साधन तो चाहिए ही! (कहानी)

March 1974

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एक बड़ा जंगल साफ किया जा रहा था। नेता उसके लिए जोशीले शब्दों में उत्साह भर रहे थे। उत्तेजित जनता कँटीली झाड़ियों को हटा देने के लिए आतुर हो रही थी।

झाड़ियाँ कैसे कटे उपाय बताइए? नेता कोई तरीका न तो जानते थे और न बात सकते थे, सो उन्होंने अपनी आवाज को और भी बुलंद करते हुए कहा— "बहादुरों, उठ खड़े हो। पैरों से सारे जंगल को कुचल कर रख दो।"

एक बूढ़े से न रहा गया। वह संजीदा स्वर में बोला— "पैरों से जंगल नहीं कट सकता। कुल्हाड़ियों का इंतजाम कराइए और इन्हें काटना सिखाइए।

नेता ने कहा— "यह सब बकवास है। जो भी समझ में आए, करो। जंगल को हटाना है, इस लक्ष्य से मत हटो। करो या मरो।"

लोग जोश में उबल पड़े। जिसे जो सूझा, उस हिसाब से झाँड़ियों से उलझ पड़ा। जंगल तो जहाँ का तहाँ था, पर हाथ-पैर सबके बुरी तरह घायल हो गए और लंबी उसासे लेते हुए निराशा के स्वर बोलने लगे।

बूढ़े ने फिर कहा— "लक्ष्य ऊँचा हो; उत्साह बहुत हो; तो भी साधन तो चाहिए ही। कुल्हाड़ियों का इंतजाम होना चाहिए और उन्हें चलाना सिखाया जाना चाहिए। तभी जंगल कटेगा।"

नेता झल्ला पड़ा, बोला— "मेरा काम मार्गदर्शन है। कुल्हाड़ी कहाँ मिलती है और उसे कैसे चलाया जाता है, यह तो मैं भी नहीं जानता।"

बूढ़ा उदास होकर जमीन कुरेदने लगा और दबी जवान से बोला— "तब आप ने नेता बनने की अनाधिकार चेष्टा ही क्यों की?"


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