महायोगी उत्तंक कहीं दूर देश का पर्यटन करने के लिए जा रहे थे। वहाँ तक पहुँचने के लिए मरुभूमि में से होकर गुजरना पड़ता था। पास में जितना जल लेकर चले थे वह अब समाप्त हो चुका था। मरुस्थली गर्मी, आग की भाँति जलती, धूप अँगारे बरसाती सूरज की किरणें - इन सबने उन्हें बेहाल कर दिया था। जैसा कि वे सोचकर चले थे उससे अधिक बार-बार पीना पड़ा। अतः मार्ग पूरा होने से पहले ही उनके पास का जल समाप्त हो गया।
बड़ी तेज प्यास लग रही थी। लगता था कि अब पानी नहीं मिला तो प्राण ही निकल जायेंगे और ऐसे समय में उन्हें भगवान कृष्ण की याद आई जिन्होंने उन्हें इच्छित वस्तु हर कहीं प्राप्त होने का वरदान दिया था।
इस वरदान की भी एक लम्बी कहानी है।
महाभारत समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण जब हस्तिनापुर से द्वारका लौट रहे थे तो मार्ग में योगसाधना रत उत्तंक दिखाई दिये। जब महाभारत की पृष्ठभूमि बन ही रही थी तभी उत्तंक ने संन्यास धारण कर लिया था। अतः कृष्ण भगवान का जब उनसे साक्षात् हुआ तो उत्तंक ने कौरवों और पाण्डवों के विग्रह का समाचार पूछा। श्रीकृष्ण ने आद्योपान्त सारा विवरण कह सुनाया।
निष्काम-साधना में संरत उत्तंक ने कहा-‘आपका दर्शन कर लेने के बाद भी और कौन-सा वरदान चाहिए?’
श्रीकृष्ण उन्हें आग्रहपूर्वक मनोवाँछित वर माँगने के लिए कहते रहे। अन्ततः उन्होंने कहा-‘मुझे कभी किसी चीज का अभाव अनुभव न हो।’
इसमें संशोधन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-‘भाव और अभाव की अनुभूति तो हर मानवी चेतना की प्रकृति है। हाँ, मैं आपको यह वरदान अवश्य देता हूँ कि आपको जब भी किसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत होगी तो वह आवश्यकता पूरी हो जायेगी।’
उत्तंक ने ‘जैसी आपकी इच्छा’ कहकर उसे स्वीकार कर लिया। इस बात को वर्षों बीत गये और आज वरदान के उपयोग का समय आया। तो महात्मा उत्तंक ने वासुदेव कृष्ण का स्मरण करते हुए जल की कामना की।’
तभी उन्हें एक चाण्डाल आता दिखाई दिया। वह उत्तंक के पास आकर रुका और बोला कि- ‘आप बड़े प्यासे दिखाई देते हैं महाराज, मेरे पास पर्याप्त जल है इसे ग्रहण कीजिए।’
तपस्वी उत्तंक के मन में ऊँच-नीच का विचार आया और वे सोचने लगे कि चाण्डाल के हाथ का जल लेने से तो अच्छा है प्यासे ही मर जाना। उधर चाण्डाल बार-बार आग्रह कर रहा था। उत्तंक ने उसे दुत्कार कर दूर भगा दिया।
चाण्डाल चला गया। तभी मन्दस्मित मुस्कान लिए श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उत्तंक ने उन्हें उलाहना दिया। तब श्रीकृष्ण जी बोले-‘महात्मन्’ ! जिसे आप चाण्डाल समझ रहे थे वह स्वयं देवराज इन्द्र थे और मेरे आग्रह पर वे आपको अमृतपान कराने के लिए आये थे। पहले तो वे तैयार ही नहीं हो रहे थे, पर जब मैंने बार-बार आग्रह किया तो उन्होंने सशर्त मेरा आग्रह माना। वह शर्त यह थी कि यदि आपके हृदय में समता, निर्मल प्रेम, सब प्राणियों में भगवद्भाव हो तो ही आप अमृतपान के योग्य होंगे और इसी कारण वे चाण्डाल के वेश में आपकी समता बुद्धि परखने के लिए आये थे।’
इस ऊँच-नीच की विडम्बना के कारण अमृत से वंचित रह जाने पर उत्तंक को बड़ा पश्चाताप हुआ और वे पुनः तपस्या के लिए चल दिए।
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