दधिची की पुण्य परम्परा फिर प्रचलित की जाय

March 1974

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अन्नदान, वस्त्रदान, श्रमदान,अन्नदान,विद्यादान आदि सत्कर्मों की चर्चा बहुत दिनों से सुनी जाती रही है। अब विज्ञान ने दान का एक नया क्षेत्र खोला है,जिसकी गरिमा उपरोक्त सभी दानों से बढ़ कर है और जिसे गरीब से गरीब आदमी भी यदि थोड़ा साहस कर सके तो सरलता पूर्वक दे सकता है वह दान है— अंग दान।

अब यह सम्भव हो गया है कि एक मनुष्य के शरीर का कुछ भाग लेकर दूसरे के शरीर में लगा दिया जाय। इससे उन लोगों का बहुत हित साधन होता है जो अमुक अंग के बिना बहुत कष्टकर जीवन जी रहे थे।

रक्त दान की बात हम सभी जानते हैं। घायलों के शरीर से अधिक रक्त निकल जाने पर वे बहुत ही अशक्त हो जाते हैं और देर तक जीवन धारण किये हुये नहीं रह सकते। कई आपरेशन भी इतने जटिल होते हैं, जिनमें काफी समय लगता है। उतनी देर में बहुत रक्त निकलता है, इसकी पूर्ति बाहर का रक्त देकर करनी पड़ती है। घायलों के प्राण बचाने के लिये भी उनकी नसों में रक्त चढ़ाया जाता है। इन प्रयोजनों के लिये दूसरे दानियों को अपने शरीर का रक्त देना पड़ता है।

बड़े आपरेशनों में काफी देर लगती है तब उन्हें दूसरे का रक्त देना पड़ता है। कोई रोगियों का पूरा ही रक्त बदलने की आवश्यकता पड़ जाती है। ऐसी दशा में रक्त देने के लिये रोगी के सम्बन्धियों से ही कहा जाता है। उनका रक्त यदि उसी स्तर का हुआ तो फिर एक स्वस्थ व्यक्ति से प्रायः डेढ़ पाव तक ही रक्त लिया जा सकता है। उतने से काम न चले तो दूसरे −तीसरे की तलाश करनी पड़ती है। समय पर समान स्तर का रक्त न मिले तो रोगी के लिये प्राण संकट ही उत्पन्न हो जाता है। यों रक्त बैंक से भी रक्त मिल जाता है पर वह सदा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता। इन सब कठिनाइयों का समाधान यह है कि उदार व्यक्ति मरने से पूर्व अपना रक्त दान दे जाने की वसीयत कर दें।

मृतक का भी रक्त लिया जा सकता है। मृत्यु होने के बाद दो से छै घण्टे तक मृतक का रक्त इस योग्य बना रहता है कि उसे निकाल कर दूसरों के काम लाया जा सके। इसे तीन−चार महीने तक सुरक्षित भी रखा जा सकता है। जहाँ जीवित व्यक्ति से एक प्वाइंट रक्त ही लिया जा सकता है, वहाँ मृत शरीर से पाँच−छै प्वाइंट तक मिल जाता है।

रूस में अब तक चालीस हजार रोगियों को, मृतकों का रक्त देकर उन्हें संकट−ग्रस्त स्थिति से उबारा जा सकता है। मृतकों का रक्त जीवितों की अपेक्षा इसलिए भी सुविधाजनक होता है कि उसमें इतनी अच्छी तरह जाँच पड़ताल नहीं हो पाती, फलतः रक्तदानी की बीमारियाँ रक्त−ग्रहीत के शरीर पर आक्रमण करके नया संकट उत्पन्न कर सकती है।इन सब कठिनाइयों को देखते हुये, मृतकों का रक्त अधिक निरापद माना गया है। इतना ही नहीं— एक डडडड विशेषता यह भी है कि मृतक के रक्त में लौहकणों की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे वह अधिक लाभकारी सिद्ध होता है। रूसी विशेषज्ञ डा. एफ.ए. पाफोगोव के परामर्श से दिल्ली में मृत शरीर से रक्त निकालने का एक प्रबन्ध भारत ने भी आरम्भ किया है।

कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी आँखों बन्द करके भी अन्धों का ज्योति प्रदान कर सकता है। आवश्यक नहीं है कि जीवित आदमी की ही आंखें निकाली जाँय।ऐसा घोषित मृत्यु के उपरान्त भी हो सकता है।

आँखों की ऊपरी परत एक पारदर्शक स्वच्छ परत की बनी होती हैं। प्रकाश की किरणें उससे टकराती है। तो दृष्टि प्रकाश तन्त्रिका उन्हें मस्तिष्क पर पहुँचा देती है और हमें दिखाई देने लगता है। किसी कारणवश यदि यह पटल अपारदर्शी बन जाय तो प्रकाश किरणों का मस्तिष्क तक पहुँचना कठिन हो जाता है। इस धुन्धलेपन की परत जितनी मोटी होती है, उसी अनुपात से अन्धता से कष्ट मुक्ति मिल सकती है।

अब यह पारदर्शी पटल एक की आँख को लेकर दूसरे जरूरतमंदों के लगभग जा सकता है और अन्धता से कष्ट मुक्ति मिल सकती है।

मृत्यु के 6 से 8 घण्टे के भीतर आंखें निकाली जा सकती हैं। उन्हें सुरक्षित रखा जाता है और आवश्यकतानुसार उनका उपयोग किया जाता है। नेत्र दान लेने की व्यवस्था बड़े अस्पतालों में मौजूद है।

मृतकों की हड्डियाँ भी दूसरे शरीर में लगाई जा सकती हैं। मरने के 12 घण्टे के भीतर हड्डियाँ निकाली जा सकती हैं। इन्हें शीत उपकरणों में दो वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है। दुर्घटनाओं में चूर−चूर हुई हड्डियों के स्थान पर नई हड्डी लगाकर क्षत−विक्षत अंग को पुनः पहले जैसा बनाया जा सकता है। 30 वर्ष से कम आयु के लोगों की हड्डियों में मुलायमी रहती है इसलिए उतनी ही आयु तक के मृत शरीरों से उन्हें निकाला जाता है। अधिक आयु वालों की कड़ी हड्डियाँ आरोपण की दृष्टि से प्रायः बेकार ही हो जाती है।

जीवितों के अंग जीवितों को लगाने के प्रयोग बहुत दिन से चल रहे थे, अब मृतकों के अंग का भी उपयोग होने लगा है तो इससे ऐसे आपत्ति ग्रस्तों का भविष्य अधिक उज्ज्वल हो गया है जो दूसरों का अंग लगाने से अच्छे हो सकते हैं। जिगर गुर्दा और तितली के अनेक प्रत्यारोपण पिछले दिनों सफल हुये हैं। अमेरिका डेनवेर के वेटेकन एडमिनिस्ट्रेशन हॉस्पीटल और कोलोरेडी विश्व−विद्यालय के मेडीकल सेन्टर ने पिछले दिनों पाँच मृतकों के जिगर, वयालीस के गुर्दे और एक की तिल्ली निकाल कर दूसरों को लगाया। जिगर के आरोपण सफल नहीं हुये किन्तु तिल्ली वाल पूर्ण सफलता मिली। यह प्रथम प्रयोग थे। भविष्य में इस प्रकार के आरोपण अधिक सफल होने लगेंगे, ऐसा विश्वास किया जाता है। आग से अधिक जल जाने पर शरीर से अधिक द्रव निकल जाता है और रोगी की जान पर आ बनती है। इन जले स्थानों पर दूसरी चमड़ी लगा दी जाय तो रोगी बच जाता है। अब तक ऐसे मामलों में जले हुये व्यक्तियों की ही चमड़ी एक जगह से लेकर दूसरी जगह लगाई जाया करती थी पर अब मृतकों की चमड़ी का भी जले हुए लोगों के घावों पर प्रत्यारोपण किया जा सकेगा।

इस दिशा में जन−साधारण को आवश्यक जानकारी दी जा सके तो अनेक उदार मनुष्य ऐसे मिल सकते हैं जो मरने के उपरान्त शरीर को कीड़ों से खाये जाने या आग में नष्ट किये जाने से पूर्व उसका कुछ भाग पीड़ित मनुष्यों की एक महती आवश्यकता पूरी उसका कुछ भाग पीड़ित मनुष्यों की एक महती आवश्यकता पूरी करने के लिए सहर्ष देने को तैयार हो सकें। यह भय उचित नहीं कि मृत्यु से पहले ही दान दिये आग निकाल लिये जायेंगे और आर्त मृत्यु मरना पड़ेगा। सच बात है कि घोषित और कानून न मृत्यु हो जाने के उपरान्त बहुत देर पीछे अंगों का सड़ना-गलना आरम्भ होता है। कई घण्टों तक मृत शरीर की स्थिति ऐसी बनी रहती है कि यदि उस अवधि में किन्हीं अंगों को सावधानी के साथ निकाल लिया जाय और शीत-सुरक्षित रखा जाय तो काफी समय तक तरोताजा बने रहते हैं और उसी समय अथवा फिर कभी किसी दूसरे शरीर में लगाने के काम आ सकते हैं।

मृत्यु हो जाने के बाद आग निकालने से किसी प्रकार का कष्ट होने की कोई बात नहीं। वस्तुतः यह तो ऐसा दान है, जिसमें अपनी तनिक भी हानि नहीं और दूसरों का लाभ ही लाभ है। यश, पुण्य और आत्म-सन्तोष का लाभ स्पष्ट है। एक के साहस करके आगे आने पर दूसरों को प्रेरणा मिलती है और एक ऐसी पुण्य परम्परा चलती है जिसमें एक मनुष्य के दुःख-दर्द में दूसरे का सहायक होना प्रत्यक्ष होता है। इस परम्परा को अग्रगामी बना कर ही मनुष्यों का देव समाज बन सकता है।

महर्षि दधीच को जीवित अवस्था में देव प्रयोजन के लिये शरीर दान करने में संकोच नहीं हुआ था। हम उनके वंशज मृत शरीरों के निकम्मे अंगों का दान करने को वसीयत करके उस पुण्य परम्परा के सहज ही उत्तराधिकारी बन सकते हैं।


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