उद्विग्नता ही स्वास्थ्य को चौपट करती है

March 1974

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मानसिक उत्तेजना शरीर की जीवनी शक्ति को किस भयावह रीति से नष्ट करती है, इस ओर शरीर शास्त्री और मनः शास्त्री अब गम्भीरतापूर्वक ध्यान दे रहे हैं, क्योंकि यह दिन−दिन अधिक स्पष्ट होता जाता है कि अस्वस्थता की समस्या का समाधान मात्र औषधियों की सहायता से अथवा पौष्टिक भोजन का व्यवस्था जुटाने से हल नहीं हो सकता। यदि ऐसा सम्भव रहा होता तो सभी सम्पन्न लोग आरोग्य लाभ करते और अभावग्रस्त रुग्णता एवं दुर्बलता का कष्ट क्यों भोगते।

विषाणुओं से रक्षा के लिए विविध−विधि टीके लगाना और हर वस्तु उनसे प्रभावित मानकर अन्धाधुन्ध छूत बरतना भी अब केवल बहम ही सिद्ध हो रहा है। बड़े आदमी फैशन की दृष्टि से स्वच्छता के चोचले इतने ज्यादा करते हैं कि उस स्थिति में उन तक विषाणुओं के पहुँचने की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। ऐसी दशा में उन्हें तो निरोग रहना ही चाहिए किन्तु देखा जाता है यह कि स्वच्छताभिमानी ही अधिक बीमार पड़ते हैं और गन्दगी से ही दिन भर खिलवाड़ करते रहने वाले मेहतर जैसे स्वच्छता कर्मचारी स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी स्वच्छता संवेदी से पीछे नहीं रहते।

इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सका अस्तु विचारशीलता का तकाजा यही सामने आया कि आरोग्य और रुग्णता की गुत्थी सुलझाने के लिए गहराई तक उतरा जाय और उन करणों को ढूँढ़ा जाय जो स्वास्थ्य समस्या को उलझाने के लिए वस्तुतः उत्तरदायी है। इस दिशा में प्रयास करने पर यह तथ्य सामने आये हैं कि मानसिक उत्तेजना एवं उद्विग्नता ही आरोग्य की जड़ खोखली कर डालनी वाली सर्वोपरि विपत्ति है।

अमेरिका मेडीकल ऐसोसियेशन की मानसिक स्वास्थ्य समिति के सदस्य डा. फ्राँसिस का कथन है कि उत्तेजनाग्रस्त मनःस्थिति का दबाव रक्त संचार प्रणाली को बेहतर गड़बड़ा कर रख देता है और फिर उस विकृति के फलस्वरूप नाना प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं।

इसी प्रकार मनः शास्त्री जे. बेसलेण्ड का वृद्धावस्था मृत्यु का वारन्ट नहीं है। मरण को समीप लाने वाले संकट का नाम है—मानसिक क्षय। मानसिक क्षय का अर्थ है निराशा अनुत्साह और निष्क्रियता। उमंगों का अन्त हो जाने से जो मानसिक रिक्तता उत्पन्न होती है। उस खीज से मनोबल घटता चला जाता है। इसका प्रभाव समस्त शरीर पर व्यापक शिथिलता के रूप में प्रस्तुत होता है, यह क्रम मृत्यु के समय को निकटतम घसीट कर ले आता है।

हार्टफोर्ट कनैटिकट स्थित इन्स्टीट्यूट आफ लिवंग ने अपने शोध निष्कर्षों के आधार पर घोषणा की है कि असमय में ही वृद्धावस्था का आ धमकना, दुर्बलता और रुग्णता का शिकार होना आहार पर उतना निर्भर नहीं है जितना मानसिक असन्तुलन पर। स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों की उपेक्षा से भी शरीर जल्दी बीमार पड़ता है और असमय बुढ़ापे का कष्ट सहना होता है कि सबसे अधिक प्रभाव मानसिक असन्तुलन का पड़ता है यदि मनुष्य उदास, खिन्न, क्रुद्ध, चिन्तित रहेगा तो फिर लाख प्रयत्न करने पर भी आरोग्य की रक्षा नहीं की जा सकेगी। तब पौष्टिक आहार और बहुमूल्य औषधि उपचार से भी कुछ काम न चलेगा। स्वास्थ्य रक्षा और दीर्घजीवन का प्रथम आधार मानसिक शान्ति स्थिरता और उत्साह भरी आशावादिता को ही माना जाना चाहिए।

इन दिनों अनिद्रा व्याधि की बाढ़ आई हुई है। गहरी और पूरी नींद किन्हीं भाग्यवानों को ही आती है। मस्तिष्क को समुचित विश्रान्ति न मिलने के कारण वह साँस संस्थान उत्तेजित हो उठता है और वह तनाव फिर शरीरगत सभी संचारण प्रक्रियाओं को अस्त−व्यस्त करके नित नये रोगों का सृजन करता है।

अनिद्रा अपने आप से कोई रोग नहीं है। मस्तिष्क को अत्याधिक और अव्यवस्थित श्रम का भार पड़ना ही उसका वास्तविक कारण है। यह कभी−कभी अधिक पढ़ने, लिखने, सोचने, बोलने जैसे मानसिक श्रम की मात्रा अधिक बढ़ जाने से भी हो सकता है पर प्रधान कारण यह नहीं है। भावनात्मक उद्विग्नता ही मस्तिष्कीय संतुलन को सबसे अधिक नष्ट करती है। दस घण्टे पढ़ने लिखने का श्रम मस्तिष्क को जितना थकाता है, उसकी तुलना में आधा घण्टा क्रोध या दुख के विचारों में डूबे रहने पर कहीं अधिक शक्ति नष्ट हो जाती है। बीच−बीच में विश्राम करते रहने और कामों का स्वरूप बदलते रहने से हर दिन देर तक पढ़ने, लिखने जैसे साधारण मानसिक श्रम घण्टों किये जाते रह सकते हैं और उनसे कोई अति नहीं होती। कितने ही विद्वान व्यक्ति वृद्धावस्था में भी आठ दस घंटे जम कर मानसिक परिश्रम करते हैं और शान्तिपूर्ण निद्रा लाभ का आनन्द लेते हुए जीवनयापन करते हैं, इसके विपरीत जिन पर आवेग छाये रहते हैं, वे खिन्न, उद्विग्न, क्रुद्ध, सन्तप्त और विक्षुब्ध मनुष्य प्रत्यक्षतः कुछ भी मानसिक श्रम के न रहते हुए भी इतने थक जाते हैं कि उन्हें मस्तिष्कीय उत्तेजना का शिकार रहना पड़ता है। न दिन को चैन पड़ता है न रात को नींद आती है।

दिमाग पर अधिक बोझ पड़ा रहे और गहरी नींद न आये तो चक्कर आना, सिर दर्द, रक्त चाप, स्मरण शक्ति की कमी, चिड़चिड़ापन, आँखों में जलन, मृगी, पागलपन, नपुँसकता जैसी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और शरीर को आवश्यक विश्राम न मिलने के कारण वह दिनों दिन दुबला और कान्तिहीन होता चला जाता है।

अनिद्रा के कारण होने वाली क्षति से सभी परिचित हैं, अस्तु उसके निवारण के उपाय भी सोचे गये हैं। इसके लिए कई रासायनिक पदार्थ खोज निकाले गये हैं।

नींद न आने का कष्ट निवारण करने के लिए सामयिक उपचार के रूप में फेनोवार्वी टोन, सरपिरुटिन सी., यूरब्राय, मैडोसिन, सोप्रालीन, सोनेरील,अब्लीवान, न्यूसीन एच. पाइरा मिड्रोन, एनैलजिन प्रभृति औषधियाँ देते हैं। इन्हीं दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत अन्तर करके अनेक फैक्ट्रियां, अनेक नामों और लेबिलों के साथ अन्यान्य औषधियाँ बनाती बेचती हैं। विभिन्न देशों में उनके नाम हैं उन सब की सूची बनाई जाय तो वे दवाओं हजारों की संख्या में पहुँच जायेंगी।

संडे एक्सप्रेस इंग्लैंड के एक लेख में ब्रिटेन में नींद की गोलियों के बढ़ते हुए प्रचलन पर चिन्ता व्यक्त करते हुए बताया गया था कि उस देश में एक लाख से अधिक व्यक्ति ऐसे हैं, जिनकी निद्रा इन नशीली गोलियों की दया पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार की औषधियाँ वहाँ प्रति वर्ष प्रायः 2 लाख पौंड खर्च होती हैं। इन दवाओं की विषाक्तता सेवनकर्त्ताओं के स्वास्थ्य और जीवन के लिए संकट बन कर सामने आती होते हैं।

इन औषधियों में वारटिट्ररिक ऐसिड, अफीम कर सत, कोनिक जैसे मस्तिष्कीय गतिविधियों को कुँठित करने वाली नशीली चीजें होती हैं। जो आगे चलकर मानसिक स्वस्थता पर बुरा असर डालती हैं। उनके कारण नये−नये रोग उत्पन्न हैं।

अब तक एक भी ऐसी नींद लाने वाली दबा नहीं बनी जो पूर्णतया विष रहित हो। इनका सेवन लगातार करने से शरीर में जो नये संकट उत्पन्न होते हैं वे अनिद्रा अथवा उस पीड़ा से कम घातक नहीं होते, जिनका समाधान करने के लिए इन दवाओं का प्रयोग किया गया था। आपरेशन के समय प्रयोग की जाने वाली मूर्छा औषधियाँ भी आगे चल कर नये स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करती हैं।

रासायनिक उपचार से सम्वेदन शून्यता, तन्द्रा, मूर्छा लाने की दूरगामी हानियों को देखते हुए, विज्ञान वेत्ताओं का ध्यान अब इस दिशा में गया है कि वे विद्युत उपचार द्वारा कृत्रिम निद्रा लाई जाय। सोचा गया है कि यह प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक निर्दोष सिद्ध होगा। इस संदर्भ में रूसी वैज्ञानिकों में से ए. फिलोमाफित्स्की,आई. सेचनीव बी. वेरिगो, एन.वेदेन्स्की के विद्युत उपचार से निद्रा लाने के सम्बन्ध में गहरा अध्ययन किया है। फ्रांस में भी ऐसे प्रयोग हुए हैं, एच. लेछूच और मालगेर्व ने विद्युत निद्रा की सम्भावना को प्रत्यक्ष किया है। प्रो. रूसो ने भविष्यवाणी की है कि निकट भविष्य में रासायनिक उपचारों का हटाकर कृत्रिम निद्रा की आवश्यकता विद्युतधाराओं के प्रयोग द्वारा की जाया करेगी।

लेनिन ग्राड के मनः शास्त्री कालेन्दारोव ने मानवी स्नायु संस्थान में हल्का सा विद्युत प्रवाह संचालित करके स्वाभाविक निद्रा अभीष्ट समय तक सा देने में सफलता प्राप्त की है। इस उपचार से थकान, बेचैनी, सिर दर्द जैसे अविश्रान्ति जन्य व्यथा से तत्काल छुटकारा प्राप्त कर सकना सम्भव हो गया है। सोवियत चिकित्सा विज्ञान के तत्वावधान में गिल्यारों वस्की लिवेन्तसेव, वाचिस्कीव के एक पैनल ने इस उपचार के गुण दोषों को दूरगामी पर्यवेक्षण करने के लिए विधिवत् प्रयोग प्रक्रिया संचालित किये हुए हैं। उनके निष्कर्ष में शिजोफ्रेनिया (मस्तिष्क शून्यता) न्यूरेस्थेनिया (स्मृति हरण) जैसे मस्तिष्कीय रोग और अल्सर, अंत्रशोध जैसे उदर रोगों में इस पद्धति द्वारा आशाजनक ही नहीं आश्चर्यजनक लाभ भी हुआ है। स्टेनोंक्रार्डिया, व्राकियल ऐस्यमा ब्लडपे्रशर जैसे रोगों का भी उस उपचार द्वारा गमन हुआ है।

विद्युत निद्रा का मूल लाभ है अभीष्ट समय तक अभीष्ट गहराई वाली निद्रा सम्भव करके रुग्ण अवयवों को इतना विश्रान्ति देना कि इस अवधि में प्रकृति के लिए बीमारी से जूझना और विकृति का निराकरण सम्भव हो सके। जीवित उत्तेजना में जो श्रम पड़ता है। उसी की क्षति पूर्ति करना शरीर की जीवनी शक्ति के लिए कठिन पड़ता है। फिर वह रुग्णता से कैसे जूझें? इसी झंझट में रोगी दिन−दिन गलता जाता है यदि उसे समुचित निद्रा लाभ मिल जाय तो एक और विश्रान्ति का चैन मिले,दूसरी ओर प्रकृति टूट−फूट की मरम्मत में जुट पड़े। यह दोनों ही आवश्यकताएँ निद्रा से पूरी होती हैं। रासायनिक उपचार से निद्रा लाने में विषैली, मादक औषधियों से नये संकट उत्पन्न होने की सम्भावना स्पष्ट थी, ऐसी दशा में विद्युत उपचार से निद्रा लाना अपेक्षाकृत अधिक निर्दोष समझा जा रहा है, यों तो बाहर से थोपा हुआ कोई भी उपचार किसी न किसी रूप में स्वाभाविक स्वस्थता पर आघात करता ही है। सच्ची और सही निर्दोष चिकित्सा तो वही है जो हमारी जीवनी शक्ति अपने ढंग से आप ही बिना किसी को सूचना दिये स्वयमेव करती रहती है।

अनिद्रा जन्म संकट का सामयिक उपचार नशीली औषधियों से किया जाय अथवा विद्युत संचार से? इस विवाद में विद्युत उपचारकों का पलड़ा भारी पड़ता है, क्योंकि उससे नशीली वस्तुओं के विष प्रभाव का खतरा नहीं है। साथ ही मस्तिष्क को जकड़ने की अपेक्षा संज्ञा शून्य करने में विश्राम भी अधिक गहरा मिलता है। विद्युत उपचार से होने वाले लाभों का एक मात्र आधार यही है कि देर तक मानसिक विश्रान्ति की व्यवस्था जुटायी जाय तो अनुत्तेजित अवयव अपनी टूट−फूट की मरम्मत करने में स्वयं जुट सकते हैं और रोग निवृत्ति का प्र.कृति प्रदत्त सुअवसर सहज ही मिल सकता है।

इतने पर भी मूल जहाँ का तहाँ है। मानसिक उत्तेजना के कारण का निवारण किया जाना चाहिए। उससे उत्पन्न प्रतिक्रिया भर को रोकने के लिए नींद लाने वाली गोलियाँ अथवा विद्युत संचार की कुछ उपयोगिता हो सकनी है। मूल कारण का निवारण तो मानसिक सन्तुलन स्थिर कर सकने वाले आध्यात्मिक दृष्टि का परिष्कार करने से ही होगा। जीवन को हँसते−खेलते खिलाड़ी की भावना से जीने और सफलता − असफलताओं को अधिक महत्व देते हुए अपनी प्रसन्नता के केंद्रबिंदु कर्तव्य पालन करने तक सीमित बनाकर कोई भी व्यक्ति विक्षोभों से बच सकता है और मानसिक सन्तुलन स्थिर रख सकता है।

शवासन, शिथिलीकरण मुद्रा, प्रत्याहार, धारण ध्यान और समाधि की योगाभ्यास से सम्बन्धित क्रिया−प्रक्रिया ऐसी है जो मानसिक थकान और तनाव को सहज ही दूर कर सकती है और वह उपचार नींद की दवा अथवा विद्युत संचार की तुलना में कहीं अधिक निरापद एवं लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

स्वास्थ्य की स्थिरता का आधार हमें मानसिक सन्तुलन को मानना होगा और जिस प्रकार पेट या रक्त के खराब न होने देने की सावधानी बरतते हैं वैसे ही यह ध्यान भी रखना होगा कि भावनात्मक संक्षोभ हमारे मस्तिष्क पर हावी हो कर पूरे स्वास्थ्य संस्थान को ही चौपट करके न रख दे।


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