गर्मी गर्मी ही नहीं शान्ति और शीतलता भी आवश्यक है

March 1974

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ताप की उपयोगिता और शक्ति सभी को विदित है। चूल्हा और दीपक की आग चलाये बिना दैनिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती। सूर्य का ताप कपड़े सुखाने से लेकर मौसम गरम करने, उजाला फैलाने, पेड़ पौधे उगाने में, बादल वर्षा की व्यवस्था तक असंख्यों कार्य पूरे करता है। कल कारखानों से लेकर रेल मोटर तक ताप के प्रभाव से चलते हैं। तार रेडियो जैसे साधनों में बिजली का ताप ही काम करता है। धूपबत्ती जलाने से अग्निहोत्र तक और विवाह से लेकर अंत्येष्टि तक सभी कर्म− काण्डों में अग्नि की साक्षी आवश्यक है। स्पष्ट तथा गर्मी हमारे जीवन का प्राण है।

किन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि शील का महत्व भी ताप से कम नहीं है। जाड़े के दिनों में हमारा स्वास्थ्य हर ऋतु से अधिक अच्छा रहता है। जीवन विकास में ताप की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो पर उसी सुरक्षा और स्थिरता में शीत को ही प्रधानता देनी पड़ेगी।ठंडे देशों के निवासी गर्म क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ, सुडौल और सुन्दर पाये जाते हैं। इतना ही नहीं वे दीर्घ जीवी भी होते हैं। गर्म प्रदेशों में लड़कियाँ बहुत छोटी उम्र में रजस्वला होने लगती हैं साथ ही यह भी तय है कि उनका बुढ़ापा और मृत्यु काल भी जल्दी ही आ सकता है। इसके विपरीत ठंडे देशों में यह विकास क्रम थोड़ा धीमा भले ही चले पर दृढ़ता एवं स्थिरता निश्चिंतता रूप से अधिक रहेगी।

मस्तिष्क को ठंडा रखने पर सदा से जोर दिया जाता रहा है। सिर पर छतरी,टोपी लगाने का महत्व इसी दृष्टि से है कि उसे धूप गर्म न करने पाये। तेल चंदन आदि लगाने की बात इसीलिए सोची जाती है। कि शिर ठंडा रहे। विचारों में शान्ति और सन्तुलन की बात को मस्तिष्कीय शीतलता का प्रमाण समझा जाता है। शिवजी के शिर पर चंद्रमा की स्थापना और गंगा प्रवार का पौराणिक अलंकार यही बताया है कि महानता मस्तिष्कीय शीतलता के साथ जुड़ी हुई है। उत्तेजित उद्विग्न, चिन्तित,आवेश ग्रस्त और उद्विग्न मनुष्य अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते हैं और बेमौत मरते हैं योगीयति हिमालय जैसे शीतल प्रदेशों में अपनी तपश्चर्या करते हैं ताकि उस सौम्य वातावरण में आत्म−बल का विकास अधिक सरलता पूर्वक संभव हो सके। स्नेह, सद्भाव,सौजन्य, मधुरता, मृदुलता जैसी कोमल सत्प्रवृत्तियों से हिमानी शीतलता के साथ तोला और सराहा जाता है। चन्द्रमा की शीतल किरणों में अमृत धुला होने की चर्चा चिरकाल से सुनी जाती रही है।

स्नेही स्वजनों को कलेजे से लगाने में छाती ठंडी होती है। धन सम्पत्ति को ‘तरावट ‘ की संज्ञा दी जाती रही है। पौष्टिकता प्रदान करने वाले पदार्थ ‘ तर माल’ कहे जाते हैं। चाय काफी जैसे गर्म पेयों का प्रचलन कितना ही बढ़−चढ़ क्यों न गया हो, मलाई की बर्फ, कोकाकोला, सोडा शर्बत आदि की खपत भी कम नहीं है। मौसम जरा सा गर्म होते ही बर्फ एक दैनिक आवश्यकता बन जाती है। गर्मी के दिनों में लोग पहाड़ों पर भागते हैं और कूलर लगाकर काम चलाते हैं और पानी से भीगे खश के पर्दे दरवाजे पर टाँगते हैं। बिजली के और हाथ के पंखे गर्मी को ठंडक में बदलने के लिए हो प्रयुक्त होते हैं। बार−बार हाथ मुँह धोने और नहाने की जरूरत इसीलिए पड़ती है। गंगा यमुना जैसी सरिता सरोवरों का स्नान पुण्यफल प्रद इस मानी में तो है ही कि उससे ठंडक की अनुभूति तत्काल होती हैं।

यह सामान्य जीवन में शीत की उपयोगिता की बात हुई। विज्ञान अब ऐसे शोध प्रयासों में लगा हुआ है जिनके सहारे दीर्घ जीवन से लेकर अन्तरिक्ष यात्रा तक के अगणित महत्वपूर्ण प्रयोजनों को शीत के सहारों पूरा किया जा सके।

सन् 1967 में एक अमेरिकी अध्यापक जेम्स वेड फोर्ड को उसकी इच्छानुसार मृत्यु के उपरान्त दफनाया नहीं गया है वरन् उसके शरीर को शीत से जमाकर इस लिए सुरक्षित रख दिया गया है कि समयानुसार उस मृत शरीर को गरम करके पुनर्जीवित किया जा सके। शरीर में नाइट्रोजन द्रव को 196 शून्य से तापक्रम पर जमाया जाता है जबकि पानी,0,॰ ‘ से पर ही जम जाता है।

बूढ़े या मरणासन्न लोगों को शीत की स्थिति में बहुत वर्षों तक रखने के बाद उनके शरीर की थकान दूर की जा सकेगी— और उनमें विश्राम लाभ के कारण पुनः नवजीवन जैसी चेतना उत्पन्न की जा सकेगी ऐसा विश्वास शरीर विज्ञानियों को हो गया है और वे उपरोक्त सिद्धाँत को कार्यान्वित कर सकने का पथ प्रशस्त कर रहे हैं।

रूसी वैज्ञानिक पी. वैरञ्मेत्येव ने मछलियों को वर्षों तक शीत प्रसुप्त रखने के बाद उन्हें पुनर्जीवित करने में सफलता पाई है। इस संदर्भ में एक नया रसायन प्रकाश में आया है— ‘ऐन्टी मेटा वोलाइट्स ‘ इसे किसी शरीर में पहुँचा कर जीव कोषों की अधिकाँश प्रक्रियाऐं स्थिर की जा सकती हैं। यदि इस दिशा में एक कदम और आगे प्रगति हो सके और ‘ अधिकाँश’ को ‘सम्पूर्ण’ में परिणाम किया जा सके तो शीत प्रसुप्ति का कार्य इस रसायन प्रयोगों में भी संभव हो सकता है तब जर्जर शरीरों को बहुत दिनों तक विश्राम की स्थिति में रखकर उनकी थकान मिठाई जा सकेगी और कायाकल्प जैसा लाभ मिल सकेगा।

फ्राँसीसी विज्ञान वेत्ता जीनरास्टेण्ड ने पता लगाया था कि सुषुप्ति के समय − विश्राम देने और जीवन कोषों की रक्षा करने का प्रयोजन उस स्थिति से सहज उत्पन्न होने वाला रसायन ‘ग्लाइस काल’ काल पूरा करता है।

लम्बे समय की सुषुप्तावस्था उत्पन्न करने में एक भय यह है कि कहीं सोने वाले के खून में शीत की अधिकता के कारण थक्के न बनने लगे। सभी जानते हैं कि रक्त में उत्पन्न हुए थक्के हृदय की गति को रोक कर मरण संकट उत्पन्न कर सकते हैं। इसीलिए सोचा यह गया है कि लम्बे समय तक सोने वाले के शरीर से सारा असली रक्त निकाल लिया जाय और उसके स्थान पर नकली रक्त भर दिया जाय। नकली रक्त अब बनने लगा है। ग्लूकोज, नमक, आक्सीजन तथा दूसरे रसायनों को मिलाकर ऐसा द्रव बना लिया गया है जो रक्त की जगह काम दे सकता है और उसमें थक्के बनाने की आशंका नहीं रहती है।

शीतलता उत्पन्न करने वाले तरल रसायनों में डाइमेथिल सल्फ आक्साइड’ मुख्य है। इसे संक्षेप में डी.एस.एस. ओ. कहते हैं। दान में मिले नेत्र,गुर्दे, आदि अवयवों को किसी दूसरे के शरीर में फिर करने के लिए देर तक सुरक्षित रखना पड़ता है। इस स्थिति में अंगों की सड़न बचाने के लिए डी. एस.एस. ओ. को प्रयोग अभीष्ट प्रयोजन का बहुत सरल बना देता है।

मेंढक गर्मियों में गहरे कीचड़ में धँस जाते हैं। और कीचड़ के साथ साथ स्वयं भी सूख जाते हैं इस स्थिति में वे लगभग मृत जैसी सुषुप्ति में पड़े रहते हैं किन्तु बहुत ही मंद गति से धड़कन तब भी चलती रहती है। वर्षा होने पर कीचड़ नरम होती है तो इन मेंढकों में भी जीवन लौट आता है और शरीर को पूर्ववत् सक्रियता बनाने के लिए वे टर्राने लगते हैं कई जाति की मछलियाँ और साँपों को भी इसी तरह लम्बी सुषुप्ति में पड़े हुए पाया गया है। बर्फीले प्रदेश में रहने वाले भालू भी कड़ाके की सर्दियों में किसी गुफा में जाकर लम्बी नींद लेते हैं।

निम्रतापोत्पादिकी (क्रियोजोनिकक्स) के आधार पर मौत ही नहीं बुढ़ापे पर भी नियंत्रण कर सकना संभव हो जायगा इस विश्वास के साथ आज के वैज्ञानिक इन प्रयोगों में तत्परता पूर्वक लगे हुए हैं।

ताप की एक सीमा तक ही शरीर को आवश्यकता होती है यदि उसकी मात्रा बढ़ने लगे तो विपत्ति खड़ी हो जाती है। बुखार शरीर में बढ़े हुए ताप का ही नाम है। जिसके कारण काया दो चार दिन में ही चकमका जाती है। वाह्य जीवन में भी यही बात है वातावरण गरम होने से हलचलें बढ़ती है और शक्ति का अनावश्यक कारण होता है शीत में डडडड ढंग की क्षमता मौजूद है और वह हमारे लिए अनेक दृष्टियों से महत्व पूर्ण है न केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टि से वरन् भौतिक जगत में भी शीत की शक्ति अब अधिक अच्छी तरह पहचाने जाने लगी है।

भविष्य में अंतःग्रही यात्रायें में शीत को ही उपयोग किया जायगा। शनिग्रह तक आने जाने में कम से कम 12 वर्ष का समय लगने की आशा की गई है। इतने समय तक खाने पीने का सामान लेकर चलने वाला राकेट कितना भारी होगा और उसे छोड़ने चलाने के लिए कितने ईंधन की आवश्यकता पड़ेगी, इस विचार से तो वह यात्रा असंभव ही हो जायगी। इस समस्या का हल एक ही है कि डडडड को शीत में सुला दिया जाय और नियत समय पर स्वसंचालित यंत्र उसे गरम करके पुनर्जीवित करके डडडड आवश्यकतानुसार फिर सुला दें। इसी व्यवस्था में कोई चालक बारह वर्षों तक बिना खाये पिये रह रुकता है और अपनी यात्रा हलके यान से भी जारी रख सकता है।

वर्तमान वैज्ञानिक सफलताओं के अनुसार न्यूनतम तापक्रम 273 सेन्टीग्रेड तक का उत्पन्न किया जा सकता है। सामान्यतया ॰ सेन्टीग्रेड पर पानी बर्फ के रूप में जम जाता है। 100 से. पर वह भाप बन जाता है।273 शून्य परम ताप−शीत की अन्तिम स्थिति मानी तो गई है पर उसे अभी प्राप्त नहीं किया जा सका।

जूल थामसन पद्धति के अनुसार निम्रतापोत्पादिकी विज्ञान से कितने ही आश्चर्यजनक कार्य लिये जाने लगे हैं। गैसों को द्रव रूप में ही नहीं उन्हें ठोस रूप में भी जमा लिया गया है। हाँचड के विज्ञानी कामेरलिंध दोनेड ने शीत से उत्पन्न अति संवाहकता की शक्ति पर अनेक शोधें की हैं और भविष्य वाणी की है कि निकट भविष्य में ताप की प्रति द्वंद्वता शीत द्वारा कर सकना सम्भव हो जायगा। ताप को ही हर काम में वरिष्ठता नहीं मिलेगी वरन् शीत को भी उतना उपयोगी एवं शक्ति शाली अनुभव किया जायगा।

पात्रों को गैस रहित करना−अशुद्ध जल को शुद्ध बनाना−ऊँची तथा लम्बी उड़ान वाले राकेट चालकों के लिए श्वास सुविधा जुटाना, सूखी बर्फ बादलों पर छिड़क कर कृत्रिम वर्षा कराना, वस्तुओं को शीतल करके सुरक्षित रखना — आग बुझाने को कार्बन डाइआक्साइड का भंडार सुरक्षित रखना, धातुओं का परिशोधन − जैसे प्रयोजन से पिछले बहुत सालों से पूरे किये जा रहे हैं। कम्प्यूटर खरीदे जटिल संरचना वाले तथा डाटा प्रोमोसिंग यंत्रों के स्वसंचालित रखने को साधन जुटाना शीत शक्ति के सहारे अधिक सरल हो चला है। शक्ति शाली चुम्बकों का निर्माण करने के लिए भी नहीं पद्धति अधिक सरल पाई गई है।

वर्षा के गीत गाते हमें मुद्दत बीत गई। अब शीत के रहस्यों से भी हमें अययम होना चाहिए। युद्ध से लेकर व्यस्तता भरी भगदड़−तक के परिणाम चिरकाल से अनुभव में आते रहे हैं अब शान्ति, शीतलता, सौजन्य मृदुलता, मधुरता और सन्तुलन भरी दूरदर्शिता का आश्रय किया जाना चाहिए और देखना चाहिए कि शान्ति की दूरदर्शी रीति नीति प्रचण्ड उद्विग्नता से कम शक्ति शाली है या अधिक। शोधें हमें ताप के समान ही प्राप्ति की गरिमा से परिचित करायेंगी और तब यही उचित होगा कि हम शान्ति और क्रान्ति की समन्वयात्मक प्रक्रिया अपना कर सन्तुलित वातावरण उत्पन्न करें।


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