमाई गई थी उसे इस तरह अपव्यय में होली की तरह फूँकने के सरंजाम किये जाते देखकर तथाकथित बुद्धिमत्ता को यथार्थता की कसौटी पर मूर्खता ही ठहरना पड़ता है। किन्तु अनपढ़ मन तो ऐसी ही बाल-क्रीड़ाओं में निरत रहते हुए प्रसन्न रहता है। उसकी अपनी समझ में इस निरर्थकता की बात आती नहीं। अविकसित चेतना में इतनी क्षमता होती नहीं कि मन पर अंकुश रखे उसे ऐषणाओं की निरर्थकता समझाये और उन से विचार शक्ति को मुक्ति दिला कर किसी ऐसी महत्वपूर्ण दिशा में अग्रसर करे जिस पर चलने से जीवनोद्देश्य की पूर्ति होती हो और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना बनती हो।

राग, द्वेष, ईर्ष्या, आवेश, चिन्ता, खीज, निराशा, अधीरता, दीनता-हीनता, दृष्टता, भ्रष्टता, लिप्सा, उद्विग्नता जैसे ज्वार-भाटे और आँधी-तूफान जिनके मस्तिष्क में उठते रहते हैं, उनकी मनःस्थिति नितान्त अस्थिर एवं अव्यवस्थित रहती है। ऐसे लोग अपने ही बुने मकड़ी के जाले में आप उलझे रहते हैं। समस्याओं और उलझनों के इतने बड़े पहाड़ गढ़ लेते है जिन्हें सुलझाना असम्भव ही बना रहता है। अधीरता देर तक किसी काम में दृढ़तापूर्वक जमे नहीं रहने देती, फलतः अनेक आरम्भ और हर प्रयास में असफलता का इतिहास जीवन पुस्तिका पृष्ठों पर लिखता जाता है। स्पष्ट है कि अनेकों कठिन परिस्थितियों में जूझने में उतनी शक्ति खर्च नहीं होती जितनी कि अकेली विकृत मनःस्थिति के गोरखधन्धे में उलझे रहने में नष्ट होती है। मस्तिष्क को यदि रचनात्मक चिन्तन और निर्धारित प्रयोजन को पूरा करने में नियोजित किया जा सके तो सही दिशा में धीरे-धीरे किन्तु अनवरत गति से चलने वाले कछुए की तरह बाजी मारी जा सकती है और अस्त-व्यस्त उछल-कूद करते फिरने वाले सामर्थ्यवान खरगोशों को प्रतिस्पर्धा में हराया जा सकता है।

उच्चस्तरीय आदर्शों को प्राप्त करने के लिए मन को नियोजित कर सकना और उसे बलपूर्वक अभीष्ट लक्ष्य में नियोजित किये रहना प्रौढ़ चेतना का ही काम है उसी में यह सामर्थ्य है कि इन्द्रियों को विलासी लिप्सा से विरत रहने को फौजी आदेश देने और उनका पालन कराने में सफल हो सके। आलस्य शरीर की जड़ता और प्रमाद मन की जड़ता है। इसे उलट कर चित शक्ति का अनुशासन स्थापित करना आन्तरिक प्रगल्भता के अतिरिक्त और किसी आधार पर सम्भव नहीं हो सकता।

शरीर और मन प्रकृत तत्वों से बने हैं उन्हें अपने सजातीय भौतिक पदार्थों का ही परिचय है और उनके संस्पर्श से जो लिप्सा संवेदना की अनुभूति होती है उतने भर का अनुभव है। अस्तु उनका दौड़-दौड़ कर पदार्थों एवं शरीरों में अपनी रुचि, उत्सुकता एवं ललक का परिचय देना स्वाभाविक है। मर्त्यलोक के निवासी भवबन्धनों से जकड़े हुए मायाग्रस्त जीवधारी के लिए इतना ही सम्भव है वह इस दल-दल में से अपने को निकालने की न आवश्यकता समझता है और न उसके लिए प्रयत्न ही करता है। ऊँची बात सोच सकना और महत्वपूर्ण निर्णय करना दूरदर्शिता और विवेकशीलता का उदय होने पर ही सम्भव है। यह दोनों विशेषताएं गर्मी और रोशनी की तरह हैं जो चेतना के सूर्योदय के साथ साथ ही प्रस्फुटित होती है। अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपादन ब्रह्मलोक से होता है। यह ऊपर आकाश है। ईश्वर को उसका केन्द्र माना गया है और कहा गया है कि परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ठता उत्पन्न करने वाली-आदान-प्रदान का द्वार खोलने वाली उपासना को अपनाने से ही चेतना की परतों पर दिव्य अवतरण सम्भव होता है।

यह ब्रह्मलोक क्या है? निश्चय ही यह कोई ग्रह-नक्षत्र या स्थान विशेष नहीं है। अपने ब्रह्मांड में ब्रह्मलोक नामक किसी क्षेत्र का परिचय अब तक न प्राप्त किया जा सका है और न भविष्य में वैसी आशा है। चेतना परतों को भौतिक क्षेत्र विशेष के रूप में अलंकारिक रूप से चित्रण करना तो कलाकारिता है, पर उस कल्पना की यथार्थता के साथ संगति बिठाना गलत है। ब्रह्मलोक आस्थाओं का एक सघन परत हैं जिसमें उच्चस्तरीय आकाँक्षाएं उमगती रहती है। उन हिलोरों को उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य के रूप में समुद्री लहरों जैसा परिचय देते देखा जा सकता है। ब्रह्मलोक में परमात्म सत्ता का साम्राज्य है। परमात्मा को देखना हो तो उसकी प्रतिमा विराट ब्रह्म के रूप में हर घड़ी दृश्यमान है। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के द्वारा विश्व मानव की सेवा साधना की जा सकती है और उसका प्रतिफल महानात्मा के रूप में असीम श्रेय सहित प्राप्त किया जा सकता है। अपने भौतिक साधनों को जितने अधिक अनुपात से ब्रह्मार्पित किया जा सके उसी अनुपात से साकार उपासना का अधिक उच्चस्तरीय प्रतिफल प्राप्त किया जा सकता है। संसार के अवतारी महामानवों का उज्ज्वल यश और प्रकाश स्वयं धन्य बनता और दूसरों को धन्य बनाता है यह लोक साधना की तपश्चर्या का ही प्रतिफल है।

अगोचर, अचिन्त्य ब्रह्म निराकार है वह उच्चस्तरीय आदर्शवादी-अति मानवी उमंगों के रूप में अनुभव किया जाता है। आत्मभाव का विस्तार होने पर अपना आत्मा सब में समाया दीखता है फलतः दूसरों के दुःख अपने दुःख और दूसरों का सुख अपना सुख बन जाता है। तब विश्वहित में ही अपना हित सन्निहित दीखता है ईश्वर जितना उदार-जितना निर्मल है उसी स्तर पर जा पहुँचने की अदम्य उत्कंठा को ईश्वर भक्ति कहा गया है। उपासना प्रक्रिया का उद्देश्य इसी संवेदना को उभारना और परिपुष्ट करना है। भगवान को व्यक्ति विशेष मानकर उसे प्रशंसा और उपहार देकर प्रसन्न करने की बात तो मात्र अबोध बालक ही सोच सकते हैं। प्रौढ़ावस्था में यह स्थित उपहासास्पद मानी जाती है। विकसित दृष्टिकोण में ईश्वर प्राप्ति के प्रयासों में चेतना को अतिमानव स्तर पर विकसित करना ही एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। इस प्रयास में सफल साधकों को देवात्मा कहते हैं परमात्मा का मिलन देवात्मा स्तर की पहुँची हुई पृष्ठभूमि पर ही सम्भव होता है। दूध और पानी सजातीय और समान कण भार के होने से परस्पर घुल मिल जाते हैं, पर तेल मिलता नहीं तैरता है। बालू मिला देने पर वह नीचे बैठ जाती है। गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से जिसने अपने मनःक्षेत्र को अति मानस और व्यक्तित्व को अति मानव स्तर पर विकसित कर लिया है वह ईश्वरीय चेतना के साथ सहज ही आदान-प्रदान करता रह सकता है। उस विकास क्रम के सर्वोच्च स्तर पर पहुँचने वाली चेतना ही परमात्मा बन जाती है। ऐसी स्थिति में न केवल उसकी वैयक्तिक संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त हो जाता है वरन् शक्ति और सामर्थ्य के क्षेत्र में उसकी स्वल्पता और क्षुद्रता का अन्त होकर रहता है। विशाल समुद्र में मिल जाने वाली बूँद अपनी तुच्छता खो बैठती है और बदले में सागर जैसी विशालता उपलब्ध करती है। उच्च भूमिका में विकसित भूमिका को भूमा, प्रज्ञा, तत्व दृष्टि से प्राप्त कर लेना ही उपासना का उद्देश्य है। इस सफलता का परिचय क्षुद्रता के परित्याग और महानता के वरदान की परख से जाना जा सकता है। जिसमें जितनी ईश्वरीय अन्तर्दृष्टि होगी उसका ब्रह्मवर्चस भी उतना ही प्रचण्ड होगा। फलतः उसकी सत्ता अपने समय के अति महत्वपूर्ण प्रयोजनों को सिद्ध कर रही होगी। अवतारों को इसी रूप में देखा जा सकता है। यह चित्शक्ति की-चेतना की प्रखरता और प्रचण्डता की ही उपलब्धि है।


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