प्रातःकाल-ब्रह्म मुहूर्त का समय था। प्राची दिशा में भगवान भास्कर का अरुणिम प्रकाश अपनी रक्तिम आभा बिखेर रहा था और सर्वथा निर्जन एकान्त में शान्त बह रही सरिता के तट पर आकर रुक गये थे-वैवस्वत मनु। उनका नित्य का नियम था कि वे इसी समय सरिता तट पर आकर स्नान, ध्यान करते और संध्या, पूजन तथा सूर्यार्घ्यदान के बाद वापस लौट जाते।
ऋषि ने अपने वल्कल नदी तट पर रखे और शौचादि से निवृत्त होने के लिए नदी से कुछ दूर एकान्त वन में चले गये।
उस समय पक्षियों का कलरव भी गूँजने लगा था। जैसे भगवान आदित्य के साथ जाग कर वे भी उनका साहचर्य निभा रहे थे। आश्रम में रहने वाले विद्यार्थी भी अपनी शय्या छोड़कर दिनचर्या का आरम्भ करने की ओर प्रवृत्त हो रहे थे। तब तक वैवस्वत मनु स्नान, ध्यान से निवृत्त होकर संध्योपासना के लिए बैठ चुके थे।
आवश्यक उपचार पूरे कर उन्होंने गायत्री जप आरम्भ किया। प्रातःकाल के उदित रवि की भाँति अपनी अन्तरात्मा में विश्वात्मा की जलती ज्योति का ध्यान किया और उस ज्योति में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के समस्त कषाय-कल्मषों को जलते हुए देखा। गायत्री जप पूरा होते ही वे उठ खड़े हुए-सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के लिए।
कटि प्रदेश तक स्पर्श कर सके इतने गहरे पानी में प्रवेश किया और दोनों हाथों की अंजुलि में पानी भर कर पूर्व दिशा में उसे छोड़ा-मन्त्र पाठ करते हुए।
एक बार..... दो बार.....तीन बार इसी क्रिया को दोहराया। पर अन्तिम बार उन्होंने अपनी हथेली पर कोई जीव रेंगता हुआ अनुभव किया।
मनु ने शान्त चित्त से अर्घ्य दिया।
अर्घ्य देने के बाद उन्होंने अंजुलि में देखा। एक मीन शिशु हथेली पर रेंग रहा था। उनके मन में अचकचाहट होने लगी। वे उसे फेंके-फेंके इतने में ही मीन शिशु ने कहा-‘त्राहिमाम्-त्राहिमाम्।’
‘क्या बात है’-मनु ने पूछा।
आप मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार आप मुझे पुनः जल में छोड़ देंगे तो मीन मत्स्य मुझे अपना आहार बना लेंगे। कृपा कर मुझ पर दया कीजिए।
आर्त विनय सुनकर ऋषि हृदय में करुणा जाग उठी और वे तट पर रखे जल भरे कटोरे में रखकर उसे आश्रम ले आये। न जाने क्यों शरणार्थी बनकर रक्षा की भीख माँगने वाले उस मीन शिशु के प्रति ऋषि के हृदय में उसके प्रति प्यार उमड़ने लगा और वे नित्य उसका जल बदलने लगे।
कालान्तर में वह मीन शिशु बड़ा तो ऋषि ने मीन शिशु को कटोरे में से हटाकर कुण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। वह और बड़ा हुआ कुंड में उपलब्ध जल और उसमें मिलने वाले कीट तथा जीवाणु उसके लिए अपर्याप्त पड़ने लगे तो मनु ने मीन को स्थानान्तरित कर सरोवर में छोड़ दिया।
सरोवर में भी वे उसकी सुविधा-असुविधाओं का ध्यान रखते और न जाने क्यों सरोवर भी उसके लिए छोटा पड़ा तो महर्षि ने उसे फिर सागर में छोड़ दिया। जब वे उसे सागर में छोड़ कर आये तो मीन ने महर्षि के प्रति, कृतज्ञता व्यक्त की तथा ऋषि भी विस्मय विमुग्ध होकर अपने आश्रम लौटे।
कल्पान्त में जब प्रलय हुआ तो सारी सृष्टि जल मग्न हो गई। प्राणी भी अथाह जलराशि में डूबकर अपना प्राण विसर्जन करने लगे। मनु के आश्रम के चतुर्दिक् भी सागर लहरा रहा था। चूंकि आश्रम ऊंचाई पर था इसलिए पानी धीरे-धीरे चढ़ रहा था और ऋषि प्रफुल्ल चित्त से मरण की प्रतिज्ञा कर रहे थे। लेकिन तभी वह मीनवत्स जिसे ऋषि ने सागर में छोड़ा था और जो अब मत्स्य का रूप धारण कर चुका था, ऋषि के समीप आया और बोला-महाराज! आपने मेरी कभी रक्षा की है। इस संकट के समय में भी आपकी रक्षा के लिए आया हूँ। आइये और मेरी पीठ पर सवार होकर भविष्य में प्रभु का संकल्प पूरा करने के लिए अपना जीवन बचाइए।
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