आत्मबोध ही ज्ञान साधना का लक्ष्य है। जिसने अपने को जान लिया, उसने संसार को इच्छानुकूल बनाने और पदार्थों तथा प्राणियों को उल्लास प्रदान कर सकने के भर्म को हस्तगत कर लिया।
दर्पण में अपनी ही छाया दिखाई पड़ती है, जैसे भी कुछ भले बुरे हम हैं,उसी के अनुरूप यह विशालकाय दर्पण—संसार हमें दृष्टिगोचर होता है। दुखज्ञान वश हम बाह्य परिस्थितियाँ अथवा बाहरी व्यक्ति यों को अपने सुख−दुख का, उत्थान−पतन का कारण मानते हैं पर वास्तविकता इस मान्यता से सर्वथा भिन्न है। जिस प्रकार समुद्र की अगणित लहरों पर एक ही चन्द्रमा के अगणित प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसार के अगणित प्राणियों एवं पदार्थों पर अपनी ही मान्यताएँ और क्रियाएँ अपनी ही भावनाएँ और प्रवृत्तियाँ थिरकती दिखाई पड़ती हैं।
दृष्टिकोण का दोष दूषण—जगत में प्रतिविम्बित प्रतिध्वनित होता है। इसलिए तत्वदर्शी सदा से यह कहते रहे हैं कि बाह्य परिस्थितियोँ में यदि सुधार करना हो तो उसका प्राथमिक सुधार आत्म−परिष्कार से आरम्भ करना चाहिए।
आत्म−परिष्कार का प्रयास आरम्भ करने से पूर्व अपना स्वरूप समझना होता है और किस प्रकार अपना आपा बाह्य जगत पर प्रतिविम्बित होती है, इस तथ्य को हृदयंगम करने की आवश्यकता पड़ती है। यही आत्मज्ञान है। इसी को आत्मबोध कहते हैं। अध्यात्म विज्ञान, का समस्त आवरण इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि मनुष्य अपने को जाने और उस तथ्य के आधार पर अपने चिन्तन एवं क्रिया कलाप का नये सिरे से निर्धारण करे।
इसी तथ्य को तत्व−दर्शियों ने अनेक वस्त्रों में अनेक प्रकार से लिखा कहा है। जिस प्रकार अक्षर ज्ञान अ, आ, इ, ई से आरम्भ होता है उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष, आत्म−साक्षात्कार और आत्म−कल्याण की ब्रह्म विद्या का, साधना विज्ञान का आरम्भ भी आत्मबोध से होता है। अपने आपको जानने के लिए गम्भीर चिन्तन, मनन अध्ययन और निदिध्यासन करने के लिए अग्रसर होने का निश्चय ही आत्म−साधना का—उपासना, तपश्चर्या और योगसाधना का प्रथम द्वार सोपान है। शास्त्रकारों का इस संदर्भ में निर्देश, परामर्श इस प्रकार है—
चिदचैत्याऽखिलात्मेति सर्वं सिद्धान्त संग्रह। एते निश्चयमादाय विलोक्य धियेच्छया॥78 स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानमानन्दं पदाप्स्यसि। महोपनिषद् 6।78
समस्त अध्यात्म शास्त्रों का सार इतना भर है—कि विषयों से मुक्त चित्त ही आत्मा है। सो स्वच्छ अन्तःकरण द्वारा अपने आप को ही देखो।
आत्मनि रक्षते सर्वं रक्षितं भवति। आत्मायत्तौ वृद्धि विनाशौ॥ चाणक्य सूत्र 1। 82, 83
अपनी रक्षा करने से सबकी रक्षा होती है। वृद्धि या विनाश करना अपने हाथ की बात है।
अपने आप को सत्−चित−आनन्द स्वरूप परमात्मा का पवित्र अंश माना जाना चाहिए और काय−कलेवर के साथ जुड़े हुए इन्द्रिय समूह को−मन, बुद्धि, चित्त, अहं का के अन्तःकरण चतुष्टय को अपना वाहन, उपकरण सेवक स्तर का प्रयोग साधन मात्र मानना चाहिए। इस मान्यता की जितनी परिपक्वता होती है, आत्म और अनात्म के भेद जितनी गहराई तक अन्तःकरण में निष्ठा बन कर प्रतिष्ठित होता है, उतने ही अंश में आत्मबोध प्राप्त हुआ समझा जाना चाहिए। कहने, सुनने और पढ़ने जानने में तो आत्मा और अनात्मा का, ज्ञान और अज्ञान का अन्तर प्रायः हर कोई समझता है पर अन्तःबोध प्रायः भ्रमग्रस्त स्थिति में ही रहता है। जीव अपने को शरीर मात्र अनुभव करता है और उसी के सुख−साधन जुटाने में जीवन सम्पदा को नियोजित किये रहता है। ऐसे ज्ञानवानों को भी अज्ञानी ही कहना चाहिए। आत्मबोध का उदय आत्म और अनात्म तत्व की स्पष्ट एवं सघन मान्यता से ही आरम्भ होता है और वह मान्यता इतनी प्रबल होती है कि आत्मज्ञानी अपने चिन्तन एवं क्रियाकलाप को आत्मानुगामी, परमार्थ परायण बनाये बिना रह ही नहीं सकता। ऐसे ही यथार्थ आत्मज्ञान का स्वरूप समझाते हुए शास्त्र कहता है—
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया। इति शुश्रुम धीराणाँ ये नस्तद् विचचक्षिरे॥10 ईश 10
ज्ञान और अज्ञान के, अवलम्ब के परिणाम अत्यन्त भिन्न हैं। यह अनुभव हमने उनसे सुना है जिन्होंने तत्व का गहन अवगाहन किया है।
अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः। इदं ब्रह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि॥
मेरे मुख में चारों वेदों का ज्ञान है, मेरी पीठ पर वाणों सहित धनुष टँगा है। मैं ब्राह्म−शक्ति से शाप देकर और क्षात्र−शक्ति से शिरच्छेद कर−दोनों शक्तियों द्वारा−शत्रु को पराभूत करने में समर्थ हूँ।
त्वं राजा सर्वलोकस्य पितुः पुत्रो रिपो रिपुः। यत्न्याः पतिः पिता सूनो कस्त्वाँ भूप वदाम्यहम्॥36
त्वं किमेतच्छिरः किं तु शिरस्तव तथोदरम्। किमु पादादिकं त्वं तवैतत्कि महीपते॥36
समस्तावयवेभ्यस्त्वं पृथम्भूतो व्यवस्थितः। कोऽहमित्यत्र निपुणं भुत्वा चिन्तय पार्थिव॥ तुच्छुत्वोच राजा तमवधूत द्विजं हरिम्॥38 अग्नि पुराण (अद्वैत ब्रह्म)
तू इस विश्व वसुधा का शासक है। पिता का पुत्र है। शत्रु का शत्रु है। पत्नी के लिए पति है। पुत्र के लिए पिता है। बता तुझे मैं क्या कह कर पुकारूं?
क्या तू शिर है—नहीं, शिर तो तेरा है। क्या तू पेट है−नहीं, पेट तो तेरा है। क्या तू पैर है−नहीं, पैर तो तेरा है? यह समस्त अंग तेरे उपकरण मात्र है। तू इससे कुछ पृथक ही है। हे मिट्टी के पुतले! मैं कौन हूँ, इस पर अत्यन्त गम्भीरता और सावधानी के साथ विचार कर।
नाहं पदार्थस्य न में पदार्थ इति भावेत॥42 अन्तःशीतलया बुद्ध़् या कुर्वतो लीलया क्रियाम्। महोपनिषद् 6।43
न मैं इन पदार्थों का हूँ और न ये मेरे हैं। अन्तःकरण में शान्ति और प्रफुल्लता प्राप्त करो।
आत्मा का विकसित, परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीव की सुविकसित स्थिति का नाम ही ब्रह्म है। अज्ञान जन्य अन्धकार से निवृत्त हो जाने का नाम ही आत्म−साक्षात्कार अथवा ईश्वर दर्शन है। यह प्रक्रिया अपने से बाहर संसार में अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं। तीर्थ, गुरु, सत्संग आदि से मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन भर मिलता है। अभीष्ट वस्तु की उपलब्धि तो अपने भीतर अन्तःकरण में ही होती है। तप करने से लेकर ईश्वर दर्शन करने तक का प्रयोजन पूर्ण करने के लिए हृदय गुफा रूपी तीर्थ को, तपोवन को ही एक मात्र उपयुक्त स्थान माना गया है।
हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः हृदि प्राणइच ज्योतिश्च त्रिवृत्सूत्रं च तद्विदुः॥ हृदि चैतन्येतिष्ठति॥4
यजोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्य्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥5 ब्रह्मोपनिषद् 4−5
हृदय में समस्त देवता निवास करते हैं। हृदय में ही प्राण और प्रकाश है। परमात्मा के इन तीन आधारों की अभिव्यक्ति के लिए यज्ञ सूत्र यज्ञोपवीत पहना जाता है।
हृदय में परब्रह्म का निवास है। यह तथ्य यज्ञोपवीत प्रकट करता है। जो तथ्य को जानता है वही देवेश ब्राह्मण है।
नवद्वारे पुरे देहि है सो लेलयात वहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥18 श्वेताश्वन
सम्पूर्ण स्थावर-जंगम विश्व का नियामक परमेश्वर नौ द्वार वाले देह रूप पुर में स्थित हृदय में निवास करता है और बाह्य संसार में भी वही क्रीड़ा कर रहा है॥18
तस्मादिदं गुहेव हृदयम्। शतपथ 11।2।6।5
यह हृदय ही गुफा है।
अणोरणीयान् महतो महीया− नात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम्। तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमा महात्मनः॥ (कठ 2।20)
छोटे से भी वह छोटा है बड़े से भी बड़ा है, इस जीव की हृदय रूपी गुफा में वह विराजमान है। उस परमात्मा की महिमा को उसी परमात्मा की कृपा से कामनाशुन्य वीतशोक पुरुष देखते हैं।
एवं हियो वेद गुहाशयं परं प्रभुँ पुराण पुरुषं विश्वरुपम्। हरणमयंबुद्धिमताँपरांगर्तिसबुद्धिमान्− बुद्धिमतीत्यतिश्ठति।18
इस आत्म गुहा में आश्रय वाले उस परम प्रभु−पुराण पुरुष−विश्वरूप−हिरण्यमय तथा बुद्धिमानों की परागति के स्वरूप वाले आत्मा को जो जानता है वही वस्तुतः बुद्धिमान है और वह बुद्धि का अतिक्रमण करके ही स्थित रहा करता है॥18॥
अपने को परमात्मा का अविनाशी अंश मानकर जीवन नीति निर्धारण करना ही जीवन मुक्ति का एक मात्र साधन है। इसके विपरीत जो शरीराभ्यास में निमग्न रह कर अपने आप को देहधारी मात्र मानते हैं और भौतिक सुखों के लिए आत्मकल्याण के लिए अभीष्ट गति−विधियाँ अपनाने से इन्कार करते हैं उन्हें आत्म−हत्यारा, आत्म हननकर्त्ता, माया, मोह ग्रस्त अज्ञानी जीव कहा है ऐसे पथ−भ्रष्ट लोगों की भर्त्सना करते हुए शास्त्र कहता है−
आत्मज्ञान प्राप्त मनुष्य का घर ही तपोवन बन जाता है। अन्तर की महानता घर−परिवार से लेकर समीपवर्ती कार्य व्यवसाय में भी आनन्द, उल्लास का, उत्कृष्टता का वातावरण उत्पन्न करती है और उन परिस्थितियों में रहता हुआ मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और अपने आप को सब प्रकार धन्य हुआ अनुभव करता है।
वसिष्ठोस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि। वसिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धिमाम्॥ महाभारत
घर में रहते हुए भी मैं वरिष्ठ हूँ। सबमें बसा हुआ हूँ। सब मुझमें बसते हैं। इससे मैं वसिष्ठ हूँ।
यह विशिष्टता ही वशिष्ठ का ऋषिपद प्रदान करती है और वह अन्तःभूमिका प्रदान करती है जिसमें मनुष्य अपने आप को धन्य अनुभव कर सके। आत्म−परायण व्यक्ति उद्घोष करता है।