धर्म धारणा को व्यापक बनाने का नया प्रयास

August 1976

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स्पष्ट है कि जीवन का बहिरंग पक्ष भौतिक साधनों के सहारे सुविधा सम्पन्न बनता है, पर उसका एक पहलू अन्तरंग भी है। आस्थाओं से अभिरुचि उत्पन्न होती है और अभिरुचि के आधार पर बुद्धि तथा क्रिया शक्ति अपना-अपना काम करती हैं। संक्षेप में व्यक्तित्व और चरित्र का सारा ढाँचा अन्तःकरण के स्तर पर खड़ा होता है। यह स्तर भौतिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है। सम्पन्नता होते हुए भी मनुष्य आन्तरिक निकृष्टता के रहते स्वयं दुःख भोगते तथा दूसरों को दुःखी करते रहते हैं। इसके विपरीत गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता होने पर स्वल्प साधनों में सुखी रह सकना तथा आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर अपने समय तथा क्षेत्र को शालीनता की दिशा में अग्रसर कर सकना संभव हो सकता है। वस्तुतः किसी समाज या राष्ट्र की वास्तविक शक्ति और समृद्धि उसके नागरिकों के आन्तरिक स्तर पर निर्भर रहती है। चरित्रनिष्ठ, एवं पुरुषार्थी व्यक्ति स्वल्प साधनों में भी अपनी प्रखरता सिद्ध करते हैं, इसके विपरीत सम्पन्नता के रहते हुए भी व्यक्तित्व की निकृष्टता पग-पग पर उलझनों और संकटों के घटाटोप खड़े करती रहती है।

धर्म-तन्त्र की राज-तंत्र से तुलना की जाय तो एक को प्रखर व्यक्तित्व का और दूसरे को भौतिक सुसम्पन्नता का प्रतीक मानकर चलना होगा। ऐसी दशा में स्थूल दृष्टि से जितनी महत्ता राजतन्त्र को दी जायेगी उससे कम नहीं वरन् अधिक ही गरिमा सूक्ष्म दृष्टि के आधार पर धर्म-तन्त्र को देनी होगी। विवाद में न पड़ा जाय तो दोनों को एक समर्थ गाड़ी के दो पहिये और परस्पर पूरक एवं अविच्छिन्न कहा जा सकता है। ऐसी दशा में धर्म प्रयोजनों को भी उतना ही महत्व मिलना चाहिए जितना भौतिक प्रगति के साधनों को। अन्तःकरण की उत्कृष्टता ही व्यक्तियों की प्रखरता का प्रधान आधार और जन-मानस का परिष्कार ही राष्ट्रीय सामर्थ्य की पृष्ठभूमि स्वीकार करते ही बनता है।

दूरदर्शी महामनीषियों ने धर्म का माहात्म्य इसी आधार पर प्रतिपादित किया है। शास्त्रों और आप्त वचनों में धर्म की गरिमा उच्चस्तर से गाई गई है। धर्मात्मा को श्रेयाधिकारी और अधर्मी को हर दृष्टि से हेय ठहराया गया है। यहाँ धर्म का तात्पर्य अन्तःकरण से उत्कृष्टतावादी रुझान उत्पन्न करने वाली आस्थाओं से है। वस्तुतः इसे मानव जीवन की सर्व प्रमुख और सर्व प्रधान आवश्यकता ठहराया जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

धर्म तत्व एक है। उसे सार्वभौम एवं सर्वजनीन कहा जा सकता है। देश, काल और पात्र की आवश्यकताओं को देखते हुए मूर्धन्य महामनीषियों ने उसकी विधा और प्रक्रिया का ढांचा खड़ा कर दिया है। परिस्थितियों के अनुरूप यह भिन्नता आवश्यक समझी गई और उसकी पूर्ति की गई। सम्प्रदायों के माध्यम से धर्म धारणाओं का प्रशिक्षण होने की प्रक्रिया का यदि तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो वे बाहरी दृष्टि से कितनी ही बातों में परस्पर विरोध लगते हैं और उनके शास्त्रों, कथाओं, कर्मकाण्डों एवं प्रचलनों में भारी अन्तर प्रतीत होता है। इतने पर भी उन मूलभूत उद्देश्य और आदर्शों में समग्र एकता विद्यमान है। भिन्न-भिन्न रंग के चश्मे पहन कर सूर्य भी अनेक रंगों का दृष्टिगोचर हो सकता है किन्तु इसमें उसके मूल स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

पिछले दिनों धर्म के आवरण को सम्प्रदायों के रूप में देखने और उसी को सब कुछ मान बैठने की भूल होती रही है। धोती और पजामा पहनने वालों ने परस्पर एक दूसरे को शत्रु मान और अपने-अपने परिधान के प्रति इतनी कट्टरता बरती कि दूसरे को शत्रु मानने तथा दण्डित करने में भी कोताही नहीं की। इतिहास के पृष्ठों पर धर्म विग्रह के नाम पर बरती गई नृशंसता के अनेकों कलंकित पृष्ठ जुड़े हुए हैं। अभी भी यत्र-तत्र इसी आधार पर विग्रह और मनोमालिन्य के उत्पात उत्पन्न होते और जन-समाज को आतंकित करते देखे जाते हैं। साम्प्रदायिक उपद्रवों की घटनाएँ इस बुद्धिवादी युग में भी आये दिन खड़ी रहें तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि धर्म के झिलके कहे जा सकने योग्य सम्प्रदायों के पीछे कट्टरता और विभेद की जड़ें कितनी गहरी चली गई हैं। आश्चर्य यह है कि धर्म की आत्मा जिसका एकमात्र स्वरूप मानवी एकता और आदर्शवादिता को उभारना भर है किस प्रकार अपने मूल लक्ष्य से भटक गई और किस प्रकार उस पर अवाँछनीय भ्रान्तियों ने अपना अधिकार कर लिया।

विचारशील वर्ग का काम है कि मानवी एकता और शालीनता का महत्व समझे और अन्तःकरणों में आदर्शवादी आस्थाएँ जागृत करने के प्रधान साधन धर्म तत्व को उसके मूल स्वरूप में जीवन्त रखने के लिए अपनी तत्परता प्रदर्शित करे। भौतिक प्रगति की तरह ही-आत्मिक प्रखरता को आवश्यक माना जाय तो राज-तन्त्र के समतुल्य ही धर्म-तन्त्र को भी महत्व देना होगा। राज-तन्त्र को सुव्यवस्थित रखने में जितनी जन-शक्ति और धन-शक्ति लगती है, उतनी ही धर्म-तन्त्र में भी नियोजित होनी चाहिए। राज-तन्त्र को स्वच्छ और समर्थ बनाने के लिए जिस प्रकार राजनैतिक पार्टियों में प्रतिद्वन्द्विता रहती है, उसी प्रकार धर्म-तन्त्र की उत्कृष्टता अक्षुण्ण रखने तथा उत्पन्न होने वाली विकृतियों का निराकरण करने वाले प्रयत्न भी अनवरत चलते रहने चाहिए। आवश्यक नहीं कि इसमें प्रतिद्वन्द्विता खड़ी की जाय और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाय। यह पोषण और संशोधन कुशल बागवान की तरह पूर्ण सद्भावना के साथ किया जाता रह सकता है। इससे भी अच्छा है कि हर सम्प्रदाय अपने वर्ग में पाई जाने वाली विकृतियों का निराकरण करने का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करे और उसकी श्रेष्ठताओं को उभारने तथा प्रशंसित करने की जिम्मेदारी अन्य सम्प्रदाय के लोग स्वयं उठायें। धर्म को स्वच्छ रखने का यही तरीका है। अपने वर्ग की अवाँछनीयताओं का भी दुराग्रह पूर्वक समर्थन करते रहा जाय और दूसरों की अच्छाइयों को भी उल्टी दृष्टि से देखा जाय तो फिर उससे विग्रह ही खड़े होंगे। ऐसी दशा में धर्म की सृजनात्मक शक्ति नष्ट हो जायेगी। और उसे ध्वंसक तत्वों की संज्ञा देकर ‘अफीम की गोली’ अथवा और कोई हेय नाम दिये जाने से रोका न जा सकेगा। आत्म-समीक्षा और परगुण ग्राहकता की नीति ही सदा से सराहनीय रही है। साम्प्रदायिक सद्भाव बनाये रहने की दृष्टि से भी उसी का अपनाया जाना उचित है। समय आ गया कि साम्प्रदायिक वैमनस्कों का विरोध अथवा विरोधाभासों का अन्त किया जाय और साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाकर धर्म तत्व की उस आत्मा को जीवित रखा जाय जिसके लिए कि इतना विशालकाय ढाँचा खड़ा किया गया और उसके सिंचन परिपोषण में मनुष्य समाज की असीम सामर्थ्य का नियोजन हुआ है।

राज-तन्त्र और धर्म-तन्त्र की तुलनात्मक चर्चा इन पंक्तियों में बार-बार इस दृष्टि से की जा रही है कि राज-तन्त्र की उपलब्धियों को समझाने की तरह धर्म-तन्त्र की प्रखरता से उत्पन्न उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को भी समझा जाय। भारत का प्राचीन गौरव इस बात का साक्षी है कि धर्म के प्रति आस्थाएँ परिपक्व करने से किस प्रकार कोई समाज सर्वतोमुखी उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। आज इस दिशा में बढ़ती जाने वाली उपेक्षा एवं अनास्था का समाधान होना आवश्यक है।

धर्म क्षेत्र में विकृतियाँ भर जाने से खिन्न प्रबुद्ध वर्ग की अवज्ञा के रहते हुए भी अभी भी भारतीय जनसमाज में उस दिशा में कितना उत्साह है, इसे थोड़े से पर्यवेक्षण से सहज ही समझा जा सकता है। अपने देश में 60 लाख के करीब भिक्षा व्यवसायी हैं इनमें एक तिहाई अपंगता के कारण और दो तिहाई धर्म सेवा के नाम पर जनता से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। लोग खुशी-खुशी यह अर्थ भार वहन करते हैं । इतनी बड़ी जन-शक्ति का समय क्षेप और निर्वाह चलते देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि धर्म श्रद्धा अभी भी कितनी प्रौढ़ है। तीर्थयात्राओं, पर्व, स्नानों, देवालयों, धर्म-कृत्यों, उत्सव, आयोजनों पर खर्च होने वाला खर्च लगभग उतना ही जा पहुँचता है जितना सरकार को राजस्व से प्राप्त होता है। सरकार दबावपूर्वक अनेक कर्मचारियों की सहायता से टैक्स वसूल करती है जबकि धर्म प्रयोजनों में खर्च होने वाली उतनी ही राशि स्वेच्छापूर्वक ही श्रद्धापूर्वक भी समर्पित की जाती रहती है।

मन्दिर, घाट, धर्मशाला, स्मारक आदि प्राचीन एवं अर्वाचीन धर्म भवनों की इमारतों का मूल्याँकन किया जाय तो प्रतीत होगा कि सरकारी इमारतों में लगे हुए धन से वे किसी भी प्रकार कम नहीं बैठतीं। धर्म चर्चा, तीर्थयात्रा, पर्वोत्सव एवं पूजा-पाठ में लगने वाले जन-साधारण के समय का यदि लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि थोड़ा-थोड़ा करके भी वह समय इतना हो जाता है जितना कि देश के समस्त अध्यापकों का सम्मिलित श्रम। तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर धर्म-तन्त्र की क्षमता राज-तन्त्र के समकक्ष ही जा पहुँचती है।

यों संसार के अधिकाँश देशों की-विशेषतया भारत की जनता छोटे देहातों में रहती है। शिक्षा की दृष्टि से उसका पिछड़ापन स्पष्ट है। भारत की जनगणना की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि देश की प्रायः तीन चौथाई जनता अशिक्षित है एवं छोटे देहातों में निवास करती है। वस्तुतः यही देश का बहुमत है और इसी को असली भारत कहा जा सकता है। इस वर्ग की मनोभूमि का दार्शनिक पूर्व परिचय मात्र धर्मचर्चा से ही संबद्ध है। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त वे धर्म कथाओं एवं प्रथाओं के आधार पर ही अपनी आस्थाओं की स्थिति बनाये हुए हैं। राजनीति, समाज-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, नीतिशास्त्र, विचार विज्ञान आदि से उनका सम्पर्क अत्यन्त स्वल्प है। प्रगति के लिए इस वर्ग को अनेकों स्तर के प्रशिक्षण देने की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जाती है। पर यहाँ कठिनाई यह आती है कि व्यक्ति की पूर्व मनोभूमि के बिना किसी विषय को आरम्भ से ही सिखा सकना कठिन है। ‘असली भारत’ को प्रगतिशीलता की दिशा में प्रशिक्षित करने के लिए यही अधिक उपयुक्त रहेगा कि उसकी पूर्व परिचित धर्म पृष्ठभूमि के सहारे वह सब कुछ सिखाया-बताया जाय जो सामयिक समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है। गाँधी जी की पैनी दृष्टि इस तथ्य से भली-भाँति अवगत थी। उन्होंने सत्य, अहिंसा, प्रार्थना, साधू वेष, रामराज्य, गौरक्षा, व्रत पालन आदि धार्मिक आधार अपनाकर भारतीय जन-मानस में स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रति दुहरी आस्था उत्पन्न की। राष्ट्रीय गौरव एवं उत्कर्ष की बात ने स्वराज्य के पक्ष में जितना वातावरण बनाया उतना ही योगदान धर्म प्रवृत्ति में भी उपलब्ध हुआ और सत्याग्रह अपनी चरम सीमा पर पहुँचने तथा सफल होने का श्रेय प्राप्त कर सका। वह तथ्य अभी भी ज्यों का त्यों है। स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् सर्वतोमुखी प्रगति के लिए जिस लोक-शिक्षण की आवश्यकता है उसका सम्बन्ध धार्मिक पृष्ठभूमि से जोड़ा जा सके तो प्रतीत होगा कि अभीष्ट की सिद्धि में कितना आश्चर्यजनक योगदान मिलता है।

ऊपर की पंक्तियों में विचारशील वर्ग का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया है कि धर्म-तन्त्र की क्षमता एवं सम्भावना कितनी बढ़ी-चढ़ी है। उपेक्षणीय धर्म तत्व नहीं, वरन् वह सम्प्रदायवाद है जो कलेवर की कट्टरता पर उलझ कर रह जाता है और अहंवादी संकीर्णता अपनाकर वैमनस्य के विष बीज बोता है। जन-मानस में सम्प्रदाय को ही धर्म की आत्मा को मानवी एकता एवं आदर्शवादिता के रूप को सर्व साधारण की जानकारी में उतारा जाना चाहिए। प्रथा प्रचलनों की भिन्नता को लेकर जो वितंडावाद खड़े होते हैं उन्हें कटुता एवं खण्डन से नहीं इस आधार पर समझाया जाना चाहिए उनका आरम्भ किन परिस्थितियों में किस प्रकार किया गया था और पीछे सामयिक विकृतियों का समावेश होते चलने के कारण कैसा विचित्र रूप बन गया ? इसमें कटुता एवं भर्त्सना के लिए भी गुंजाइश नहीं रहेगी और सुधार, संशोधन का प्रयोजन भी पूरा होता चलेगा। आज की स्थिति में इस प्रकार के कदम उठाये जाने नितान्त आवश्यक हैं।

अब वह विचार छोड़ ही दिया जाना चाहिए कि अन्य धर्म संप्रदायों को मिटाकर अपने धर्म को सार्वभौमिक बनाया जा सकता है। इस दिशा में चिरकाल से प्रयोग होते रहे हैं और असफलता ही हस्तगत हुई है। तलवार के जोर से विधर्मियों को अपने मत का बनाने के प्रयास में रक्त की नदियाँ बहाकर देख ली गई हैं। यूरोप की और भारत की भूमि को इस प्रयोग में रोमांचकारी रक्त स्नान करना पड़ा है। धरती के अन्य भागों में भी इस प्रकार की नृशंसताएँ कम नहीं बरती गई हैं। इतने पर भी अपना धर्म ही सब पर लाद देने में नगण्य-सी सफलता मिली उसकी तुलना में धर्म श्रद्धा के स्थान पर घृणा का वातावरण ही बन गया। इसके बाद लोभ देकर तथा प्रचार का बवंडर खड़ा करके भी स्वधर्म दीक्षा के पक्ष में लाभदायक वातावरण बनाने का नया दौर चला, पर उससे भी कुछ बात बनती दिखाई नहीं पड़ती। शुद्धि और तवलीग आन्दोलनों का प्रकारान्तर से उसी परीक्षण को अन्य प्रकार की हलचलों के सहारे अपने पक्ष में लाभदायक बनाने का था, पर उससे भी कुछ बना नहीं। सब धर्मों को मिलाकर एक नया धर्म बनाने के प्रयोग भी इन शताब्दियों में दर्जनों उत्साही मनीषियों ने किये हैं। सर्वधर्म समन्वय का नारा पुराना है और उसके लिए किये गये प्रयत्नों का इतिहास भी लम्बा है। यह प्रयोग भी एक प्रकार से असफल ही कहा जाय तो इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है।

तथ्यों पर अधिक गम्भीरतापूर्वक ध्यान देने से यही उपयुक्त लगता है कि विभिन्न धर्मों को यथास्थान अवस्थित रहने दिया जाय, किन्तु उनकी दिशा धारा एक केन्द्र पर केन्द्रित कर दी जाय। सभी नदियाँ समुद्र में जा मिलती हैं उसी प्रकार सभी धर्मों को मानवी आदर्शों की पृष्ठभूमि बनाने में संलग्न रहना चाहिए और अन्त में इस लक्ष्य पर पहुंचना चाहिए कि वे नर-पशु को नर-देव बनाने वाली शालीनता को जन-मानस में प्रतिष्ठापित करने में योगदान देते हुए अपनी सार्थकता सिद्ध करेंगे। लक्ष्य एक रहने पर उनकी भिन्नताएँ एक ही उद्यान में उगे हुए विभिन्न रंग और गन्ध वाले पुष्पों की तरह शोभा की अभिवृद्धि ही करेंगे। संकट तो तब उत्पन्न होता है जब वे विग्रह और विद्वेष का बीज बोते हैं-अवाँछनीय मान्यताओं का पोषण करते हैं और निहित स्वार्थों को प्रश्रय देते हैं। यह विकृतियाँ हट जायं तो धार्मिकता के आदर्श मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रहने और सुविकसित करने में सहायक सिद्ध होने के कारण इस विश्व की सर्वोपरि उपयोगिता का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। समय की माँग है कि धर्म तत्व की भर्त्सना करने के स्थान पर उसकी मूलभूत उपयोगिता को विकसित करने में विचारशील वर्ग द्वारा नये सिरे से प्रयत्न किया जाय।

विगत 27 वर्षों से यह प्रयोग हिन्दू-धर्म की प्रयोगशाला में युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत होता रहा है। धर्म-तन्त्र से लोकशिक्षण की सुनियोजित रूपरेखा विनिर्मित हुई और उसके अन्तर्गत शास्त्र-वचनों, कथा-प्रसंगों, कर्मकाण्डों और प्रथा-प्रचलनों के चारों चरण इस प्रकार सँजोये गये कि उसे गम्भीरतापूर्वक देखने वाला यही कह सकता है कि ‘हिन्दू-धर्म’ मानव धर्म है। उसकी मान्यताएँ और प्रेरणाएँ विश्व मानव की- विश्व परिवार की- पृष्ठभूमि बनाती है। धर्म का प्रकाश उत्कृष्ट कर्तव्य एवं आदर्श कर्तव्य की प्रेरणा देता है। इस ढाँचे को देखकर अनास्थावादी भी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर उसकी उपयोगिता निर्विवाद रूप से स्वीकार कर सकते हैं।

धर्म-तन्त्र से लोक -शिक्षण में चिर प्राचीन और चिर नवीन का अद्भुत सम्मिश्रण किया गया है। उसमें श्रद्धा और विवेक का समुचित समन्वय हुआ है। अतीत की गरिमा और वर्तमान की आवश्यकता का जिस कुशलता के साथ इस प्रयास में निर्वाह हुआ है उसे देखते हुए उसे विचारशील वर्ग द्वारा एक स्वर से सराहा गया है और व्यक्ति एवं समाज निर्माण की दृष्टि से उसे युग की आवश्यकता पूरी कर सकने वाले दूरदर्शी प्रयास के रूप में स्वीकारा गया है।

इस प्रयास के क्या परिणाम निकले- इस प्रयत्न की क्या प्रक्रिया हुई-यह हमारी आँखों के सामने स्पष्ट है। विज्ञापनबाजी से दूर रहने की और चुपचाप अपने काम में जुटे रहने की अपनी मूलभूत प्रकृति ने ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता तो नहीं समझी, पर सदा पैनी दृष्टि से यह देखा कि इन प्रयासों से नये किस्म की अन्ध श्रद्धा तो नहीं पनप रही है? जन-मानस में चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा उभारने की आकाँक्षा कहीं निरर्थक कल्पना मात्र तो नहीं रह रही है।

पर्यवेक्षण ने इन प्रयासों की उपयोगिता सिद्ध की है और सत्परिणामों के सुखद निष्कर्ष सामने खड़े किये हैं। कोटि-कोटि मनुष्यों के चिन्तन की इससे दिशा धारा मिली है। दृष्टिकोण में औचित्य के समावेश की-आस्थाओं में सद्भावना की-क्रिया पद्धति में सत्प्रवृत्तियों की मात्रा आशातीत मात्रा में बढ़ी है। लगता है युग-परिवर्तन की परिकल्पना में इस प्रयास ने अपनी उपयोगिता पूरी तरह सिद्ध की है।

सत्ताईस वर्षों के प्रयोग परीक्षण के उपरान्त अब यह निष्कर्ष सामने आया है कि इस उपयोगी प्रयोग को हिन्दू धर्म की सीमा तक ही सीमित न रहने देकर उसका कार्यक्षेत्र आगे बढ़ाया जाय और अन्य धर्मावलम्बी जनता को भी इस प्रयास से लाभान्वित होने दिया जाय। मानवतावादी आदर्शों की मात्रा हर सम्प्रदाय में इतनी अधिक मौजूद है कि यदि उसे संकलित करने, उभारने और व्याख्या करने में सदुद्देश्य बरता जाय तो एकता-समता एवं शुचिता के तीनों आदर्शों का समर्थन मिल सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम की परिस्थितियाँ उभारने में इस समर्थन से समुचित योगदान मिल सकता है।

इस आशंका पर भी भली प्रकार विचार कर लिया गया है कि अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा अन्य धर्मों के सदुद्देश्यों का प्रयत्न भी कहीं अनुदारिता के लिए असह्य तो न बन जायेगा-कट्टरता कहीं सत्प्रयत्नों और सदुद्देश्यों को भी तो बुरा न मानने लगेगी। इस दुनिया में हो तो कुछ भी सकता है, पर जब अपना मन साफ है, तो उपयोगी प्रयोग को व्यापक बनाने में अनावश्यक संकोच न बरता जाय मन ने यही निश्चय किया है और अब उस दिशा में कदम बढ़ाये जा रहे हैं।

संसार में यों धर्म सम्प्रदाय तो अनेक हैं, पर प्रधान उनमें से चार ही हैं। संस्था की दृष्टि से ईसाई, मुसलिम, बौद्ध और हिन्दू धर्म ही प्रधान हैं। अन्य धर्मों के अनुयायी स्वल्प मात्रा में हैं। अस्तु उन्हें पीछे हाथ में लिया जा सकता है, प्रथम प्रयास के रूप में इन चारों को हाथ में लेने से काम चल सकता है। पीछे अन्यान्य सम्प्रदायों को भी मानवी एकता एवं उत्कृष्टता के लक्ष्य पर केन्द्रित करने के प्रयत्न अग्रसर किये जा सकते हैं। जिस आधार पर हिन्दू क्षेत्र के अन्तर्गत ‘धर्म तन्त्र से लोकशिक्षण’ की प्रक्रिया हाथ में ली गई है-वहीं अन्य धर्मों के क्षेत्र में भी अपनाई जायेगी। इस प्रयत्न के चार चरण हैं-

(1) शास्त्र वचनों का ऐसा संकलन जो मानवी आदर्शों के अनुरूप दृष्टिकोण तथा क्रियाकलाप अपनाने की प्रेरणा देता हो।

(2) ऐसे कथा-प्रसंगों, चरित्रों, संस्मरणों, घटनाक्रमों का संकलन जिनसे अभीष्ट दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा तथा शिक्षा मिलती हो।

(3) उन सम्प्रदायों द्वारा अपनाई गई प्रथा-परम्पराओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों की ऐसी व्याख्या जिनसे आदर्शवादिता अपनाने का प्रकाश मिलता हो।

(4) जन्म, मरण, विवाह पर्व, संस्कार, पूजा, अनुष्ठान आदि अवसरों पर अपनाये जाने वाले कर्मकाण्डों तथा मन्त्रों का इस प्रकार प्रस्तुतीकरण जिससे आत्म-शोधन, आत्म-परिष्कार, लोक मंगल, उदार-व्यवहार जैसे सदुद्देश्यों को प्रोत्साहन उपलब्ध हो सके।

धर्मतन्त्र से लोक-शिक्षण के अपने अब तक के प्रयत्नों में इसी आधार पर साहित्य सृजन एवं प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्न किये जाते रहे हैं। बहुत कुछ सोचा लिखा और किया गया है। इन प्रयत्नों का परीक्षण जहाँ भी हुआ है वहीं सद्भावनाएं उभरती और सत्प्रवृत्तियाँ पनपती देखी गई हैं। अस्तु निश्चित है कि यही प्रयोग यदि अन्य धर्मों के क्षेत्र में भी किया जायेगा तो उसके भी सत्परिणाम ही सामने आवेंगे। सभी धर्मों के अनुयायी मानवी आदर्शवादिता के महान लक्ष्य पर एकत्रित होकर पारस्परिक घनिष्ठता की स्नेह शृंखला में बंधते चले जायेंगे। जबकि पिछले दिनों वे विद्वेष और विलगाव के बीज बोने तथा प्रतिगामिता का समर्थन करने के लिए बदनाम होते रहे हैं।

अगले दिनों हमारे प्रयत्न उपरोक्त प्रयोजन के लिए आरम्भ कर दिये गये हैं। ईसाई, मुसलिम और बौद्ध धर्मों के साहित्य का भी उसी तत्परता एवं गम्भीरता से अध्ययन किया जा रहा है जैसा कि हिन्दू धर्म के आर्षग्रन्थों का किया गया था। उसने उद्देश्य से मिलते-जुलते ढंग से अन्य लोग भी सोचते और करते रहे हैं। उनके श्रम एवं प्रयास की जानकारियाँ संग्रह की जा रही हैं और जो साहित्य इस प्रयोजन के अनुरूप छपा है उसको खोजा और मंगाया जा रहा है। उपरोक्त तीनों धर्मों में से किसी की जिन्हें गहरी जानकारी रही है- जिन्होंने असामान्य रूप से अध्ययन किया है-उपयोगी निष्कर्ष निकालने में माथा-पच्ची की है-उनकी खोज की जा रही है और सम्पर्क साधा जा रहा है। पूछताछ-खोजबीन-पत्र व्यवहार का सिलसिला चल तो देर से रहा था, पर अब उसे और भी अधिक तीव्र कर दिया गया है। अखण्ड-ज्योति परिवार में तथा परिजनों के सम्पर्क क्षेत्र में जिन्हें इस प्रकार की जानकारियाँ हो सकती हैं उन्हें सम्पर्क में सबसे प्रथम लिया जा रहा है। स्पष्ट है कि इतने बड़े शोध कार्य के लिए अध्ययन, चिन्तन एवं परामर्श की सुविस्तृत आवश्यकता होगी। प्रतिपादन का ढाँचा खड़ा हो जाने पर उसका प्रकाशन कराना होगा । उसके प्रसार के लिए कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण किया जायेगा। यह प्रचार समान रूप से सभी धर्मों की जनता को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता रहेगा और यह समझा जाया करेगा कि सभी धर्म अपनी-अपनी विशेषताएं तथा भिन्नताएं रखते हुए भी मूलतः मानवतावादी आदर्शों को प्रेरणा देने के लक्ष्य पर पूरी तरह केन्द्रित होते हैं। विश्वास है कि उससे विभेद की दीवारें एकता तथा उत्कृष्टता का सर्वतोमुखी समर्थन मिलने से गिरेंगी जिससे जनमानस के परिष्कार का प्रयोजन अधिक अच्छी तरह सम्पन्न हो सकेगा।

अखण्ड-ज्योति पाठकों की जानकारी में उपरोक्त प्रयोजन के लिए उपयुक्त साहित्य प्रयास तथा अध्ययनशीलों की जो जानकारी हो, उसे हरिद्वार भिजवा दें इससे हमारे इन दिनों चल रहे प्रयास में कुछ न कुछ सहायता ही मिलेगी। यों इस प्रयास को सफल एवं व्यापक बनाने की तैयारी तो हम में से प्रत्येक को अभी से करनी चाहिए।


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