अपनी भूलों को समझें और उन्हें सुधारें

August 1976

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आपके प्रति यदि कोई व्यक्ति अनुचित व्यवहार करे और निन्दा, आलोचना करे तो इसमें सभी दोष उसका ही नहीं है। आप स्वयं भी दोषी हैं। आप भी तो किसी की तनिक-सी भूल पर हँसते हैं, आप भी दूसरे की गलती और भूल पर व्यंग्य और आलोचना करते हैं। पहले अपनी गलती और भूलों को देखें और दूसरों के दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न न करें। अगर किसी को अपनी बात मनवानी है तो भी अशिष्ट या कटु-व्यवहार का आश्रय लेना ठीक नहीं रहता। इससे दूसरे के आत्माभिमान को चोट लगती है, जिसकी प्रतिक्रिया भी कटु होती है। उसी बात को स्नेह और आत्मीयतापूर्वक कहें तो आपके सम्बन्ध भी अच्छे बने रहते हैं और आपकी बात मान ली जाती है।

हमें अपना दृष्टिकोण संघर्षमय न बनाकर रचनात्मक बनाना चाहिए। मनुष्य चाहे तो अपने स्वभाव को थोड़ा प्रयत्न करके आसानी से सुधार सकता है। दूसरों को दुर्बुद्धि, उजड्ड और विद्वेषी बताने की अपेक्षा अच्छा है कि आप स्वयं ही आपको मिलनसार बनायें। औरों में दोष देखने का प्रयत्न न करें, साथ ही अपनी उदारता, सहनशीलता और दूरदर्शिता जैसे सामाजिक गुणों का विकास करते रहें जब कभी कोई अशुभ परिस्थितियाँ और कठिनाइयाँ आवें तो पहले अपने दोषों को भी देख लिया करें।

सैद्धान्तिक जीवन के प्रति लोगों की भावनाएँ कितनी ही ऊँची क्यों न हों यदि व्यावहारिक जीवन शुद्ध और सतर्क नहीं है तो उससे मनुष्य को कोई आन्तरिक सन्तोष नहीं मिलेगा। व्यावहारिक आचरण व्यक्त होता है, इसलिए लोगों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। किसी के अन्तःकरण में क्या छिपा है, इसे कोई नहीं जानता। बाह्य अभिव्यक्ति के आधार पर ही एक व्यक्ति दूसरे की भावनाओं का अन्दाज लगाता है। बुराई चाहे कितनी भी छोटी क्यों न दिखाई देती हो-परन्तु यह न भूल जाना चाहिए कि उसके परिणाम बहुत गम्भीर भी हो जाते हैं। शराब पीना एक साधारण सी बात हुई, परन्तु नशा चढ़ने पर मारपीट सम्बन्धी झगड़ों का कितना बड़ा झंझट खड़ा हो जाता है।

बच्चे द्वारा पैसे चुराने की बात पर ध्यान न देने पर, बड़े होने पर, वही बालक बड़ी-बड़ी चोरियाँ करने लगता है मामूली-सी कब्ज बढ़कर छोटी-बड़ी बीमारियों का रूप धारण कर लेती है। छोटा-सा फोड़ा घाव बन जाता है। मनुष्य जीवन बहुत बहुमूल्य है। जीवन की घड़ियाँ गिनी-चुनी हैं। इसका सच्चा सदुपयोग आत्म-विकास है। अपने आपको बुराइयों से बचाकर गुणवान बनाने का कल्याणकारी मार्ग अपनाना चाहिए। अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन-भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।

महत्वाकाँक्षी व्यक्ति अपने लिए विशेष लाभ भले ही प्राप्त कर लेते हों, पर जन-समाज के लिए वे संकट रूप ही बने रहते हैं। वित्तेषणा, पुत्रेषणा और लोकेषणा की तृष्णा, वासना की अहंता से-क्षुब्ध हुए मनुष्य उन पागलों का रूप धारण कर लेते हैं जो न स्वयं चैन से रहते हैं और न दूसरों को चैन से रहने देते हैं। तृष्णा तो हर सफलता के बाद आग में घी डालने की तरह बढ़ती जाती है। इसलिए जिन्हें निरन्तर लालसाओं, कामनाओं की आग में झुलसना हो, उन्हीं को अपनी मनोभूमि में जीवित चिता सँजो लेनी चाहिए।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण सन्तोष का दृष्टिकोण है। उसमें हर व्यक्ति को धैर्य और औचित्य के साथ-साथ प्रगति करने की छूट है, पर जन-साधारण के माध्यमिक स्तर से ऊपर बढ़ने का निषेध है। हमें अपनी प्रगति के साथ दूसरे की प्रगति का भी ध्यान रखना चाहिए। महात्मा बुद्ध जब मरने लगे, तब उनसे पूछा गया कि क्या आपको मृत्यु के बाद स्वर्ग या मुक्ति की प्राप्ति होगी? तो उन्होंने हँसकर कहा-‘जब तक एक भी व्यक्ति संसार के बन्धन में बँधा हुआ है तब तक मैं अपने व्यक्तिगत सुख की आकाँक्षा की कामना नहीं कर सकता। मैं बार-बार जन्म लूँगा और मनुष्य तथा हर प्राणी को अपने स्तर का बनाने के लिए सृष्टि के अन्त तक प्रयत्न करता रहूँगा।’ यही है आध्यात्मिक साम्यवाद।

व्यक्ति को क्षमता और प्रतिभा ईश्वर ने इसी उद्देश्य से दी है कि अपने से पिछड़े हुए लोगों को कम से कम अपने स्तर तक ऊपर उठाने का प्रयत्न करें। भारतीय संस्कृति का भी यही आदर्श है कि मनुष्य अपनी भौतिक सुख-सुविधाएँ बढ़ाने की अपेक्षा, अपनी सामर्थ्यानुसार दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करें। जिसने दौलत! दौलत!! दौलत!! की रट लगा रखी हो और जो इसी गोरखधन्धे में मकड़ी के जाले की तरह दिन-रात उलझा हुआ ताना-बाना बुनने में लगा हुआ हो, उसे इतनी फुरसत नहीं मिलेगी, जो अपने से गिरे हुए व्यक्तियों को उठाने की बात सोचे और आदर्शवादी जीवनयापन करते हुए अपने को संयमी और सीमित रखकर दूसरों को सुखी और सन्तुष्ट बनाने के लिए कोई साहसी कदम उठा सके।

असन्तोष भी सराहनीय हो सकता है, पर वह होगा तभी जब उसका उपयोग जाति-कल्याण, साधना, संयम, सेवा, ज्ञान-बुद्धि और परमार्थ जैसी दैवी-सम्पदाओं को बढ़ाने के लिए हो। आसुरी सम्पदाएँ बढ़ाने का असंतोष तो जितना ही बढ़ेगा-उतनी ही अशान्ति उत्पन्न करेगा। संघर्षों की जड़ यही है। अधिकारों के लिए सभी जागरुक हैं-कर्त्तव्यों की किसी को चिन्ता नहीं। जिन्हें हर घड़ी तृष्णा सताती रहती है, वे उद्विग्न प्रेत, पिशाच की तरह इस मरघट से उस मरघट में भटकते रहते हैं। ये अभागे अपनी ही हीनता के मारे मर रहे हैं, अपनी ही अतृप्ति से दुःखी बने हुए हैं। भला इनके द्वारा किसी दूसरे का क्या हित-साधन हो सकता है?

थोड़ा त्याग करके बहुत यश लूटने की लिप्सा लोगों में देखी जाती है। अखबारों में नाम और फोटो छपाने के लोभ में कई लोग सत्कर्मों का बहाना करते रहते हैं। यश मिलने की शर्त पर ही थोड़ी उदारता दिखाने वाले लोग बहुत होते हैं। परन्तु दया, करुणा, त्याग और परमार्थ की भावनाओं को चरितार्थ करने की महत्वकाँक्षाएं ही सच्ची और श्रेयस्कर महत्वाकाँक्षाएँ कही जा सकती हैं। दैवी सम्पदाएँ, सत्प्रवृत्तियाँ ही वह आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं जिन्हें पाकर मनुष्य स्वयं भी आनन्द और सन्तोष लाभ करता है और अपने समीपवर्ती समाज के भी सुख-शान्ति का आनन्द देता है। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं के पागलपन ने दुनिया का अनर्थ ही किया है पाप और विनाश को ही बढ़ाया है, इन्हें त्यागा ही जाना चाहिए।

संसार में कोई किसी को उतना परेशान नहीं करता जितना कि मनुष्य के अपने दुर्गुण और दुर्भावनाएँ। सबसे दुर्गुणी व्यक्ति दुर्व्यसनी होता है। दुर्व्यसन मनुष्य के शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्यों का शत्रु होता है। शराब, जुआ, व्यभिचार ही नहीं बल्कि आलस्य, प्रमाद, पिशुनता आदि भी भयानक दुर्व्यसन ही हैं।

सद्गुणी व्यक्ति का सारा समाज आदर करता है। सहयोग, सौहार्द्र एवं सहानुभूति उसकी सम्पत्ति बन जाती है। वह सदैव स्वस्थ और सुखी रहता है।

मनुष्य कुसंस्कारों का गुलाम हो जाय, अपने स्वभाव में परिवर्तन न कर सके, यह बात ठीक नहीं जंचती। यह मनुष्य के संकल्प, बल और विचारों के दृष्टिकोण को समझकर कार्य करने पर निर्भर है। महर्षि वाल्मीकि, सन्त तुलसीदास, भिक्षु अंगुलिमाल, गणिका एवं अजामिल के प्रारम्भिक जीवन को देखकर आखिरी जीवन से तुलना करने तर यह स्पष्ट ही प्रतीत हो जाता है कि - दुर्गुण और पतित लोगों ने जब अपना दृष्टिकोण समझा और बदला तो वे क्या से क्या हो गये? चाहिए संकल्प बल की प्रबलता।

जब तक हम अपने गुण और दोष देखने में ईमानदार और सच्चा दृष्टिकोण नहीं अपनाते, संस्कार परिवर्तन में तभी तक परेशानी रहती है। मनुष्य आत्म-दुर्बल तभी तक रहता है, जब तक वह आत्म-विवेचन का सच्चा स्वरूप ग्रहण नहीं करता।

अतः जब कभी दुर्गुण और दुर्भाव उठें, उन्हें उस समय सत्कार्यों और सत्प्रवृत्तियों के मुकाबले तोलकर सद्कार्यों की ओर लग जाना चाहिए।

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