वाक्-कौशल व्यवहार कुशलता का प्राथमिक चरण

August 1976

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समर्थ गुरु रामदास ने कहा-‘‘संसार भर में हमारे मित्र मौजूद हैं और सारे संसार में शत्रु भी। परन्तु उन्हें प्राप्त करने की कुंजी जिह्वा के कपाट में बन्द पड़ी है।’’ इस कथन का यही अर्थ है कि व्यक्ति का परिचय, संपर्क और प्रभाव क्षेत्र उसकी वाक्पटुता पर निर्भर है। जो लोग वार्तालाप में कुशल होते हैं वे हर जगह अपने मित्र खोज लेते हैं, अनजान लोगों को प्रथम मुलाकात में ही अपना बना लेते हैं और अपना प्रयोजन पूरा कर लेते हैं। महान कार्यों और बड़े उद्देश्यों के संसार क्षेत्र में उतरने वाले ईसा और बुद्ध से गाँधी और विवेकानन्द तक केवल इसी शक्ति के सहारे अपने अभियान में सफल हुए हैं। महान कार्यों के लिए ही नहीं बातचीत करने में चतुर और चालाक ठग जालसाज लोग भी अनजान, अपरिचितों से सम्पर्क साधकर उनके हृदय में अपना स्थान बनाकर अपना मतलब सिद्ध कर लेते हैं और चलते बनते हैं। हालाँकि उनकी करतूतें, औचित्य और न्याय की दृष्टि से अवाँछनीय तथा अपराधपूर्ण ही हैं। पर इतना तो मानना ही होगा कि वे अपनी इसी क्षमता का उपयोग कर इसमें सफल हो जाते हैं।

व्यावसायिक क्षेत्रों में भी जीभ की कमाई खाने वाले लोगों का एक स्वतन्त्र वर्ग है। वक्ता, गायक, प्रचारक से लेकर औद्योगिक व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के अभिकर्त्ता और प्रतिनिधि तक अपनी वाक्चातुरी के बल पर जिन व्यक्तियों से सम्पर्क साधते हैं उनसे अपनी बात मनवा लेते हैं। इस वर्ग में वाणी ही एक ऐसा साधन है जिसके बल पर नये से नया व्यक्ति बिना कोई अतिरिक्त पूँजी लगाये अपने व्यवसाय में सफल हो जाता है। व्यापारियों और दुकानदारों के यहाँ ऐसा प्रायः देखने में आता है कि ग्राहक उनके पास किसी वस्तु का नमूना देखने और भाव जानने के लिए जाता है और माल खरीदकर ही लौटता है।

जब वाक्-कौशल के बल पर व्यापारिक और व्यावसायिक क्षेत्र में सफल हो जाते हैं तो क्या कारण है कि कोई व्यक्ति ऐसी शिकायत करे कि मेरी बात कोई मानता ही नहीं, मेरा कोई मित्र नहीं, जिससे बात करता हूँ वही मेरा शत्रु बन जाता है। इस शिकायत का अधिकाँश कारण व्यक्ति का बातचीत करने का ढंग है। वह जिससे भी बात करता है कहीं न कहीं ऐसी भूल कर जाता है जो श्रोता के अन्तःकरण को चोट कर जाती है और वह उसके प्रति कोई अच्छी धारणा नहीं कर पाता।

मित्र बनाने में ही नहीं, कर्मक्षेत्र में सफल होने तथा अन्य व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का व्यवहार-कुशल होना आवश्यक है और व्यवहार-कुशलता का प्राथमिक सोपान है व्यक्ति का वार्तालाप में कुशल होना। इस सम्बन्ध में विख्यात विचारक स्वेट मार्डेन ने कहा है-‘‘यदि आप अपनी बात साफ ढंग से नपे-तुले शब्दों में तथा सधी-बंधी आवाज में व्यक्त करके सुनने वाले को प्रभावित कर सकते हैं तो समझ लीजिए कि आपके पास एक ऐसा हथियार है जिससे सफलता आपकी चरणदासी बन सकती है।’’

श्रेष्ठ वाक्पटु होना, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना तथा उनसे सहयोग प्राप्त करने के लिए अपनी बात-चीत में प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करना एक उपलब्धि है, जो इन्हीं प्रयोजनों के लिए अर्जित और विकसित की गई, अन्य उपलब्धियों से कहीं श्रेष्ठ है। वाक्चातुर्य के गुण से सम्पन्न, अपने सम्भाषण द्वारा सम्पर्क में आये जनों को प्रभावित करने वाली वाक्शक्ति से सम्पन्न वे व्यक्ति जो अपने मन्तव्य को रुचिकर ढंग से सामने वाले के सम्मुख स्पष्ट कर सकें-उन व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक सहयोग प्राप्त कर सकते हैं जो इन गुणों से रहित हों।

लेकिन देखा जाता है कि अधिकाँश व्यक्ति जिनमें पढ़े-लिखें और सुशिक्षित व्यक्ति भी हैं वह अपनी वाणी में प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते जो कि एक अनपढ़ किन्तु चुस्त व्यक्ति कर लेता है। इस कारण उन्हें प्रायः सफलताओं के लिए भी ठोकरें खानी पड़ती हैं और अपने वांछित लक्ष्य की तुलना में आत्यन्तिक न्यून सफलता मिलती है। मानते हैं कि शिक्षा, योग्यता, प्रतिभा और ज्ञान का अपना महत्व और अपना स्थान है, पर व्यक्ति को व्यवहार क्षेत्र में सफल होने के लिए वाक्पटुता के अभाव में ये विशेषताएँ भी लूली-लँगड़ी सिद्ध होंगी। क्योंकि जिन व्यक्तियों को अपनी इस विशिष्टता से परिचित कराना है उनसे परिचय का माध्यम तो बातचीत ही है न और यह भी सच है कि इन गुणों से रहित व्यक्ति जो सम्भाषण को थोड़ा भी प्रभावशाली बना लेते हैं, उन्हीं क्षेत्रों में जिनमें कि उपरोक्त जन-कार्य करना चाहते हैं उनसे आगे निकल जाते हैं।

यहाँ कहने का आशय यह नहीं हैं कि सफलता की सारी सम्भावना केवल वाक्चातुरी पर ही निर्भर है। लेकिन कहा यह जा रहा है कि शिक्षा, योग्यता और प्रतिभा के साथ-साथ व्यक्ति का व्यवहार-कुशल होना भी आवश्यक है और व्यवहार-कुशलता के लिए वाक्पटुता अनिवार्यतः प्रथम है। वाक्पटुता क्यों आवश्यक है इसके लिए एक विद्वान की यह उक्ति उल्लेखनीय है-‘‘आप भले ही अच्छे गायक हों लेकिन हो सकता है कि आपको सारे संसार की यात्रा कर लेने के बाद भी अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर न मिले। आप कहीं भी जायँ किसी भी समाज में रहें, जीवन और प्रतिभा के क्षेत्र में आपकी स्थिति कितनी भी अच्छी क्यों न रहे, फिर भी आपको अपनी कला के प्रदर्शन का अवसर बातचीत के द्वारा ही प्राप्त करना पड़ेगा।’’

वास्तव में हमारी उपलब्धियों और विशेषताओं की संख्या चाहे कितनी भी क्यों न हो लेकिन तब तक हम अपनी विभूतियों का परिचय किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं दे सकते जब तक कि हमें भली-भाँति बातचीत करने की कला न आती हो। वस्तुतः बातचीत एक कला है अन्यथा बातें तो गूँगे-बहरों को छोड़कर सभी कोई करता और सुनता है। लेकिन कौन किसका किस प्रकार का प्रभाव ग्रहण करता है ? इसका आकलन किया जाय तो यही ज्ञात होगा कि कई लोगों की बातें ऊबा देने वाली या दूसरों का मन खट्टा कर देने वाली अथवा हृदय को चोट पहुँचाने वाली होती हैं। कई व्यक्तियों की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि उसकी बात का न सिर है न पैर। न तो वह अपने शब्दों का प्रयोग समझ-बूझकर करता है जिससे कि श्रोता प्रभावित हो सके और न ही वह यह जानकर बातें करता है कि किस अवसर पर कैसी बात करना है ? क्योंकि उसे इस सम्बन्ध में कोई ज्ञान ही नहीं है, फलतः उसकी बातें बोरियत लाने वाली और अप्रासंगिक ही हो जाती हैं।

संभाषण में कुछ व्यक्ति इतने सतर्क और सावधान रहते हैं कि उन्हें सब कुछ ज्ञान रहता है। किस अवसर पर कैसी बात करनी चाहिए ? सामने वाला हमारी बातों में रुचि ले रहा है अथवा बोर हो रहा है? भाषा में कहीं उथले, दिखावटी और जबरदस्ती ठूँसी गई वाक्यावली तो नहीं आ रही है ? ऐसी ही अन्य आवश्यक बातों का ध्यान रखकर जो लोग बातें करते हैं उनकी बातें प्रभावोत्पादक हो जाती हैं।

वाक्चातुर्य न तो किताबें पढ़ने से आता है और न किसी के उपदेश सुनकर। अन्तरंग विषय होने से उसकी प्राप्ति स्वविवेक से ही होती है। फिर भी कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनके आधार पर स्वविवेक को जागृत किया जा सकता है और अनुभव द्वारा वाक्पटुता अर्जित की जा सकती है। वाक्पटुता के लिए बेझिझक होकर बात करना, सोच-समझकर अपना पक्ष सन्तुलित ढंग से सामने वाले व्यक्ति के समक्ष रखना, भाषा में मधुरता, शालीनता और सौहार्द्रता का समावेश करना, वाक्यों और शब्दों का सही उच्चारण करना, अपनी बात संक्षिप्त और अर्थपूर्ण बनाना, दूसरों की बात भी उसी ध्यान से सुनना जैसी कि हम अपेक्षा रखते हैं दूसरे ध्यान से हमारी बात सुनें, उनकी रुचि का ध्यान रखना आदि कुछ ऐसी सावधानियाँ हैं जिनका समावेश हम अपने वार्तालाप में कर सकें तो व्यवहार-कुशलता प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो जाते हैं।

वार्तालाप में जिन बातों का सर्वाधिक ध्यान रखना आवश्यक है-उनमें प्रथम है हमारी भाषा शिष्ट, मृदु और रोचक हो। शिष्ट भाषा का अर्थ है कि व्यक्ति ऐसे शब्दों का प्रयोग न करे जो अभद्र, गन्दे और भद्दे हों। उदाहरण के लिए कई व्यक्तियों की आदत रहती है कि वे एक बात में बार-बार अपशब्दों का प्रयोग करते हैं।

यह आदत उनके स्वभाव का अंग-सी बन जाती है। अनेक लोग जान-बूझकर अश्लील वाक्यों का भी प्रयोग कर जाते हैं। ऐसा करते हुए वे ये भले ही मानें कि जिनसे हम बात कर रहे हैं वह हँसेगा और माना कि श्रोता हँस भी ले। परन्तु इससे बातचीत में छिछलापन आ जाता है। अपशब्दों और अश्लील वाक्यों के अधिक प्रयोग से वार्तालाप के विषय की स्वाभाविक गम्भीरता समाप्त हो जाती है और उस विषय में छेड़ी गई चर्चा का अपेक्षित परिणाम नहीं होता। ‘शिष्टाचार’ और ‘सभ्याचरण’ का तकाजा तो यह है कि हँसी-मजाक भी अशालीन और अपभाषा में न की जाय। क्योंकि धीरे-धीरे यही प्रयोग आदत और स्वभाव बन जाते हैं। ऐसे लोगों की संगति न तो अच्छी कही जाती है और न उन्हें सभ्य समाज में अच्छी दृष्टि से देखा जाता है।

कदाचित यह आदत वाक्चातुर्य प्राप्त करने वाले नये अभ्यासियों को लग गई हो तो उन्हें तुरन्त इस पर नियन्त्रण और परिष्कार करना चाहिए। इस नियन्त्रण में दूसरा सूत्र महत्वपूर्ण सहायता देता है, जो सामान्य और इस आदत से मुक्त लोगों के लिए भी आवश्यक है। वह सूत्र है-सोच समझकर बोलना। जिन अवसरों पर हमें चुप रहना चाहिए, गम्भीर होना चाहिए अथवा अपनी बात नहीं छेड़ना चाहिए उन अवसरों पर इन मर्यादाओं का उल्लंघन हमें हास्यास्पद, निन्हा और ‘अपनी ही गाने वाले’ की हीन संज्ञा से युक्त बना देता है। प्रायः कई व्यक्तियों को जिस विषय में उनकी जानकारी नहीं होती, उस विषय पर भी बातूनी आदत से लाचार होकर बोलते रहते देखा जाता है। ऐसा प्रायः अपनी अल्पज्ञता को छुपाकर स्वयं को सर्वज्ञ सिद्ध करने के अहंकार से ही होता है। सुनने वालों में से भले ही कोई हमारे मिथ्यात्व को न पकड़ पाये, परन्तु जाने-अनजाने ऐसी बात निकल ही जाती है जिससे हमारी अज्ञानता व्यक्त होती है और विचारशील श्रोता उसे पकड़ लेते हैं। ऐसी स्थिति में कभी सच बात भी कही जाय तो कलई खुल जाने के बाद लोग हमें गप्पी ही समझने लगते हैं।

जीवन में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जिनका तकाजा रहता है कि गम्भीर रहा जाय। जैसे कोई शोकाकुल हो या किसी का कोई सम्बन्धी मर गया हो। उसके पास शोक सम्वेदना व्यक्त करने के लिए जाते समय गम्भीरता एक आवश्यकता है और कोई व्यक्ति यदि अपनी खुशमिजाजी जताने के लिए अप्रासंगिक चर्चा छेड़ देते हैं तो उन्हें निन्दा ही मिलेगी। ऐसा ही अवसर वार्तालाप के समय भी आता है। जब दूसरा भागीदार अपनी बात कह रहा हो तो पहले भागीदार के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी हो जाता है कि वह पहले उसकी बात को ध्यानपूर्वक सुने और उसमें रुचि ले। इसके विपरीत बीच-बीच में अपनी गाने वालों को बातूनी और अपनी ही ढपली बजाते रहने वाला कहा जायगा। बाद में उससे वह व्यक्ति बात करने के लिए भी उत्सुक नहीं दिखाई देगा।

वाक्चातुर्य के लिए तीसरा प्रमुख सूत्र है-दूसरों की रुचि का ध्यान रखना। सम्पर्क में आने वाले सभी लोग एक-सी रुचि के नहीं होते। सबकी रुचियाँ भिन्न-भिन्न रहती हैं। कोई कला का शौकीन है तो कोई संगीत का, किसी को सामाजिक समस्याओं पर चर्चा अच्छी लगती है तो कोई अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर बातचीत करना पसन्द करता है। खाली समय में जब वाक्साधना की जा रही हो तब प्रति-पक्षी की रुचि का ध्यान आवश्यक है। जहाँ तक हो सके अपनी जानकारी के अनुसार उसी विषय की बात की जाय और उन विषयों में कोई जानकारी न हो तो धैर्यपूर्वक प्रश्न पूछकर अपना ज्ञान बढ़ाना भी एक अच्छा तरीका है। इससे एक अच्छे श्रोता बनने और ज्ञान का क्षेत्र व्यापक होने का दोहरा लाभ मिलेगा।

रुचि के सम्बन्ध में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि सामने वाला व्यक्ति हमारी बातों में रस ले रहा है या नहीं। यदि नहीं तो विषयान्तर कर देना ही ठीक है। बात-चीत को समाप्त ही करना हो अथवा सामने वाला अरुचि रखता हो तो सम्भव है वह किसी जल्दी में हो और यह भी अनुभव कर रहा हो तो वार्तालाप को सौहार्द्रतापूर्वक पूरा कर लिया जाय।

बातचीत के समय अपनी बात संक्षिप्त में या अवसर के अनुसार विस्तार करने के लिए भी सामयिक सूझ का ध्यान रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके अपनी बात को संक्षिप्त और अर्थपूर्ण बनाएँ। इससे गलतियाँ होने की सम्भावना भी अधिक नहीं रहती और वार्तालाप की अर्थवत्ता भी बनी रहती है। कुशल बातचीत के लिए बातूनी होना आवश्यक नहीं है। वस्तुतः तो वाक्चातुरी और अधिक बोलने में कोई सम्बन्ध ही नहीं है। ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। वाक्चातुर्य जहाँ गुण है, वहीं वाचालता की गणना दोषों में की जाती है। अतः वाक्पटुता हासिल करने के लिए यह भ्रम मन से निकाल देना चाहिए कि वाक्पटु को बोलते रहना चाहिए।

पांचवीं और अन्तिम बात जो वाक्पटुता के लिए प्रधानतः आवश्यक है कि जिससे बात की जा रही हो उसके हृदय में सद्भाव, आत्मीयता को जागृत करना और कथनी द्वारा ही नहीं करनी द्वारा भी स्वयं को उसके अन्तःकरण में एक शुभ चिन्तक के रूप में प्रतिष्ठित करना। इसके लिए उसके व्यक्तित्व, परिवार और आर्थिक सामाजिक स्थिति को जानने का प्रयास किया जा सकता है। स्पष्ट है कि जब किसी से उसके निज के सम्बन्ध में, पत्नी और बच्चों के सम्बन्ध में उनके स्वास्थ्य, कुशलता और वर्तमान सुख-दुःखों के सम्बन्ध में प्रश्न किये जायँ तो वह खुलेगा ही और जब कोई व्यक्ति अपनी समस्याएँ कहने लगे तो एक मित्र की भाँति उचित परामर्श देना चाहिए। उचित परामर्श के लिए भावना जगत में स्वयं को उस स्थिति में होने का अभ्यास नब्बे प्रतिशत सही निष्कर्ष पर पहुँचने का मार्ग है। यदि उसके विचार अपने से कुछ अलग हों तो ही दस प्रतिशत उक्त उद्देश्य की पूर्ति में असफलता की सम्भावना है अन्यथा शत-प्रतिशत हम उसे अपना अन्तरंग मित्र बना लेंगे और उस पर अपना प्रभाव जमा लेंगे।

समाज में रहते हुए किसी भी व्यक्ति को किसी भी कार्य के लिए दूसरों का सहयोग और सम्पर्क अनिवार्य हो जाता है। कहना न होगा कि इसके अर्जन का प्रथम उपाय वार्तालाप है और जो व्यक्ति कुशल बातचीत करने वाला हो वह कभी निराश नहीं होता। आत्म-विकास के विषय में पाठकों का मार्ग-दर्शन करते हुए एक लेखक ने तो यहाँ तक लिखा है-‘‘क्या आप निर्धन हैं, निराश हैं? क्या आप समझते हैं कि जीवन में प्रगति का कोई अवसर आपको नहीं मिल सका? क्या आपकी महत्वाकाँक्षाएँ पूरी नहीं हुई? आप चिन्ता मत कीजिए। एक अच्छे बात-चीत करने वाले बन जाइये। बस आपके सपने शीघ्र ही पूरे हो जायेंगे।’’


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