आदमी जैसा घटिया होता चला जा रहा है उसी अनुपात से उसने योग की निचली सीड़ियों को ही न जाने कितने ऊँचे महत्व की मानना आरम्भ कर दिया है। छोटे बच्चों को खड़े होने और चलना सिखाने में छोटी तीन पहियों की गाड़ी काम आती है। उन दिनों बच्चा भी उसका सहारा लेता है और अभिभावक भी उसे प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इतना सब होते हुए भी यह सिद्धान्त सदा के लिए नहीं बन सकता कि चलना या खड़ा होना हो तो तीन पहिये की स्टेण्ड गाड़ी का सहारा लेना ही चाहिए।
योगसाधना के लिए यह उचित है कि शरीर को सक्रिय और मन को सन्तुलित रखा जाय। कैंची, उस्तरा पर धार ठीक रहे तो नाई हजामत ठीक तरह बना सकता है। लुहार छेनी, हथौड़े के सही होने पर अपनी ढलाई−मढ़ाई ठीक से करता है। यह मानने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। योग साधक का भी शरीर दूसरे अन्य लोगों की तरह ही स्वस्थ रखने के लिए आसन, प्राणायाम जैसे व्यायामों का उपयोग किया जाना चाहिए। आहार−बिहार ठीक रहना चाहिए। क्या योगी, क्या भोगी सभी के लिए यह सामान्य बात है कि आसन वाले अथवा दूसरी तरह के व्यायाम करके शरीर को श्रमशील, सुगठित बनाया जाय। निरोग रखा जाय। स्वास्थ्य संरक्षण में व्यायाम की प्रक्रिया का भी एक स्थान है और व्यायामों के अनेक प्रकारों में एक गणना आसनों की भी होती है। स्वास्थ्य रक्षा जब हर स्थिति में उपयोगी है तो योग साधक के लिए उसकी उपयोगिता क्यों न होगी। यहाँ तक बात सही है। पर गलती तब आरम्भ होती है जब शारीरिक अवयवों की तोड़−मरोड़ को योग साधना मान कर बैठे जाते हैं।
आजकल हिन्दुस्तान में और उससे बाहर योग शिक्षा की चर्चा बहुत है, पर सर्वसाधारण को उसका जो परिचय प्रशिक्षण कराया जाता है उसमें आसन जैसे शारीरिक व्यायामों को ही आकाश−पाताल जैसी प्रशंसा के पुल बाँध दिये जाते हैं। यही बात प्राणायाम के सम्बन्ध में है। उसकी महत्ता तो है पर तब है जब अन्तःचेतना को उच्च भूमिका में अवस्थित करने वाली प्रचण्ड संकल्प शक्ति का उपयोग भी श्वास−प्रश्वास क्रिया के साथ किया जाय, अन्यथा गहरी साँस लेना फेफड़े का व्यायाम भर ठहराया जा सकता है। शरीर के अन्यान्य अवयवों की परिपुष्टि के काम में आने वाले व्यायामों की तरह फेफड़े मजबूत करने में प्राणायाम भी उपयोगी हो सकता है। सामान्य स्थिति में किसी बात को उतना ही महत्व मिलना चाहिए जितनी कि वह वस्तुतः हो ही। प्राणायाम को योग मान बैठे और आसनों को योग का अनिवार्य अंग मानें तो यह एक थोथी भ्रान्ति ही होगी। यदि कोई व्यक्ति दूसरे प्रकार की श्रम साधना अपनाकर अपना शरीर सक्रिय और समर्थ रख सकता हो तो वह बिना आसन, प्राणायाम का सहारा लिए भी योग−साधना का पूर्णतया अधिकारी माना जा सकता है। ऐसी दशा में आसन, प्राणायाम का उतना महत्व नहीं होता जैसा कि आजकल योग की शिक्षा देने वालों ने तिल को ताड़ बनाकर खड़ा कर दिया है।
यही बात एकाग्रता के सम्बन्ध में लागू होती है। ‘मेडीटेशन’ की लम्बी चौड़ी चर्चाएं आज सुनी जाती हैं और उनका इतना महात्म्य बताया जाता है मानो इसे कर लेने पर योग साधना का लक्ष्य पूरा हो जायगा। ‘एकाग्रता मन मस्तिष्क को सोचने का एक व्यवस्थित विधि मात्र है जिसके आधार पर हर कोई चिन्तनशील व्यक्ति किसी भी भली−बुरी समस्या पर गहराई से विचार कर सकता है। विचारणीय तथ्य पर मनोयोग पूर्वक यदि विचार किया जायगा तो हर चिन्तनशील व्यक्ति को उपयोगी सफलता मिलेगी। विद्यार्थी, वकील, लेखक, कवि, शिल्पी, कलाकार, सर्जन आदि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग जब अपना काम मनोयोग पूर्वक करते हैं, प्रस्तुत विषय में तन्मय हो जाते हैं तो वे गहराई में घुस कर कीमती मोती बीन लाते हैं। शोधकर्ता वैज्ञानिकों को यह अवलम्बन अनिवार्य रूप में उनका मस्तिष्क उलझा रहता है। सोते, जागते वे उसी क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में लगे रहते हैं। कलाकारों और कारीगरों के बारे में भी यही बात लागू होती है, यदि वे अपना कार्य पूरी दिलचस्पी से करें, हाथ के कार्य को मनोयोग पूर्वक सम्पन्न करें तो उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सफलता प्राप्त करते हैं जो अस्त व्यस्त मन से बेगार भुगतने की तरह काम का बोझा सिर पर से उतारते हैं।
एकाग्रता, मस्तिष्क के बिखराव की अस्त−व्यस्तता पर नियन्त्रण पाने की एक कला है। दूसरे शब्दों में उसे सोचने की व्यवस्थित शैली कह सकते हैं। जो अच्छी सफलताएँ पाने के किसी भी इच्छुक को सीखनी ही चाहिए। शरीर को सधा कर ही कुशल कारीगर उपयोगी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। चित्रकला, मूर्तिकला, गायन−बादन, सर्जरी, शिल्प आदि में हाथ सधाने का अभ्यास करना पड़ता है, उसी प्रकार मस्तिष्क को ऊबड़−खाबड़, अस्त−व्यस्त घुड़दौड़ लगाने का बेढंगापन छोड़कर अभीष्ट प्रयोजन की परिधि में अपनी चिन्तन प्रक्रिया को नियोजित करना अधिक उपयोगी रहता है। जिनका मस्तिष्क सधा हुआ होता है वे मन्दबुद्धि होते हुए भी बहुमूल्य समाधान ढूँढ़ निकालते हैं। यहीं है एकाग्रता का−मेड़ीटेशन का− सर्वविदित महत्व। बात जितनी बड़ी है उतनी ही उसे बताया जाना चाहिए। बात को बतंगड़ बनाने की आदत बुरी है। एकाग्रता के मस्तिष्कीय व्यायाम को यदि योग जैसी आध्यात्मिक साधना बता कर उसे उतनी छोटी परिधि में सीमाबद्ध कर दिया जायगा तो उसे अर्थ का अनर्थ ही कहेंगे। आज योग के व्याख्याता कुछ ऐसा ही करने पर तुल गये हैं। चूँकि हलकी वस्तुएँ लोग आसानी से पकड़ लेते हैं, उनके महात्म्य यदि बढ़ा−चढ़ा कर बता दिये जायँ तो लोग आकर्षित भी आसानी से हो जाते हैं और योग शिक्षा की प्रतिष्ठा बढ़ जाती और उनकी योग पाठशाला चलने लगती है। चरित्र निर्माण भाव परिष्कार और जीवन—लक्ष्य के निर्धारण की बात कठिन पड़ती है सो उसे सस्ते योगाभ्यासी क्यों सुनने लगे, योग शिक्षक भी कठिन आधार प्रस्तुत करके अपनी बाजीगरी को अनाकर्षक नहीं बनाना चाहते। सरल सुविधा का रास्ता अपनाया जाय सो ठीक है पर बात का बतंगड़ न बनाया जाय।
योग का लक्ष्य है आत्मा को परमात्मा से जोड़ना। योग शब्द का मोटा अर्थ जोड़ना सर्वविदित है। किसे किससे जोड़ना, इस प्रश्न का उत्तर नर को नारायण से—पुरुष को पुरुषोत्तम से, अणु को विभु से, तुच्छ को महान से, जीव को ब्रह्म के साथ संयुक्त होने के रूप में ही दिया जा सकता है। यह भाव भूमिका है। जिसमें व्यक्ति को अपनी सत्ता का समर्पण समष्टि में करना पड़ता है। आदर्शवादी भाव चेतना को ही ‘उपास्य ब्रह्म’ कहा गया है। व्यक्ति वादी स्वार्थ भरी संकीर्णता की परिधि से आगे बढ़ कर विश्व−मानव में आत्मसात् होने के भावोत्कर्ष को योग साधना कहा जा सकता है। यह विश्व, ब्रह्म की साकार प्रतिमा है। उस चेतना के आदर्शवादी पक्ष के प्रति श्रद्धा और तत्परता का अभिवर्धन यही योग साधना का लक्ष्य हो सकता है। इसके लिए दृष्टिकोण का−भाव भूमिका का−परिष्कार करना होता है और पशु स्तर को हेय चिन्तन एवं कर्तृत्व को उलट कर उसे सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों में परिणत करना पड़ता है। अध्यात्म साधनाओं का लक्ष्य यही है। इसकी पूर्ति के लिए प्रत्याहार धारण, ध्यान और समाधि की मनः विज्ञान समर्थित योगाभ्यास क्रियाओं को अपनाना पड़ता है। यही है वह लक्ष्य जिसकी ओर योग शिक्षकों की तत्परता और शिक्षार्थियों की दिलचस्पी को आगे बढ़ना बढ़ाया जाना चाहिए।
दुर्भाग्य की बात तब सामने आती है जब निरुद्देश्य आधार लेकर मस्तिष्क को सधाने की कला की नगण्य सी पद्धति एकाग्रता को आकाश जैसी बड़ी बता कर योग के मूल लक्ष्य को ही झुठला दिया जाता है। ध्यान−योगी तरह−तरह की आकर्षक प्रतिभायें सामने रख कर अथवा उन्हें कल्पना क्षेत्र में बिठा कर उनके साथ एकाग्रता जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। यदि उसमें पूर्ण सफलता मिल जाय, पूरी तरह उन प्रतिमाओं पर मन एकाग्र रहने लगे तो उससे आध्यात्मिक प्रगति में योग प्रयोजन में प्रयोजन के मूल लक्ष्य की प्राप्ति में कोई विशेष सहायता न मिलेगी। मस्तिष्क को सधाने का अभ्यास हो भी जाय तो उससे भाव परिष्कार और व्यक्तित्व की व्यापकता का लक्ष्य कैसे पूरा होगा? ध्यान−योगी अपनी चेतना को विश्व चेतना का घटक मान कर स्वार्थ को परमार्थ में विकसित करने की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त करेगा। ध्यान−योग इसके लिए सहायक हो सकता है पर उस नगण्य से साधन को साध्य मान बैठने से तो किसी भी प्रकार कुछ भी प्रयोजन पूरा नहीं होता।
इन दिनों आसन, प्राणायाम और एकाग्रता इसी तीन टाँगों की घोड़ी पर सवार होकर लोग योग साधना का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये दौड़ लगाते देखे जाते हैं। कहीं−कहीं मुद्रा, बंध, नेति धोति, वस्ति आदि हठ योग परक अंग संचालकों को योग शिक्षा में सम्मिलित कर लिया गया है। चौथे उस चरण की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है जिसकी पूर्ति के लिए योग विज्ञान का सारा ढाँचा ही गढ़ा गया और खड़ा किया गया है। व्यक्ति वादी संकीर्णता और स्वार्थवादी महत्वाकाँक्षाओं में उलझे हुए मन को उच्च आदर्शों को अपनाने की तपश्चर्या में लगा देना ही जीव और ब्रह्म की एकता का आधार हो सकता है उसके लिए परिष्कृत दृष्टिकोण का—आदर्शवादी मनोभूमि का विकास अनिवार्य है। इसी विकास के आधार पर यह परखा जा सकता है कि किसकी योगसाधना किस हद तक सही दिशा में चल रही है और कितनी सफल हो रही है।
इन दिनों योग शब्द का उपयोग जिस अर्थ में हो रहा है और योगाभ्यास के नाम पर जिन बाल क्रीड़ाओं को, आसमान पर उठाने जितना महत्व दिया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। शारीरिक व्यायाम, मस्तिष्कीय संतुलन के अभ्यास अच्छे
उन्हें सीखने से स्वास्थ्य और संतुलन का लाभ मिल सकता है। योग इतना छोटा नहीं है, उसमें उत्कृष्टतावादी भाव परिष्कार और आदर्शवादी कर्तृत्व के लिए प्रचण्ड प्रोत्साहन की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं। यदि उसका मूल−लक्ष्य विस्तृत कर दिया जाय तो फिर योग शब्द के उपयोग का कोई महत्व ही नहीं रह जाता, तब उसे शारीरिक, मानसिक व्यायामों की शिक्षा’ कहना पर्याप्त न होगा। आज की लक्ष्य विहीन योगसाधना की जो धूम देश−विदेश में मची हुई है उसे इसी हलके स्तर की बात क्रीड़ा ही कहा जाना चाहिए।
याग मनुष्य में देवत्व के उदय की पुण्य प्रक्रिया है। जीव और ब्रह्म का मिलन नर−पशु को चिन्तन और कर्तृत्व में, देव स्तर का बनाये बिना रह नहीं सकता। यह महामानव देव−मानव बनने का कल्प विधान है जिसे अपना कर लघु को महान बनने का अवसर मिलता है। योग का उपयोग इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास अभ्यासों के साथ जोड़ा जाय तो ही इस महान् भाव विज्ञान की आत्मा को यथार्थ रूप में समझा और समझाया जा सकेगा।
इस विश्व−ब्रह्मांड में ईश्वरीय चेतना की अगणित धाराएँ विभिन्न ध्वनि प्रवाहों के रूप में विवरण करती हैं। इनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने और उनके साथ सम्बद्ध हो कर यह सम्भव हो सकता है कि हम स्वयं भी शक्ति सम्पन्न बनें। नादयोग की साधना से हम प्रकृति की चेतन ध्वनियों से परिचित होते हैं तदनुरूप उन रहस्यों को जानने में सफल होते हैं सर्वसाधारण के लिए अविज्ञात हैं। प्रकृति की शक्तियों को करतलगत करना सूक्ष्म ध्वनियों पर नियन्त्रण करने से सम्भव होता है। अमुक ध्वनि, अमुक घटना क्रम का प्रतिनिधित्व करती है। नाद साधक प्रकृति के अन्तराल से अमुक ध्वनि पकड़ने और सुनने का अभ्यास करते है। इसमें कितनी सफलता मिलती है उतना ही अविज्ञात को जानना एवं अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष एवं करतलगत करना सम्भव हो जाता है।
नादयोग के सम्बन्ध में शास्त्रों के कुछ अभिवचन इस प्रकार हैं—
उक्त त्ममानतः पूर्व पश्चात् च विविधः कपे। अभिव्यजन्त एतस्य नादास्तत्सिद्धि सूचकाः॥
अनाहतमनुच्चार्य शब्दब्रह्म परं शिवम्। ब्रह्यरध्रंगतेवायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनध। शंख ध्वनि निभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्य था॥
पवने व्योम अम्प्राप्ते ध्वनिरुत्पद्यते महान्। घण्टादीनाँ प्रवाद्यानाँ ततः सिद्धिरदूरतः॥
जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं, दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके, उन्हें अव्यक्त कहते हैं यह अन्तरं में सुनाई पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्णेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवे उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को अनाहत अथवा शब्दब्रह्म भी कहा जाता है।
जब घण्टा जैसे शब्द सुनाई पड़े तो समझना चाहिए अब योग सिद्धि दूर नहीं।
श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो माहन्। वर्धमानस्तथाऽभ्यासे श्रयूते सूक्ष्मसूक्ष्मतः॥33
आदौ जलधिजीमूतभेरीनिर्झरसम्भवः। मध्ये मदलशब्दाभो घण्टाकाहलजस्तथा॥34
अन्ते तु किंकिणीवंशवीणाभ्रमरनिस्वनः। इति नानाविधा नादाः श्रू यन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः।35 नाद विन्दूपनिषद् 33−34−35
आरम्भ में यह नाद कई प्रकार का होता है और जोर से सुनाई पड़ता है। पीछे धीमा हो जाता है। आरम्भ में यह ध्वनियाँ नागरी, झरना, भेरी, मेघ, जैसी होती हैं, पीछे भ्रमर वीणा, वंशी, किंकिणी जैसी मधुर प्रतीत होती हैं।
रेचकं पूरकं मुक्त् वा वायुना स्थीयते स्थिरम्। नाना नादाःप्रवर्तन्ते संस्त्रवेच्चन्द्रमण्डलम्॥
समाकुँच्याभ्यसेद्योगी रसनाँ तालुक प्रति। किंचित्कालान्तरेणैव क्रमात्प्राप्नोति लम्बिकाम्॥
ततः प्रस्त्रवते सा तु संस्पृष्ठा शीतलाँ सुधाम्। पिबन्नेव सदा योगी सोऽमरत्वं हि गच्छति। —महायोग विज्ञान
जब प्राणायाम द्वारा प्राण वायु स्थिर हो जाता है तो नाना प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं और चन्द्रमण्डल से अमृत टपकता है।
जिह्वा को तालु में लगा कर योग साधक इस रस का पान करते हैं। कुछ काल उपरान्त जिह्वा को यह दिव्य, रसास्वादन होने लगता है। यह शीतल अमृत जैसा रस साधक को अमर बना देता है।
ब्रह्यरन्ध्रं गते वायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ। शंखध्वनिनिभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्य था॥ 36
शिरोमध्यगते वायौ गिरिप्रस्त्रवर्ण यथा। पश्चात्प्रीतो महाप्राज्ञः साक्षादात्मोन्मुखो भवेत्॥36 जावाल दर्शनोपनिषद् 6।36, 36
ब्रह्म रन्ध्र में प्राण का प्रवेश होने पर शंख ध्वनि एवं मेघ गर्जन के समान नाद होता है। वायु के मस्तक में प्रवेश करने से झरने जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। इससे प्रसन्नता होती है और अंतर्मुखी प्रवृत्ति बढ़ती है।
प्रथमे चिञ्चिणी गात्रं द्वितीये गात्रभञ्जनम्। तृतीये स्वेदनं याति चतुर्थे कम्पते शिरः॥
पञ्चमे स्त्रवते तालु षष्ठेऽमृतनिषेवणम्। सप्तमे गूढविज्ञानं परा वाचा तथाष्टमे॥
अदृश्यं नवमे देहं दिव्यं चक्षुस्तथामलम् दशमे परमं ब्रह्य भवेद्ब्रह्यात्मसंनिधौ॥ —महायोग विज्ञान
आदि में बादल बरसने, गरजने, झरनों के झरने, भेरी बजने जैसे शब्द होते है। मध्य में मर्दस, शंख, घण्टा मृदंग जैसे अन्त में किंकिणी, वंशी, वीणा, भ्रमर गुंजन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं। यह अनेक प्रकार के नाद हैं जो समय−समय पर साधक को सुनाई पड़ते रहते हैं।
मेघ नाद में शरीर में झनझनाहट होती है, चिण नाद में शरीर टूटता है, घण्टा नाद से प्रस्वेद होता है, शंखनाद से सिर झन्नाता है, तन्त्री नाद से तालु रस टपकता है, करताल नाद से मधुस्वाद मिलता है, वंशी नाद से गूढ़ विषयों का ज्ञान होता है, मृदंग नाद से परावाणी प्रस्फुटित होती है, मेरी नाद से दिव्य नेत्र खुलते हैं तथा आरोग्य बढ़ता है। उपरोक्त 9 नादों के अतिरिक्त दसवें ॐकार नाद में ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध जुड़ता है।
मकरन्दं पिबन् भृंगो मन्धं नापेक्षते यथा। नादासक्त तथा चित्तं विषयान्न हि काँक्षते॥90
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः। नियन्त्रणे समर्थोऽयं निनादनिशिताँकुशः॥91
बद्धं तु नादबन्धेन मनः संत्यक्त चापलम्। प्रयाति सुतराँ स्थैर्य छिन्नपक्षः खमो यथा॥92
सर्वचिन्ताँ परित्यज्य सावधानेन चेतसा। नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता॥93
नादोऽन्तरंगसारंगबन्धने वागुरायते। अन्तरंगकुरंगस्य वधे व्याधायतेऽपि च॥94
अन्तरंगस्य यमिनो वाजिनः परिधायते। नादोपास्तिरतो नित्यमवधार्या हि योगिना॥95
नादश्रवणतः क्षिप्रमन्तरंगभुजंगमः।विस्मृत्य सर्वमेकाग्रःकुत्रचिन्न हि धावति॥97
काष्ठे प्रवर्तितो वह्निः काष्ठेन सह शाम्यति। नादे प्रवर्तित चितं नादेन सह लीयते॥98
हठयोग प्रदीपिका 4/90 से 98 तक जिस प्रकार पुष्पों का मकरन्द पीने वाला भ्रमर अन्य गन्धों को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में रस लेने वाला चित्त, विषय सुखों की आकाँक्षा नहीं करता। 90
विषय रूपी बगीचे में मदोन्मत्त हाथी की तरह विचरण करने वाले मन को नाद रूपी अंकुश से नियन्त्रण में लाया जाता है।91
नाद रूपी बन्धन में बाँधे जाने पर पंख कटे हुए पक्षी की तरह मन स्थिर हो जाता। 92
योग साम्राज्य की इच्छा करने वाले को सब ओर से मन हटा कर सावधान चित्त से नादानुसंधान में लग जाना चाहिए। 93
मन रूपी हिरन को नाद बहेलिये की तरह अपने जाल में जकड़ लेता है।94
चंचलता घोड़े को जिस तरह दरवाजे में लगी अर्गला रोक लेती है, उसी तरह नाद चंचल मन को दौड़ने से रोक लेता है।95
जिस तरह साँप बिन की ध्वनि सुनकर सहलाने लगता है उसी तरह नाद की ध्वनि मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।97
काष्ठ में लगी हुई अग्नि काष्ठ के साथ ही समाप्त होती है। उसी तरह नाद में लगा हुआ चित्त नाद के साथ ही लय हो जाता है।98
नादानुसंधान समाधि मेकम्। मन्यामेह मान्यतमं लयानाम्॥ योग तारावली
लय योगों में सर्वश्रेष्ठ नादानुसंधान है। वह और समाधि एक ही है।