नष्टोः कान्या गति

August 1976

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विक्रमी सम्वत् के प्रवर्त्तक महाराजा विक्रमादित्य की राजसभा लगी हुई थी। उन्होंने अपने राज्य भर में वाममार्गी साधनाओं और आचारों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।उस दिन सभा में किसी आसुरी प्रवृत्ति के तान्त्रिक उपासक ने सभा में प्रवेश किया। लोगों की धारणा इस प्रकार बनी हुई थी कि नैतिक और सात्विक उपायों को छोड़कर शक्ति सम्वर्धन के लिए अन्य प्रयास करने वाले लोग राक्षस होते हैं। आगन्तुक की वेशभूषा भी कुछ इसी प्रकार की थी। उसने आते ही राजा का अभिवादन किया और अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहा-राजन मुझे एक विशेष साधना के लिए नर बलि की आवश्यकता है और मैं इसके लिए आपकी अनुमति प्राप्त करने आया हूँ।

सभासदों सहित सम्राट भी आश्चर्य में पड़ गये। अब तक किसी भी व्यक्ति ने इस प्रकार का आग्रह नहीं किया था। वामाचारी लोगों का जिस प्रकार दमन किया था उसी से लोगों में उन साधनाओं के प्रति-मद्य, माँस, मीन, मैथुन आदि उपचारों के प्रति भय से ही सही इतनी विरक्ति व्याप गई थी कि कोई उनका नाम तक नहीं लेता था और यह साधक तो उन प्रतिबन्धों के सृष्टा अधिष्ठाता के सामने खड़ा होकर ही कितने निःशंक भाव से अनुनय कर रहा था। सम्राट ने तुरन्त उत्तर दिया-‘‘किसी भी दशा में मैं नर बलि की अनुमति नहीं दे सकता ?”

मैं निवेदन ही नहीं जिज्ञासा लेकर भी आया हूँ, महाराज! आपने मेरा निवेदन तो अस्वीकार कर दिया-जिसकी पहले ही सम्भावना थी, पर यह आशा तो है- ‘कि आप जिज्ञासा अवश्य शान्त करेंगे आगन्तुक ने कहा।

‘कहो’- विक्रम की अनुमति थी।

और अभ्यार्थी बोला-मैंने शास्त्रों और विद्वानों से पढ़ा तथा सुना है कि दुष्कर्म और पाप व्यक्ति का पतन करते हैं तथा वह ‘नष्ट’ हो जाता है। पर उस नष्ट होने वाले की क्या गति होती है-यह मेरा प्रश्न है। ‘नष्टो कान्याः गति?” कृपा कर इसका समाधान कीजिए।

विक्रमादित्य ने कालीदास की ओर देखा तथा कालीदास ने कहना शुरू किया-‘जब मैं गुरुकुल में पढ़ता था तब एक ब्राह्मण ने उसे दुत्कारते हुए कहा- ”तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम इतने हृष्ट-पुष्ट ब्राह्मण होते हुए भी प्रातः पूजन के समय भीख माँग रहे हो।’’

‘मैं जुआ खेलता हूँ’ मित्र और ‘रात जुआ खेलने में अपना सब कुछ हार बैठा, इसलिए इस समय भीख के लिए निकलना पड़ा।’ ब्राह्मण बोला।

‘‘छिः छिः! ब्राह्मण और जुआ। तब तो लज्जा की बात है।”

‘जी मैं जुआ खेलते-खेलते मदिरा पान भी करने लगा।’

‘हे भगवान ! तुम्हारा इतना पतन।’

‘मदिरा पान से वासना वृत्ति जागी और मैं ‘वेश्यावृत्ति’ भी करने लगा।’

‘जी हाँ! जुआ, मदिरापान और वेश्यावृत्ति से धन की आवश्यकता पड़ी। इतना धन मेरे पास था नहीं अतः मुझे चोरी भी करनी पड़ी।’

इतना कहकर वह ब्राह्मण चला गया। कुछ देर बाद आश्रम में गुरुदेव लौटे। उस समय सभी ऋषिकुमारों में उस विचित्र भिखारी की ही चर्चा थी। गुरुदेव ने न जाने कब उसका उदाहरण देते हुए कहा-’जो एकबार हीन प्रवृत्ति के मार्ग पर चला, उसे उस प्रवृत्ति के सन्ताप से मुक्त होने के लिए अनेकों बार कुमार्ग पर चलना पड़ता है, और कालीदास ने कहा- ‘यही है नष्ट हुए पुरुष की गति।’

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