भोजन तो ठीक प्रकार से करें।

August 1976

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कुछ वर्षों पूर्व ही रूस के एक विख्यात मनोवैज्ञानिक पावलाव ने जानवरों के भोजन पर कुछ प्रयोग किये और बड़े आश्चर्यजनक परिणामों पर पहुँचे। उन्होंने कुछ बिल्लियों पर प्रयोग किया। बिल्ली को भोजन दिया गया और वैज्ञानिक यन्त्रों द्वारा यह जानने की कोशिश की गयी कि भोजन करते समय तथा उसके बाद वह आहार कैसे पाचन संस्थान में पहुँचा और उस पर शरीर की क्या प्रतिक्रिया हुई। जैसे ही बिल्ली के पेट में भोजन पहुँचा पाचन संस्थान ने पचाने वाले रस छोड़े, तभी एक कुत्ते को भी उस कमरे में लाया गया। बिल्ली, कुत्ते को देखकर डर गयी और वह खाना छोड़कर अपनी जीवन रक्षा के लिए इधर-उधर ताकने लगी। फिर कुत्ते को बाहर निकाल दिया गया। बिल्ली भोजन तो करने लगी थी परन्तु उसके पाचन तन्त्र से जो एन्जाइम्स छूटने लगे थे वे बंद हो गये। यन्त्रों द्वारा पता चला कि कुत्ते के अन्दर आते ही पेट ने रस छोड़ना बन्द करा दिया था और यह स्थिति छह घण्टे बाद तक बनी रही थी। यह इसलिए हुआ कि कुत्ते के आते ही बिल्ली चिन्ता और भय में पड़ गयी थी तथा चिन्ता और भय के मनोवेगों का प्रभाव उसके पेट पर हुआ और पेट ने पाचक रस मिलाना बन्द कर दिया।

पावलाव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन दाहकारी मनोवेगों का कुप्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य और जीवन पर भी बड़ा बुरा पड़ता है। उसे यह जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जब बिल्ली पर यह गुजरती है तो फिर मनुष्य पर क्या होता होगा जो चौबीसों घण्टों चिन्ता, भय, क्लेश, ईर्ष्या, द्वेष और उतावली में डूबा रहता है। शरीर व्यवस्था का थोड़ा बहुत अन्तर भले ही हो परन्तु मनःस्थिति का भोजन पर अवश्य प्रभाव पड़ता है।

यह बात उस स्थिति के अनुभवों से स्वयं ही सिद्ध होती है जब मनुष्य भोजन करते समय बहुत ही चिन्ताकुल तथा दुखी हो। इन मनोभावों की प्रबलता में मनुष्य का जी ही नहीं होता भोजन करने का। मनोभावों की प्रबल दशा में शरीर की माँग ही नहीं होती कि वह भोजन करे। लेकिन थोड़े बहुत अन्तर से चौबीसों घण्टे यही बात रहती है कि हम जो भोजन करते हैं और जिस मनःस्थिति में रहते हुए करते हैं वह मनःस्थिति किये गये भोजन को पचाने में बाधक ही बनती है सहायक नहीं।

लम्बे समय से चली आ रही मनुष्य की स्थिति ने शायद पाचन व्यवस्था पर भार डाल दिया हो लेकिन यह बिल्कुल भी सम्भव नहीं है कि वह भोजन समुचित रूप से पच जाता हो। यही कारण है कि मनुष्य बार-बार बीमार पड़ता है और उसे बार-बार डॉक्टरों की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि भोजन जो एक प्रार्थनापूर्ण प्रक्रिया है। प्रभु का प्रसाद समझ कर ग्रहण किया गया आहार है। वह यदि गलत ढंग से लिया जा रहा है तो अपना वाँछनीय प्रभाव नहीं उत्पन्न कर सकता और परिणाम में लाभदायक होने की अपेक्षा हानिकारक ही ज्यादा सिद्ध होगा। दुनिया के लगभग सभी चिकित्सकों का यह मत कि बीमारियों का कारण गलत ढंग से किया गया भोजन ही है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में मनीषियों ने इसी कारण बड़ा युक्तिपूर्ण नियम बनाया है कि- भोजन प्रसन्नतापूर्वक आनन्दित होकर, धीरे-धीरे भगवान का प्रसाद मानकर ही किया जाना चाहिए। यह एक ऐसी क्रिया है जिसे करते समय मनःस्थिति जितनी ही अधिक आनन्दपूर्ण और उल्लासपूर्ण होगी उतनी ही हितकर होगी। पर अधिकाँश मनुष्य तो हिंसक भोजन ही करते हैं। प्रख्यात दार्शनिक हार्नोव का कहना है कि-हिंसक भोज का एकमात्र अर्थ माँसाहारी भोजन करना नहीं है, हिंसक भोजन यह भी है कि कोई आदमी स्थिति में भोजन कर रहा है जबकि उसकी भावना भोजन के लिए तैयार नहीं है। वह क्रोध में है, चिन्ता में है और ईर्ष्या में है तो वह माँसाहार से भी ज्यादा हिंसक है। जब किसी और प्राणी का माँस लेकर भोजन किया जाता है तब वह तो हिंसक भोजन है ही, लेकिन जब चिन्ता और दुःख में उसका अपना ही माँस अन्दर जलता है तब वह जो भोजन कर रहा है वह और भी अधिक हिंसा है।

भोजन के सम्बन्ध में एक और आश्चर्यजनक बात एक प्रख्यात डॉक्टर केनेथवार ने कही है-‘‘लोग जो भोजन करते हैं उसमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजन से डॉक्टरों की जेबें भरती हैं अगर वे आधा भोजन ही करें तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे और न ही उन्हें कभी डाक्टरों के पास जाने की जरूरत पड़ेगी। पढ़ने, सुनने में यह बात आश्चर्य भरी है परन्तु है बिल्कुल सच। निरीक्षणात्मक दृष्टिकोण से यदि हम अपने द्वारा ग्रहण किये जाने वाले आहार के सम्बन्ध में सोचें तो आसानी से यह पता चल जायेगा कि जो भोजन हम कर रहे हैं और जितनी मात्रा में कर रहे हैं तथा जिस प्रकार का कर रहे हैं-वह हमारे स्वास्थ्य के लिए हितकारी कम और हानिकारक ही ज्यादा सिद्ध होगा।

यद्यपि कुछ लोग भोजन न मिलने से मरते हैं तो उनसे अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो अतिभोजन के कारण मरते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति बिना भोजन किये तीन माह तक आसानी से जीवन चला सकता है। भारतीय तपस्वियों और योगियों ने तो आत्म-प्रयोगों द्वारा इस क्षेत्र में मनुष्य शरीर की सामर्थ्य और क्षमता को और भी अधिक उच्च सिद्ध किया है, परन्तु एक साधारण व्यक्ति विज्ञान की दृष्टि से तीन माह तक बिना किसी बाधा के बिना भोजन किये स्वस्थ और निरोग रह सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति तीन माह तक नियमित रूप से अति भोजन करे तो किसी भी स्थिति में जीवित न बचेगा। सौभाग्य से यदि जिन्दा रह भी जाय तो मृत व्यक्ति की तरह ही रहेगा।

अति भोजन के साथ-साथ एक और दोष है हमारी आहार पद्धति में। हम जो भोजन करते हैं शरीर की आवश्यकता को दृष्टिगत रख कर नहीं करते। थाली में सजे विभिन्न पकवान, तीखे, चरपरे, खट्टे, मीठे, तेज जले-भुने खाद्य पदार्थ शरीर को स्वस्थ रखने की अपेक्षा हमें रुग्ण और बीमार ही बनाते हैं। हमारी भोजन की थाली में आधे से अधिक पदार्थ जहरीले होते हैं। हम जानते भी हैं कि इन पदार्थों का उपयोग शरीर व्यवस्था में किसी भी प्रकार सहायक नहीं है फिर भी उनका प्रयोग करते चलते हैं-महज स्वाद के कारण। महज स्वाद के कारण किया गया भोजन, उसके गुण-दोष को बिना ध्यान में रख कर किया गया भोजन मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए किसी भी प्रकार हितकारक नहीं हो सकता, वह जहर का ही काम करेगा और जहर भी ऐसा जो व्यक्ति के शरीर में धीरे-धीरे रमता है और बहुत दिनों बाद अपना घातक कुप्रभाव बताता है। बन्दूक की गोली या जहर की शीशी कुछ क्षणों में थोड़े से समय में ही जीवन का अन्त कर देती है। परन्तु स्वेच्छा से ग्रहण किया गया इस प्रकार का विष व्यक्ति की घुट-घुट कर हत्या करता है। उसे तड़पा-तड़पा कर मारता है। भोजन की यह दूषित प्रक्रिया मनुष्य शरीर को खोखला और कमजोर ही बनाती है। इस प्रक्रिया का एकदम विपरीत परिणाम होता है। भोजन जब कि स्वास्थ्य और शक्ति के लिए ही किया जाता है, रोग और बीमारी लाने लगे तो जीवन कैसे बच सकेगा। इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है।

अतएव भोजन के सम्बन्ध में इन दो तीन मोटी-मोटी, साधारण किन्तु अति महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखा जाय तो शरीर और जीवन के लिए आहार का प्रयोजन भली-भाँति पूरा हो सकता है। कुछ ही समय तक इन आवश्यक बातों का ध्यान रखने से अनुभव किया जा सकता है कि हमारी वर्तमान भोजन प्रणाली कितनी दोषयुक्त और अस्वास्थ्यकारी है। पाश्चात्य देशों में इस दिशा में जो खोजें की गयी हैं, वे भी भारतीय धर्म दर्शन के भोजन सम्बन्धी सिद्धान्तों की ही पुष्टि और समर्थन करती हैं।

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