कुकल्पनाओं के नरक से हम स्वयं ही उबरें।

August 1976

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डर उसे लगता है जो अँधेरे में भटकता है। अनिश्चितता और आशंका का सम्मिश्रित स्वरूप ही भय है। जहाँ सुनिश्चितता हो-स्पष्टता हो-वहाँ भय लगने का कोई कारण नहीं।

भय के कारण ही मनुष्य उद्विग्न रहता है। अमुक व्यक्ति या अमुक परिस्थिति अथवा अमुक सम्भावना हमारी अमुक प्रकार की हानि करेगी-इस आशंका को बढ़े-चढ़े रूप में देखने से हमें एक भयानक संकट सामने खड़ा दीखता है। मस्तिष्क की संरचना विचित्र है। वह अन्तरंग की मान्यताओं की पुष्टि करने में एक के बाद एक तर्क प्रस्तुत करता चला जाता है। पहले जो आशंका या सम्भावना की कल्पना मात्र थी वह पीछे मस्तिष्क की कसरत द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर इतने भयंकर रूप में गढ़ ली जाती है मानों वह यथार्थता ही हो। दूसरों की सामान्य गतिविधियाँ भी ऐसी लगती हैं मानों वे अपने अनर्थ के लिए जान-बूझकर की गई दुरभिसंधियाँ ही हों। कुकल्पनाएँ तिल को ताड़ बनाती चलती हैं और हमें विभीषिकाओं के ऐसे भयानक जंगल में ले जा कर अकेला छोड़ देती हैं जहाँ अनर्थ और संकट के भूत-पिशाच नृत्य कर रहे होते हैं।

कल्पना की- मान्यता की- शक्ति अद्भुत है। उसे निषेधात्मक दिशा में चलने दें तो फिर विपत्ति की घटाएँ ही इर्द-गिर्द घुमड़ती रहेंगी। भले ही वे कुकल्पनाएँ कभी भी साकार न बन सकें, पर डराते रहने के लिए तो उनका अवास्तविक अस्तित्व ही पर्याप्त है।

चिन्तन की दिशा मोड़ कर यदि मान्यताओं को शुभ सम्भावनाओं की दिशा में चलने के लिए प्रोत्साहित करें-विधेयात्मक चिन्तन का अभ्यास करें-तो प्रतीत होगा कि अपने लिए देवता लोग दिव्य वरदानों के उपहार लिए सामने खड़े हैं और आकाश से अब अपने ऊपर पुष्प वर्षा होने ही वाली है। उज्ज्वल भविष्य के प्रति यदि आशा और आस्था संजोई जाय तो मस्तिष्क उस सम्भावना के समर्थन में अनेकानेक तर्क कारण, उदाहरण प्रस्तुत करेगा और भावी घटनाक्रम का ऐसा सुनहरा चित्र उपस्थित करेगा मानों वह सब अगले ही दिनों मूर्तिमान होने जा रहा हो। इस सुखद पृष्ठभूमि के सहारे हमें सदा प्रमुदित रहने का अवसर मिलता रहेगा, भले ही वे सुखद कल्पनाएँ कभी भी वास्तविकता न बन सकें।

वस्तुतः घटनाएँ छोटी होती हैं और उनकी वास्तविक प्रक्रिया अत्यन्त तुच्छ और क्षणिक होती है। यह संसार ऐसे ही अपने ढर्रे पर चल रहा है। क्षति की पूर्ति दूसरे ही क्षण हो जाती है और हर चमक क्षणभर उपराँत भूतकाल के गर्त में विलीन हो जाती है। इसलिए कोई भी घटना न तो अपने वास्तविक रूप में अत्याधिक प्रभावशाली होती है और न कोई बहुत बड़ी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। संसार चक्र बड़ी सरलता से अपनी धुरी पर घूमता रहता है। यहाँ कोई भी बात महत्वपूर्ण नहीं। न किसी उपलब्धि का बहुत बड़ा लाभ है और न किसी क्षति के कारण कहीं किसी पर वज्रपात होता है। महत्व केवल कल्पनाओं का है। वे ही हमें बेतरह डराती हैं अथवा उन्हीं का चक्र हमारी मनोभूमि को सुखद सम्भावनाओं के सपने दिखाकर आनन्द विभोर रखे रहता है।

विवाह होने पर पत्नी कितनी मनोरम मिलेगी-उसके साथ गृहस्थ जीवन कितना सुखद बीतेगा यह कल्पना विवाह के प्रति उत्सुकता और आकांक्षा में चमक उत्पन्न करेगी। जब तक विवाह न होगा मन बहुत ही उल्लसित रहेगा, पर विवाह होने के कुछ दिन उपरान्त ही प्रतीत होने लगेगा कि सामान्य रूप से एक ढर्रा चल पड़ा। सुनहरी कल्पनाएँ अपने लोक को चली गईं। हर किसी का गृहस्थ ऐसे ही एक ढर्रा बन कर रह जाता है। किन्तु यदि वे पति-पत्नी भविष्य में अधिक सुखद स्थिति की कल्पना गढ़ने लगें तो फिर नये सिरे से आनन्द की एक लहर मन में उठने लगेगी। पुत्र उत्पन्न होगा यह सुनहरी सपना जितना आकर्षक होता है उससे हजारवाँ भाग भी पुत्र प्राप्ति का परिणाम सुखद नहीं होता। बेटा इतनी समस्याएँ साथ लेकर आता है कि पूर्व कल्पना सर्वथा निरर्थक प्रतीत होती है। इतने पर भी यदि नये सिरे से यह सोचने लगें कि बड़ा होने पर यह हमारी अमुक प्रकार सेवा सहायता करेगा तो भरण-पोषण की कष्ट साध्य प्रक्रिया के रहते हुए भी शिशु पालन फिर एक सुखद क्रिया-कलाप बन जायेगा।

इन्द्रियाँ लिप्सा का अधिकाँश आनन्द उसकी पूर्व कल्पना तक सीमित रहता है। अमुक दिन अमुक दावत में अमुक प्रकार के व्यंजन मिलेंगे उनका कल्पित स्वाद जितना मधुर होता है उतना उन व्यंजनों के सामने आने पर नहीं रहता। रहता भी है तो वह कुछ ही क्षणों में भूख शान्त होने पर पूरी तरह समाप्त हो जाता है। यहाँ तक कि आग्रह करने पर भी यही बात है। रमणी की स्वप्निल कल्पनाएँ ही उत्तेजना प्रदान करती हैं, रमण की कल्पना ही उद्विग्न करती हैं। यौनकर्म तो कुछ ही क्षणों में निस्सार और थकान भरा अनुभव होने लगता है।

एम॰ ए॰ की डिग्री जब तक नहीं मिली है उन सपनों की तुलना यदि डिग्री को शीशे में मढ़कर कमरे में टाँग देने की मनःस्थिति के साथ करें तो प्रतीत होगा कि एक गहरा नशा उतर गया और कुछ ऐसा अद्भुत परिणाम सामने नहीं आया जैसा कि शिक्षण अवधि में वर्षों तक सोचते रहा गया था।

चुनाव जीतने के बाद प्रतीत होता है कि लोक सम्मान के आकाश में उड़ने की रंगीनी बेकार थी। एम॰ एल॰ ए॰ बन जाने और मामूली अध्यापक का पद पा जाने में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं था। लोग अपने काम में व्यस्त हैं, अपनी समस्याओं में उलझे हैं, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ है कि किसी के चुनाव जीतने पर उसे आकाश में उड़ने वाला देवता मानने और उसके गुण गाते रहने में ही लगे रहें। जीत का समाचार छपने के कुछ ही समय बाद सब कुछ विस्मृत हो जाता है और विजेता ऊँची गरदन करके चलता तो है, पर देखता है उसकी इस विजय में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं है। जीत का सम्मान एक कल्पना मात्र था। काम निकालने के लिए तो लोग पत्थर के पास भी जाते हैं। छोटे चपरासी की भी खुशामद करते हैं, चुनाव जीते व्यक्ति के पास भी जा टकरायें तो उसमें क्या बड़ी बात हो गई?

विवाह-शादियों में अनाप-शनाप पैसा खर्च करने वाले सोचते हैं कि हमारी धाक जमेगी और शान बढ़ेगी, पर वस्तुस्थिति यह है कि इस बेकार की बदतमीज़ी को गौर से देखने तक के लिए किसी का मन नहीं होता। चापलूस लोग तो मुँह देखकर किसी की भी बढ़ाई कर सकते हैं। इसी प्रकार सजधज बनाने वाले-ठाट-बाट रोपने वाले अपनी कष्ट उपार्जित कमाई को न जाने क्या-क्या सोचकर बेकार की चीजों में खर्च करते हैं, पर पीछे जब वे बारीकी से देखते हैं तो पता चलता है कि दर्शकों को इसमें तनिक भी रुचि नहीं है। कौतूहलवश रास्ता चलते कोई ऐसे ही तनिक आँखें उठा कर देख ले तो बात दूसरी है।

यह विधेयात्मक विचारों की बात हुई, निषेधात्मक विचारों के आधार पर गढ़ी गई कुकल्पनाओं की भयंकरता भी वस्तुतः अवास्तविक ही होती है। यदि आशंकित दुर्घटना घट भी जाय तो भी उससे कोई पहाड़ नहीं टूटता। परिवर्तन के समय कुछ अड़चन तो जरूर पड़ती है, पर कुछ ही समय बाद दूसरी स्थिति उसका स्थान ग्रहण कर लेती है और क्षति-पूर्ति का नया रास्ता निकल आता है। पिता के मर जाने पर सारा बोझ अपने कन्धे पर आ जायेगा और वह सँभाल न सकेगा-ऐसी कल्पना करके डरते रहने वाले पिता के मरने पर देखते हैं कि वैसी कोई आपत्ति खड़ी नहीं हुई। थोड़ी अड़चन के बाद ढर्रा नये ढंग से चलने लगा। पति-पत्नी, पुत्र, भाई आदि के मरने की बात सोचते ही कलेजा काँपता था और लगता था कि इस क्षति को सहन न किया जा सकेगा किन्तु उनके मरने के बाद भी कोई वज्रपात नहीं होता। थोड़ी हलचल और उथल-पुथल के बाद गाड़ी दूसरी पटरी पर चलती रहती है और उस अभाव को सहन करने अथवा दूसरे ढंग से उस पूरा करने को रास्ता निकल आता है।

प्रचलित मान्यता यह है कि पति-पत्नी के बीच दाम्पत्य प्रेम में किसी तीसरे को सम्मिलित नहीं होना चाहिए अन्यथा प्रेम बँट जायेगा और अनर्थ उपस्थित होगा। किन्तु उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले में जौनसार बाबर इलाके में बहु-पति प्रथा का प्रचलन बहुत ही शान्ति पूर्वक चलता है। बड़े भाई का विवाह होता है, शेष सभी भाई उसी पत्नी का हिल-मिल कर उपभोग करते हैं। इसमें न स्त्री को आपत्ति होती है न पति को। परिवार न बंटने देने, संयुक्त कुटुम्ब बना रहने और अर्थव्यवस्था सही रहने की दृष्टि से वे लोग इस प्रचलन की गर्व पूर्वक उपयोगिता सिद्ध करते हैं। ठीक इसी तरह अफ्रीकी स्त्रियाँ अपने पतियों पर दबाव डालती हैं कि कई अन्य पत्नियाँ और लाई जायँ ताकि परिवार का काम मिलजुल कर अच्छी तरह चले और अर्थव्यवस्था सुधरे। जो पति वैसा नहीं कर पाते उन्हें छोड़ कर वे स्त्रियाँ उनके यहाँ चली जाती हैं जिनके यहाँ पहले से ही कई पत्नियाँ रह रही होती हैं। अकेलेपन की अपेक्षा वे इस तरह निर्वाह को कहीं अधिक सुविधाजनक मानती हैं।

यह सब कल्पनाओं को मोड़ने भर का खेल है। भविष्य की आशंका एवं सुखद संभावना का विचार करते हुए सुख और दुःख में अपना जीवन बीतता है। वास्तविकता तो नगण्य ही होती है और उसकी प्रतिक्रिया इतनी स्वल्प होती है जिसे तुच्छ अथवा उपेक्षणीय कहा जा सके। दूसरों को शत्रु मानते रहने की अपेक्षा यह कहीं अधिक लाभदायक है कि उन्हें मित्र मान कर चलें। भले ही इसमें कुछ हानि ही क्यों न उठानी पड़े।

निर्धन लोगों की कल्पना में धनी बनने की स्थिति बहुत सुखद होती है और वे इसके लिए बहुत प्रयत्न करते हैं, किन्तु जो धनी हैं वे इस स्थिति के साथ जुड़ी हुई समस्याओं में न उलझ कर अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य खो बैठते हैं। इतना ही नहीं साधु जीवन की महत्ता मन में जम जाय तो सारे सुविधा साधन छोड़कर अभावग्रस्त तपस्वी जीवन क्रम अपनाने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं। सन्तान के न होने पर दुःखी रहने वाले लोगों की कमी नहीं और ऐसे भी बहुत हैं जो सन्तान के दुर्व्यवहार से खिन्न होकर आत्महत्या तक कर बैठते हैं। सुख क्या है? दुःख क्या है ? इसका माप-दंड यही है कि हमारी कल्पना यदि सुखद सम्भावनाओं को साथ लेकर चलती रहे तो मनुष्य हर स्थिति में सुखी रहेगी और यदि उसकी कल्पनाएँ और आशंकाएँ दुर्घटनाओं के भयानक चित्र गढ़ने में लगी रहें तो उसके लिए हर घड़ी दुःखी बने रहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है।

सुख साधनों को बाहर तलाश करना भी उचित है और सुविधाजनक वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना भी आवश्यक है। पुरुषार्थ की सार्थकता के लिए प्रगतिशील होना चाहिए और इसलिए अधिक साधनों का उपार्जन करना चाहिए। किन्तु यह भूलना नहीं चाहिए कि सुख साधन कितनी ही बड़ी मात्रा में सम्पादित क्यों न कर लिए जाएं यदि चिन्तन की धारा निषेधात्मक रहेगी तो उसकी गढ़ी हुई विभीषिकाएँ हमें हर घड़ी नरक में डुबोये रहेंगी। व्यक्ति डरावने लगेंगे और आशंकाएँ शूल भौंकने जैसे कष्ट प्रदान करती रहेंगी। इस नरक से और कोई हमें बचा नहीं सकता क्योंकि यह अपने द्वारा ही विनिर्मित किया गया है। यदि चाहें तो हम स्वयं ही इस स्थिति से उबर सकते हैं और सामने खुले पड़े स्वर्ग द्वार में प्रवेश कर सकते हैं।

सुखद कल्पनाएँ, सुसम्भावनाएँ, उज्ज्वल भविष्य की रेखाएँ जोड़कर सुखद भविष्य का सुनहरा चित्र गढ़ा जा सकता है और मात्र उन आस्थाओं के आधार पर अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी प्रसन्न, प्रमुदित रहते हुए जिया जा सकता है। कुकल्पनाओं की भयंकरता भी कहाँ शत-प्रतिशत सही उतरती है। उन आशंकाओं में से अधिकाँश निर्मूल ही सिद्ध होती हैं। यदि सुकल्पनाएँ मूर्तिमान न हो सके, वे आकाश कुसुम बनकर ही रह जायँ तो भी लाभ उन्हीं के सँजोये रहने में है। जब चिन्तन की दिशा ही मानव जीवन की अनुभूतियों का आधार है तो फिर अँधेरे में भटकाने वाले चित्र गढ़ने की अपेक्षा उज्ज्वल आलोक का आह्वान करने के लिए ही अपने आपको तैयार क्यों न करें?

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