वासना के ताप में विगलित व्यक्तित्व

August 1976

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कामुक और लम्पट व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की मूल भित्ति को ढहाते-जीवनी शक्ति का क्षरण तो करते ही हैं, समाज में भी उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाता। बहुत सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के चरित्र पर भी जब वासना का-लम्पटता का धुंआ उड़ता है तो वर्षों की मेहनत से अर्जित प्रतिष्ठा एक क्षण में गिर जाती है। अपने समाज की आज भी यह स्थिति है कि कामुकता और यौन उच्छृंखलता को आधुनिकता का अंग मानकर उसे मौखिक स्वीकृति भले ही दी जाती हो, पर इसकी वकालत करने वाले स्वयं अपनी मात, पत्नी, बहिन और पुत्री के सम्बन्ध में इस प्रकार के आक्षेप सहन नहीं करते। यौन-संयम या ब्रह्मचर्य जीवन के भव्य भवन की आधारशिला है तो यौन-शुचिता उस आधार भित्ति में लगा ईंट का एक पत्थर। पश्चिमी देशों में मुक्त यौनाचार को भले ही इतना अधिक हेय और निन्दनीय न माना जाता हो, पर परिवार के अस्तित्व का एक आधार अब भी इसे समझा जाता है। इस आधार के टूटने पर कितने ही दम्पत्तियों को तनाव, मन-मुटाव, कलह से लेकर विग्रह तक के दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। अब वहाँ भी तीव्रता से यौन संयम के साथ यौन शुचिता की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

पीढ़ियों के अन्तर और सभ्यता के विकास के साथ इस प्रकार की विकृतियां भले ही फैली हों, पर किसी समय में यौन सम्बन्धों की पवित्रता और संयम को सारी पृथ्वी पर परिवार की, दाम्पत्य सम्बन्धों की और स्वस्थ सन्तति की सम्भावना की रीढ़ इसे समझा जाता था तथा इनके उल्लंघन पर किसी को नहीं बख्शा जाता था। मिश्र की क्लियोपेट्रा की कहानी सर्वविदित है। जिसने अपने भाई को उन्मुक्त जीवन में बाधा मानकर मौत के घाट उतार दिया। भाई की हत्या करने से उसके सामने राज्य का दूसरा कोई प्रतिद्वन्द्वी उत्तराधिकारी तो नहीं बना, पर मिश्र के दरबारी, सामन्त और सरदारों ने एक स्त्री को शासन की बागडोर सौंपने का विरोध किया। उस समय क्लियोपेट्रा का कोई बस न चला और उसे सीरीया जाना पड़ा। वहाँ उसने अपनी सुन्दरता के बल पर कितने ही प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अपना समर्थक बनाया तथा उनके मातहतों की एक सेना बनाकर सिंहासन की लड़ाई लड़ी और बिना खून-खराबे के ही मिस्र की सत्ता हथिया ली। यहाँ तक कि दिग्विजयी रोमन सम्राट जूलिया सीजर को भी अपने रूप का दास बना लिया। पचास साल के वृद्ध सीजर और बीस वर्षीय क्लियोपेट्रा-दोनों की जोड़ी कही भी संगत नहीं थी। पर वासना और महत्वाकांक्षा की अन्धी दौड़-सीजर को भी लोकनिन्दा और जन रोष का शिकार होना पड़ा तथा क्लियोपेट्रा को तो सर्पदंश से आत्महत्या करनी पड़ी।

वर्षों तक क्लियोपेट्रा ने भले ही शासन किया हो, पर अन्त में मिस्र के सरदारों तथा वहाँ की जनता ने उसकी व्यभिचारी आदतों से रुष्ट होकर बगावत कर दी। साथ ही रोम का तत्कालीन सम्राट आक्टेवियस भी सेना लेकर चढ़ आया और क्लियोपेट्रा को बन्दी बनाकर अपने साथ ले गया। वहाँ बड़ी बुरी दशा में उसे आत्मघात करना पड़ा। अपने जीवन का दुखान्त समापन करने के बाद भी क्लियोपेट्रा को आज तक घृणा और निन्दा की दृष्टि से देखा जाता है।

फिलिस्तीन में अतिथि बनकर आयी इथोपिया की महारानी शीबा की कामवासना भड़काकर वहाँ के सम्राट सोलोमन ने क्षण भर की सन्तुष्टि भले ही प्राप्त कर ली हो, पर इसके लिए जीवन भर अपने सहयोगियों का रोष और विरोध सहना पड़ा। निस्सन्तान सोलोमन चाहता था कि शीबा के गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र उसका उत्तराधिकारी बने, लेकिन जब उसने उत्तराधिकारी की घोषणा की तो अपने ही सामन्तों और सरदारों से जो वक्त आने पर सम्राट के लिए जान तक लड़ाने को तैयार थे-बगावत करने की धमकी सुननी पड़ी। सोलोमन का अन्त उस भूल या उन्माद के कारण बड़ी ही दुःखद परिस्थितियों में हुआ।

यौन शुचिता के सम्बन्ध में लोक मर्यादाएं और आवश्यक नियमों का परिपालन न केवल प्रतिष्ठा बनाये रखने की दृष्टि से आवश्यक है, वरन् व्यक्तित्व को समर्थ और विकसित बनाने के लिए भी आवश्यक है। आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी कहा जा सकता है। इस मामले में ढीले और कमजोर व्यक्तियों को हर कहीं अप्रमाणिक और अविश्वसनीय माना जाता था। उन्हें कोई गम्भीर दायित्व नहीं सौंपे जाते, क्योंकि अस्थिरता उनके भाव का एक अंग बन जाती है। स्त्री हो या पुरुष अनियंत्रित यौन भावना जिनमें भी होगी वे अस्थिर स्वभाव के होंगे ही। जहाँ उन्हें आकर्षक और मोहक व्यक्तित्व दिखाई दिया, सौंपे गये कार्यों का दायित्व अनुभव करने के स्थान पर उनके चित्त में प्रतिपक्षी को प्राप्त करने और भोगने की इच्छा उठने लगेंगे। उसी के सम्बन्ध में उठी कल्पनाओं की लहरों में वे बहने लगेगी। पश्चिमी देशों में इस ओर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाता है। कर्तव्य निष्ठा और दायित्व भावना की परिपक्वता को सर्वप्रथम इसी कसौटी पर कसा जाने लगा है कि व्यक्ति मादक वातावरण और कामोद्दीपक बातों में कही उत्तेजित या अस्थिर तो नहीं हो जाता है। साथ ही औरों की इस कमजोरी से लाभ उठाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हाल ही का समाचार है किसी कम्पनी ने अपने उत्पादन की खपत के लिए सुन्दर प्रचारिकाओं को रखना आरम्भ किया और उसे इसमें सफलता भी मिली।

उच्छृंखल यौन भावना का अर्थ इतना भर ही नहीं है कि ऐसे वातावरण में रहकर या स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आते ही व्यक्ति अपनी वासना को पूरा कर ले। सुन्दर युवतियों के चित्र देखने से लेकर राह चलती लड़कियों या स्त्रियों को विशेष रूप से देखने के पीछे भी यही भाव रहता है। सिनेमा से लेकर नायिका प्रधान उपन्यास, रोमांटिक कथा, कहानियाँ या युवतियों के चित्रों के साथ प्रचारित विज्ञापनों पर नजरें गड़ाने का लगाव व्यक्ति की अनियन्त्रित वासना का परिचय देता है। मानस शास्त्री इन कृत्यों को भी मैथुन मानते हैं। हमारे देश में तो आठ प्रकार के मैथुनों में से सात इसी प्रकार के माने गये हैं।

कामोद्दीपक आचरणों या बातों में किसी भी प्रकार का रुझान या रुचि रखना यही सिद्ध करता है कि इसके चित्त में अस्थिरता है और जरा भी इस प्रकार का वातावरण मिलने पर व्यक्ति के विचलित होने, गिर जाने की सम्भावना है। अवसर की दुर्लभता से व्यक्ति का चरित्रवान बने रहना कोई बड़ी बात नहीं है। अन्यथा आन्तरिक दृष्टि से तो वह मानसिक व्यभिचार की ओर प्रवृत्त रहता है। मनोविज्ञान के साधारण जानकार भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि व्यक्ति की भावनाएं उसके शरीर, स्वास्थ्य और क्रियाशक्ति को कितना प्रभावित करते हैं। जब मनोभूमि ही दूषित होगी तो कार्य और प्रवृत्तियाँ स्वस्थ कहाँ रह पाती हैं ? इन विकृतियों का यत्किंचित् समाज व्यवस्था और व्यवसाय तन्त्र भी जिम्मेदार है, पर एक प्रकार से व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी मनुष्य की इस कमजोरी का लाभ उठाते हैं। विज्ञापनों में मॉडलिंग का व्यवसाय-इसी कमजोरी से लाभ उठाने का एक अंग है। सुन्दर लड़कियों और सजीले नव-युवकों के आकर्षक चित्रों के साथ साबुन, तेल से लेकर दवाओं तक के विज्ञापनों का यही उद्देश्य है। व्यक्ति का कामुक चित्त उन वस्तुओं की ओर नहीं उनके साथ छपे बनाये चित्रों की ओर ही आकृष्ट होता है और उस आकर्षण के साथ विज्ञापित वस्तुओं का परिचय प्राप्त करता है।

जो भी हो व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है उस सीमा तक जहाँ तक कि वह अपनी वासना-यौन भावना को अनियन्त्रित विस्तार देता है। आजकल तो इस विचारधारा का प्रचार कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा भी किया जाने लगा है कि मनुष्य को उन्मुक्त यौन जीवन की छूट मिलनी चाहिए। कहा जाता है कि इस प्रकार उसकी यौन कुण्ठाएं विसर्जित होंगी और वह अपना स्वस्थ विकास करने में समर्थ हो सकेगा। इस छूट के लिए न तो हमारे संस्कार अनुमति देते हैं और न ही नैतिकता। रति-क्रीड़ा को गोपनीय विषय माना जाता है साथ ही सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा, करने के लिए उसकी आवश्यक सीमित छूट दाम्पत्य जीवन में दी भी गई है। यौन शुचिता के आधार पर ही पति-पत्नी का प्रेम और विश्वास प्रगाढ़ बनता है। छुपकर किये जाने वाले अवांछनीय कुकर्म उस आधार को ही तोड़ देते हैं- तथा परिवार को एक सुदृढ़ संस्था न रहने देकर स्वार्थी सौदा बना देते हैं। कहना नहीं होगा इसका प्रभाव भावी सन्तानों पर भी पड़ता है। पश्चिम में बढ़ती अपराध प्रवृत्ति का मुख्य कारण औद्योगीकरण या व्यस्त तीव्र जीवन उतना नहीं है, जितना कि वहाँ के परिवारों की जर्जरावस्था। व्यावसायिक सन्धियों की भाँति स्थापित किये गये दाम्पत्य सम्बन्ध और उनसे जन्मी संतान अपने माता-पिता का प्रेम पाने के लिए बुरी तरह तरसती है और उसी प्रेम के अभाव में जन्म लेती है-उनमें अपराध प्रवृत्ति। जो पति-पत्नी आपस में ही स्वस्थ प्रेम भावना का विकास नहीं कर सके, जिनकी स्वयं की ही प्रेम पिपासा अतृप्त रही वे अपनी सन्तानों को क्या प्रेम दे सकेंगे। प्रेम की भूख और स्नेह की आकाँक्षा अधूरी और अतृप्त लिये घूमते बच्चे भावी जीवन में कुण्ठित विद्रोही नहीं बनेंगे तो क्या बनेंगे?

अपने देश में संस्कार और नैतिकता के स्थापित मूल्य प्रत्येक व्यक्ति के अन्तरंग में उच्छृंखल वासना को अवांछनीय अनुभव कराते हैं। चोरी छुपे यदि अनुचित सम्बन्ध बना भी लिए जायँ अथवा व्यक्ति मानसिक व्यभिचार में लिप्त रहे तो संस्कारगत जीवन मूल्यों को तोड़ने की एक अपराध भावना उनमें जन्म लेती है, जो उन्हें कभी भी स्थिर चित्त और एकाग्र नहीं होने देती। फलस्वरूप वे अपना कोई भी कार्य मनोयोगपूर्वक नहीं कर पाते। मनोयोग और एकाग्रता के अभाव में किये गये किसी भी कार्य की सफलता असंदिग्ध रहती है, मिलती भी है तो आधी अधूरी।

इन सबका परिणाम खंडित व्यक्तित्व के रूप में, निराश और हताश व्यक्ति के रूप में, चित्त की अस्थिरता और चंचलता के रूप में मिलता है। व्यक्तिगत दृष्टि से खंडित व्यक्तित्व और सामाजिक दृष्टि से अविश्वसनीयता तथा अप्रामाणिकता-यही तो मिलता है उद्वेलित वासना की उपलब्धि के तौर पर। अतः आवश्यक है कि जीवन में सफलता और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अपनी यौन भावना को नियन्त्रित किया जाय। यौन शक्ति का श्रेष्ठतम उपयोग तो उसे सृजनात्मक दिशा देना ही है। दीपक का तेल बाती से होता हुआ उसके सिरे पर पहुँच कर प्रकाश उत्पन्न करता है। यदि दीपक की पेंदी में छेद हो तेल की दिशा अधोमुखी हो तो न दिया जलेगा न तेल बचेगा। यौन शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाना प्रयत्न और अभ्यास साध्य है। कालिदास ने प्रयत्न और अभ्यास से इसे सिद्ध कर जड़ बुद्धि से महाकवि बनने में सफलता प्राप्त की । पत्नी को एक क्षण के लिए छोड़ने को तैयार नहीं-तुलसी ने जब यह दिशा पकड़ी तो वे कामुक और लम्पट पुरुष से रामचरित्र मानस जैसे ग्रन्थ के प्रणेता और सन्त महापुरुष बन गये। गृहस्थ होते हुए भी यौन भावना को परिमार्जित और सृजनात्मक दिशा दे कर बोलते समय काँपने वाले मोहनदास अपनी आवाज से करोड़ों लोगों में प्राण फूँकने वाले महात्मा गाँधी हो गए। यौन भावना को ऊर्ध्वमुखी बनाकर संसार में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करने वाली ज्ञात अज्ञात विभूतियों का विवरण इकट्ठा किया जाय तो उनकी संख्या हजारों में नहीं लाखों में हो सकती है। यदि इतना एकदम सम्भव न हो सके तो कम से कम उसे नियन्त्रित तो किया ही जा सकता है। सफलता का मतलब यश, कीर्ति ही नहीं है। उच्च गुणों से सुसज्जित आत्मबल, सम्पन्न, सुखी और सन्तुष्ट जीवन जिया जाय यही व्यक्तित्व की सफलता का राज है। अपनी शक्तियों को अनेक छिद्रों से न बहाकर उन्हें एकाग्र कर, शक्ति संचय कर जिस कार्य में भी जुटा जाय सफलता का राजमुकुट उसी क्षेत्र में प्रतीक्षा करते हुए मिलेगा। अन्यथा उद्धत कामुकता, लम्पटता और वासना की उष्णता समूचे व्यक्तित्व को ही गलाकर रख देती है, यह तो शत-प्रतिशत निश्चित दुष्परिणाम है।


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