अपनों से अपनी बात - शान्ति कुँज में पाँच स्तर के शिक्षण शिविरों की शृंखला

March 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नव-निर्माण इस युग की सबसे बड़ी माँग, पुकार तथा आवश्यकता है। इसकी सफलता-असफलता पर मानव समाज का उज्ज्वल भविष्य तथा महाविनाश पूरी तरह अवलंबित है। यों प्रगति के कई तरह के सपने सँजोये गये है और कई तरह के सरकारी, गैर सरकारी प्रयास आरम्भ किये है पर उनमें इस मूल तथ्य को एक प्रकार से भुला ही दिया गया है कि यदि जन-मानस की भावनात्मक स्थिति में उत्कृष्टता का समावेश न किया गया तो

बढ़ी हुई सम्पदा, विद्या, प्रतिमा एवं विज्ञान की उपलब्धि केवल पतन एवं विनाश का ही आधार बनेगी। भावनात्मक नव-निर्माण के बिना प्रगति के स्वप्न कभी भी साकार न हो सकेंगे। प्रयासों के भौतिक प्रगति एवं सामाजिक शान्ति के आधार स्वयमेव बनने लगेंगे।

जितनी गहराई से वस्तु पर विचार किया जायगा, उतना ही अधिक सुनिश्चित निष्कर्ष यह निकलेगा कि विश्व -कल्याण के लिए लोकमानस में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग, उपाय है नहीं। विडम्बनाओं में हम भटकते कितने ही क्यों न रहें प्रगति और शान्ति का लक्ष्य प्राप्त तभी किया जा सकेगा जब भावना तक नवनिर्माण की महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए सच्चे गहरे और व्यापक स्तर पर प्रयत्न किये जाँय। युगनिर्माण योजना द्वारा यही किया जा रहा है। समय ही बतायेगा कि जब सब और उत्कर्ष के लिए प्रचलित प्रयासों में नहीं सबसे बड़ी और सबसे भयंकर कभी अथवा भूल है कि उसमें मनुष्य के उस मर्मस्थल को विकसित करने का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है जो सर्वतोमुखी प्रगति का एक मात्र आधार है। मानवी अन्तःकरण अविकसित एवं निकृष्ट स्तर पर पड़ा रहे तो उपलब्ध सम्पदाएं सुख-शान्ति का कारण नहीं बन सकेंगी वरन् अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देगी फलस्वरूप स्थिति उससे भी अधिक भयावह हो जायगी जो अभाव-ग्रस्त अथवा पिछड़ेपन की स्थिति में बनी हुई थी। इस भूल को मात्र युग-निर्माण योजना ने सुधारने की दिशा में साहसिक कदम बढ़ाया है। उसकी विचारक्रान्ति नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति की त्रिविधि योजनाएं यदि सफल होती है तो बिना किन्हीं अतिरिक्त अन्धेरे में भटकना ही बन पड़ रहा था। तब एक सही प्रयास भी चला था और उसने अपने स्वल्प साधनों से ही चमत्कार प्रस्तुत किया था। आज अपना अभियान छोटे रूप में दिखाई पड़ सकता है और नगण्य एवं उपहासास्पद लग सकता है पर कल ऐसा समय आकर ही रहेगा, जब इस अंकुर को विशाल वट वृक्ष के रूप को सुविकसित देखा जा सके और उसकी छत्र छाया में समस्त मानव जाति को शान्तिमय विश्राम पाने का अवसर मिल सके।

नव-निर्माण अभियान का प्रायः सारा ही उत्तरदायित्व अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों को वहन करना पड़ रहा है। उन्हीं ने शाखा संगठनों की स्थापना की है और प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाया है। मनुष्य में देवत्व के उदय के लिए-धरती पर स्वर्ग के अवतरण के लिए अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक सदस्य को सृजन सेना को सृजन सेना का सैनिक बनना है यह अपने महान परिवार की गौरवशाली परम्परा के सर्वथा अनुकूल ही है।

इन प्रयासों को अधिक गतिशील बनाने के लिए शाँति कुँज में प्रेरणा भरे प्रशिक्षणों की शृंखला गत एक वर्ष से चल पड़ी है। इसका प्रभाव परिणाम आश्चर्यजनक रूप से सामने आया है। गत वर्ष बसन्त पर्व से प्राण प्रत्यावर्तन सत्र की शृंखला आरम्भ की गई थी। उसमें साठ शिविर हुए। आत्मिक स्तर की दृष्टि से अधिकाँश व्यक्ति ऊंचे स्तर के ही उनमें सम्मिलित हुए। कहना न होगा कि वे जितना और जिस स्तर का आत्मबल लेकर गये उससे उनके निज के व्यक्तित्व उभरे और उपलब्ध प्रकाश ने उन्हें लोकमंगल की युग साधना में अधिक तत्परता एवं सफलता के साथ संलग्न किया। यही खुला रहस्य है कि इस सब शृंखला से लौटे हुए व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्रों में जन-जागृति का भावनात्मक पुनरुत्थान का प्रयोजन सफलता के साथ सम्पन्न कर रहे है। यों तो गंगाजल की लहरों पर भी कूड़ा करकट बहता पाया जाता है, ऐसे तो कुछ शिक्षार्थी इन सबों के भी ऐसे हो सकते है जो मुँह बन्द सीप की तरह स्वाँति नक्षत्र की वर्षा का लाभ ले सकने में असमर्थ असफल रह गये हो। उपरोक्त प्रशिक्षण शृंखला क इस वर्ष कुछ और नये चरण बढ़ाये गये है। इनमें प्रथम चरण है वरिष्ठ और कनिष्ठ वानप्रस्थों की शिक्षा। गत जुलाई 73 की अखण्ड-ज्योति में वानप्रस्थ प्रचलन के पुनरुत्थान का शंखनाद किया गया था। जनवरी 74 का अंक भी उसी प्रयोजन का पूरक था। इन दो अंकों को पढ़ने के बाद अखण्ड-ज्योति परिवार का भावनाशील वर्ग उसी प्रकार उभर कर आया है जिस तरह दूध गरम करने पर मलाई ऊपर तैरने लगती है।

समय की पुकार को जागृत आत्माएं अनसुनी नहीं कर सकती। उनके अन्तरंग में विद्यमान उत्कृष्टता परिक्षा की घड़ी में मूर्छित नहीं पड़ी रह सकती। उसमें प्रखरता का उभार आना ही चाहिए सो आया भी है। विचार एक वानप्रस्थ शिक्षण सब चलाने का था पर बढ़ी संख्या को देखते हुए वे चार करने पड़े। 20 जनवरी से 20 मई की अवधि में चार सबों का प्रबन्ध किया गया है। लगता है आवेदनकर्ताओं में से जा छाँट की गई है, उन सबको इन चार सबों में भी स्थान न मिल सकेगा। उनके लिए दिवाली बाद सम्भवतः कुछ सब और लगाने पड़ेंगे। यह सन् 74 की योजना हुई। सन् 75 में इससे भी बड़ी तैयारी करनी पड़ सकती है।

निस्सन्देह यह एक बहुत बड़ा प्रयास है। वानप्रस्थ परम्परा को यदि पुनर्जीवित किया जा सका तो भारतीय संस्कृति का विपयाधोष ने केवल भारत में वरन् विश्व के कोने-कोने में हो सकना सुनिश्चित है। यह एक अद्भुत चरण है कि पारिवारिक उत्तरदायित्व रहते हुए भी लोग थोड़ा-थोड़ा समय उस महान मार्ग पर चलने के लिए देने लगे और प्रतिज्ञा करे कि उपयुक्त अवसर आते ही वे पूरी तरह मैदान में कूद पड़ेंगे। स्वल्पकालीन सेवा संन्यास इस युग की अनोखी उपलब्धि है। लोकसेवी सेना में जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों के कारण पूरा समय नहीं दे सकते वे थोड़े समय के लिए उन उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए आगे आयेंगे तो देर-सवेर में उन्हें भी शर्म आयेगी जो घर की जिम्मेदारियों से छुटकारा पा गये पर लोभ और मोह की कृपणता के कारण परमार्थ प्रयोजनों में लगने का साहस नहीं जुटा पा रहे है। कनिष्ठ वानप्रस्थ परम्परा को अपने परिवार की एक अनुपम और अभिनव उपलब्धि कहा जा सकता है। व्यस्तता के बीच तप, त्याग के लिए, इस दुस्साहस को भावी पीढ़ियाँ हजार मुख से सराहे बिना न रहेंगी।

शान्ति कुँज की प्रशिक्षण शृंखला की दूसरी कड़ी है लेखक सब। उसे 20 मई से 20 जून तक एक महीने के लिए लगाया गया है। जो आवेदन पत्र आये है उन्हें देखते हुए सम्भवतः सब जुलाई में भी एक और लगाना पड़े। यह आवश्यक है कि प्रौढ़ परिष्कृत मस्तिष्क आरम्भ करे और जो कार्य अपनी थोड़ी सी पत्रिकाएं करतरी है वही कार्य भारत में विभिन्न भाषाओं में छपने वाले प्रायः सात हजार पत्र-पत्रिकाओं द्वारा न्यूनाधिक रूप से आरम्भ हो जाय। अपना प्रकाशित प्रतिपादन इतना अधिक है कि अर्चना उसी को उलट−पुलट कर यदि एक हजार लेखक बताये हुए ढंग से लिखना आरम्भ कर दें तो उनके लिए जीवन भर लिखते रहने जितना आधार मौजूद मिलेगा। अपनी थोड़ी सी थोड़ी संख्या में छपने वाली पत्रिकाओं ने जब इतना आलोक फैलाया है तो भारत के समस्त पत्रों को ऐसी ही सामग्री छापने के लिए सहमत करने पर तो इससे भी हजारों गुना अधिक कार्य हो सकेगा।

विभिन्न भाषाओं में नवयुग की आवश्यकता पूरी कर सकने वाला साहित्य अगले दिनों लिखा जाना चाहिए। काव्य की धारा तो इस दिशा में प्रायः अवरुद्ध ही है। जो कविताएँ इन दिनों लिखी गई या छपी है उनमें से अधिकाँश ऐसी हैं जिनसे युग−परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने में तनिक भी सहायता नहीं मिलती। शिक्षितों के लिए साहित्यिक और अशिक्षितों के लिए क्षेत्रीय बोलियों में लोक−गायन लिखे ही जाने चाहिए, उनका प्रकाशन होना ही चाहिए। पत्र−पत्रिकाओं में लेखन पुस्तिका का सृजन—कविताओं एवं लोक−गायनों की संरचना उनका प्रकाशन करने का कार्य हाथ में न लिया गया तो युग की बौद्धिक क्षुधा कैसे तृप्त की जा सकेगी। निस्संदेह वह एक अत्यन्त विशाल और अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र है। लेखनी की शक्ति की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उसे उभारने और दिशा देने के लिए बहुत कुछ करना होगा और वह भी विशाल परिमाण में। इसी प्रकार का शिक्षण करना तथा प्रसार के आधारों को विनिर्मित करना लेखन सत्रों का प्रयोजन है।

आज तो साधनहीन स्थिति में एक−एक महीने के लिए सत्र चलाये जा रहे हैं। क्या वानप्रस्थ और क्या लेखक सभी को स्वल्प शिक्षा देकर तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए लड़ाई के मोर्चे पर भेजा जा रहा है। पर इतना पर्याप्त नहीं है। अगले दिनों इन सब कार्यों के लिए विश्वविद्यालय स्तर की सर्वांगपूर्ण शिक्षा व्यवस्था जुटानी पड़ेगी। सुयोग्य प्रतिभा विकसित करने के लिए और समय साधन दोनों ही चाहिए। ईश्वर की कृपा हुई तो वैसे साधन भी जुटेंगे उस प्रतीक्षा में बैठे तो नहीं रहा जा सकता। जितने स्वल्प साधन थे उन्हें देखते हुए एक−एक दो−दो महीने के सत्र ही आरम्भ कर दिये गये हैं। शुभारम्भ श्रीगणेश करने की दृष्टि से यह भी बुरा क्या है।

जन−गायन युग की तीसरी आवश्यकता है। संगीत की—काव्य की हृदयस्पर्शी प्रभाव−गरिमा से कौन इनकार करेगा। भावस्तर को छूने की उसमें अद्भुत क्षमता है। अन्तरंग की कोमल भावनाओं को उभारने और सरस संचार को उद्वेलित करके चिन्तन को उलट देने की सामर्थ्य गीतवाद्य में मौजूद है। भावों की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी है। उसकी वीणा का अर्थ है संगीत—पुस्तक का अर्थ है साहित्य। लेखनी और वाणी के माध्यम से ही मनुष्य की हत्तन्त्री को झंकृत किया जाता रहा है और भविष्य में भी इन्हीं माध्यमों से वह महान प्रयोजन पूरा किया जाता रहेगा।

गीत कला को आज शृंगार के चाण्डाल की क्रीतदासी बना दिया गया है समय आ गया कि उसे मुक्ति दिलाई जाय और देव−पूजन में नियोजित किया जाय। इसके लिए समग्र साध्य शास्त्रीय संगीत के झंझट में पड़ने की अपेक्षा सुगम संगीत की स्वल्प अवधि में अभ्यस्त हो सकने वाली सरल चैली काम में लानी पड़ेगी और गीत ऐसे देने पड़ेंगे जो सुनने वालों का भावनास्तर उलट कर रख दें। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए शान्ति कुँज में तीन तीन महीने के संगीत शिविर चलेंगे, उनमें गायन एवं वाद्य का इतना अभ्यास करा दिया जायगा कि शिक्षार्थी किसी भी सभामञ्च को सम्भाल कर भाव−प्रवाह बहा सकने में समर्थ हो सके।

वाणी द्वारा भावनात्मक नव−निर्माण करने के लिए वकृत्व और संगीत के माध्यम अपनाये जाने आवश्यक हैं। वानप्रस्थ सत्रों को उद्देश्य आदर्शवादी प्रवचनकर्ताओं को तैयार करना है। संगीत सत्रों के शिक्षार्थी गीत−वाद्य के माध्यम से उसी वाक् शक्ति का प्रयोग करेंगे। लेखन सत्र का उद्देश्य कलम की प्रतिभा को निखारना है। स्पष्ट है कि कोई मात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने से ही लेखक नहीं बन जाता, यह एक अतिरिक्त कला है। सोने की डली कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो स्वर्णकार की कलाकारिता के बिना उसे सुन्दर आभूषणों के रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। सुशिक्षित होना एक बात है और सफल लेखक होना बिलकुल दूसरी बात। आज लेखनी की शक्ति को उभार कर उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त करना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। नव−निर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए इस सम्बल की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए एक−एक महीने के सामयिक लेखक सत्र लगाये जा रहे हैं। यों यह अवधि अत्यन्त स्वल्प है पर युद्धकाल के आपत्तिकालीन संकट में रंगरूट भर्ती करके बन्दूक चलाने की शिक्षा एक महीने में दे दी जाती है और उन्हें लड़ाई के मोर्चे पर भेज दिया जाता है ठीक वैसा ही प्रयास हमें करना पड़ रहा है। समय की माँग इतनी प्रबल है कि कोई देर में पूरी हो सकने वाली योजना हाथ में नहीं ली जा सकती। सबकुछ आपत्तिकालीन आवश्यकता को—आपत्ति−धर्म को ध्यान में रख कर करना पड़ रहा है। स्वल्पकालीन शिक्षा सदा ही अपर्याप्त रहती है यह स्पष्ट है। पर इन परिस्थितियों में और कुछ किया भी नहीं जा सकता। दीर्घकालीन समग्र शिक्षा के लायक न तो अपने पास साधन है और न उनके लिए प्रतीक्षा करते रहने का समय ही शेष है। प्रशिक्षण सत्रों की शृंखला इसी विवशता में चलानी पड़ी है।

इसी शृंखला की चौथी कड़ी है नारी जागरण के लिए युग−देवियाँ तैयार करना। भारत में नारी का कार्यक्षेत्र कुछ अलग जैसा है उसकी समस्याएँ भी भिन्न हैं। उनके उत्कर्ष के लिए कार्य भी अलग ढंग से करना पड़ेगा और उसकी संचालन व्यवस्था नारी को ही सोंपनी होगी। घरों में कैद, पर्दे के निविड़ बन्धनों में जकड़ी हुई, अशिक्षित और रूढ़िग्रस्त संस्कारों से अस्त−व्यस्त भारत की औसत नारी को सन्तानोत्पादन और पाक कर्म करने के लिए बाधित असहाय प्राणी के रूप में रहता पड़ रहा है। आधी जन−संख्या को इस स्थिति से उबारना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। उसे हाथ में न लिया गया तो आधा भारत पददलित स्थिति में ही पड़ा कराहता रहेगा। नव निर्माण की दृष्टि से नारी जागरण के लिए विशेष रूप से—अतिरिक्त रूप में कार्य करना पड़ेगा।

कन्याएँ स्कूल पढ़ने जाने लगी हैं और उनके लिए सरकारी गैर सरकारी स्कूल खुलने लगे हैं सो ठीक है, इसका प्रभाव भी देन−सवेरे में पड़ेगा ही पर आवश्यकता तो वर्तमान पीढ़ी की भी है। हमें आजीविका आवश्यकता को ध्यान में रख कर वे प्रयत्न भी हाथ में लेने होंगे जो अगले ही दिनों अपना प्रभाव परिणाम प्रस्तुत कर सकें इसके लिए गली−गली, मुहल्ले, गाँव−गाँव महिला प्रौढ़ पाठशालाएँ चलानी पड़ेगी। विवाहित महिलाओं को पास मध्याह्नोत्तर प्रायः दो तीन घण्टे की फुरसत घरेलू कामों से मिलती है उसी समय में उन्हें साक्षर ही नहीं सामने प्रस्तुत अगणित समस्याओं के समाधान में समर्थ भी बना सकने वाली शिक्षा देने वाली इन पाठशालाओं का जाल पूरे देश में बिछाना पड़ेगा।

संगठन की दृष्टि से महिला समितियाँ और प्रचार की दृष्टि से महिला सम्मेलनों विचार गोष्ठियों एवं शिक्षण सत्रों की योजना बड़े पैमाने पर बनानी पड़ेगी। इन माध्यमों से स्थिति को ध्यान में रखते हुए वह सब कुछ सिखाया जायगा, जिसकी उन्हें अपने लिए, अपने परिवार और देश के लिए सीखना, जानना आवश्यक है। संगठित रूप से ही वे आगे बढ़ सकेंगी। भारतीय नारी समस्याओं को हल कर सकने वाला साहित्य तो अभी किसी ने लिखा ही नहीं है। जो छुट−पुट लिखा गया है वह पच्छिम वालों की किताबों से लिया हुआ ऐसा उच्छिष्ट है जो अपनी नारी के लिये कूड़ेकरकट से अधिक और कुछ सिद्ध नहीं हो सकता। नारी जागरण की आवश्यकता पूरी कर सकने वाले साहित्य का सृजन भी इसी शृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी है। संगठन, प्रचार और प्रशिक्षण की ही तरह इस दिशा में भी अगले दिनों बड़े कदम उठाने पड़ेंगे।

इन प्रयोजनों के लिए शिक्षित नारी को आगे आना चाहिए। प्रौढ़ पाठशालाएँ तो बाल−बच्चे वाली स्थानीय शिक्षित महिलाएँ भी चला सकती हैं पर उन्हें भी तो इस कार्य की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए। घर छोड़ कर वे बाहर नहीं जा सकती उन्हें जो सिखाया जाय, स्थानीय ही होना चाहिए। इसके लिए ऐसी प्रचारिकाओं की आवश्यकता पड़ेगी जो युग−निर्माण शाखाओं में जाकर स्थानीय महिलाओं को महिला जागरण की गतिविधियों के संचालन की शिक्षा दे सकें। नारी जागरण का शंख बजाने वाली इन नारियों को युग−देवियाँ कह सकते हैं।

अपने देश में नारी शक्ति का ऐसा बड़ा भाग है जो सुयोग्य होते हुए भी निरुपयोगी स्थिति में पड़ा हुआ है। ऐसी विधवाओं परित्यक्ताओं की कमी नहीं जो घर−परिवार वालों के लिए भार रूप होकर जी रही है। ऐसी कुमारिकाओं की भी कमी नहीं जिनके विवाह का सुयोग्य रूप दहेज अथवा दौड़−धूप की कमी के कारण अभी तक नहीं बन सका वयस्क हो गई और आगे भी उनके विवाह की कम सम्भावना है। नौकरी−चाकरी करके वे पेट पालना चाहती हैं पर उससे भी क्या बनेगा, जीवन का कोई सरस सदुपयोग तो इसमें भी नहीं है। इस प्रकार की महिलाएँ यदि सुशिक्षित हो तो उन्हें नारी आचरण के लिए जाना चाहिए। जिनके कन्धों पर बच्चों की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं वे ही इस दिशा में कुछ कहने लायक काम कर सकती है। यही भली प्रकार ध्यान रखा जाना चाहिए।

शान्ति कुँज की अभिनव शिक्षण शृंखला में नारी जागरण सत्रों को भी सम्मिलित रखा गया है। वे तीन−तीन महीने के लिए चला करेंगे। प्रत्यावर्तन सत्रों की एक वर्षीय शृंखला तो पूरी हो गई पर आगे भी समय−समय पर उनकी व्यवस्था की जाती रहेंगी।

सार रूप से यह समझा जा सकता है कि अगले दिनों शान्ति कुँज में समय−समय पर शिक्षण शिविरों की जो शृंखलाएँ चलेंगी उनमें पाँच प्रमुख हैं [1] प्राण प्रत्यावर्तन सत्र [2] वानप्रस्थ सत्र [3] लेखक सत्र [4] संगीत सत्र [5] महिला जागरण सत्र। इनमें से प्रत्यावर्तन सत्र पाँच−पाँच दिन के—वानप्रस्थ सत्र दो महीने के, संगीत सत्र तीन महीने के, महिला सत्र तीन महीने के होते रहेंगे। कब कौन सा सत्र चलाया जाय यह आवेदनकर्ताओं की संख्या और समय की आवश्यकता को देख कर निश्चित किया जाता रहेगा। फिलहाल कुछ महीनों की जो योजना बनाई गई है वह इस प्रकार है [1] वानप्रस्थ सत्र चार हैं जो क्रम से 20 जनवरी से, 20 फरवरी से, 20 मार्च से एवं 20 अप्रैल से आरम्भ होंगे। लेखक सत्र 20 मई से 20 जून तक का है। संगीत सत्र 1 जुलाई से 30 सितम्बर तक चलेगा। प्रत्यावर्तन सत्र अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर में चलेंगे। जुलाई में लेखन शिविर या प्रत्यावर्तन सत्र की भी व्यवस्था की जा सकती है। नारी जागरण का पहला सत्र 1 जुलाई से आरम्भ होकर 30 सितम्बर तक चलेगा। यह आगामी सितम्बर तक का कार्यक्रम निश्चित हुआ है। भविष्य में कौन शिविर कब चलाया जाय, यह आवश्यकता एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए निश्चित किया जाता रहेगा।

अखण्ड−ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह मान कर चलना चाहिए कि इस सत्रश्रृंखला को सफल बनाने के लिए उसे विशिष्ट उत्तरदायित्व सौंपा गया है। अपने व्यक्ति गत कामों के लिए जितनी चिन्ता और दौड़−धूप की जाती है उतनी ही इस महान् प्रयोजन की पूर्ति के लिए भी रखी जानी चाहिए। उपरोक्त पाँचों सत्रों में से जिनमें स्वयं सम्मिलित हो सकने योग्य अपने को समझें, उसके लिए स्वयं साहस संजोये और यह प्रयत्न करें ज्ञान−गंगा के इस पुनीत पर्व का लाभ सेना उसके लिए भी आवश्यक है। इन पंक्तियों द्वारा प्रत्येक अखण्ड−ज्योति सदस्य को अपनी पात्रता एवं परिस्थिति के अनुरूप उपरोक्त सत्रों में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। उन्हें यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि अपने संपर्क एवं प्रभाव क्षेत्र में जो उस शिक्षा के लिये सर्वथा उपयुक्त हो उन्हें प्रेरणा दे कर इसके लिए तैयार करें। यह सभी शिक्षार्थी ऐसे होने चाहिए जो कम से कम एक वर्ष से अखण्ड−ज्योति एवं युग−निर्माण पत्रिकाएँ नियमित रूप से पढ़ते रहे हों बिलकुल अजनबी आदमी जिनने अपना मिशन पढ़ा, समझा नहीं उन्हें इस शिक्षा के लिए खदेड़ देना एक बेकार का शिर दर्द खड़ा कर देना है। ऐसी भूल कहीं भी नहीं की जानी चाहिए।

शिक्षण सत्रों के संचालन का पुराना अनुभव उस कटु स्मृति को ताजा कर देता है जिसमें अनधिकारी लोगों के धुरा पड़ने के कारण अव्यवस्था फैली ली—शक्ति नष्ट हुई और खीज ही पल्ले पड़ी। आगे से ऐसा न होने पावे इसके लिए पूरी सतर्कता बरती जानी चाहिए। वानप्रस्थ का मतलब यह समझा जा सकता है वे बूढ़े, अशक्त, अपंग लोग मरने से पहले भजन करने के लिए गंगा तट पर रहेंगे। बुढ़िया को साथ लेकर चलेंगे और वहीं कथावार्ता सुना करेंगे। ऐसे लोगों को वानप्रस्थ मान कर स्थान घेर दिया जाय तो देश−विदेश में जन−जागृति का शंख बजाने वाले कर्म−वीर लोगों के लिए स्थान कहाँ बचेगा? लेखन सत्र में यह स्कूली बच्चे या अल्पशिक्षित घुस पड़े तो सुयोग्य व्यक्ति यों से महत्वपूर्ण काम कराने की साध एक कोने पर धरी रह जायगी। संगीत के सम्बन्ध में न तो पूर्व ज्ञान है और न गला ही इस लायक है ऐसे लोग आ जायें तो वे प्राप्त भी कुछ नहीं कर सकेंगे और अध्यापकों के लिए शिरदर्द बनेंगे वाद्ययन्त्र तोड़ेंगे और अपना हमारा समय नष्ट करेंगे। प्रत्यावर्तन सत्रों में अध्यात्मआदर्शों से अपरिचित, मनोकामनापूर्ण कराने के आशीर्वाद लेने के आकाँक्षी दौड़ पड़े तो उनका स्वरूप ही घिनौना हो जायगा। पर्यटन के लिए घर परिवार के लोगों को साथ लेकर चलने वाले लोग प्रत्यावर्तन सत्रों में अव्यवस्था ही फैला सकते हैं। इसी प्रकार अशिक्षित, बालबच्चों वाली, रुग्ण नारियाँ शान्तिपूर्वक शान्ति कुँज में दिन काटने के लिए चल पड़े तो वे सारे स्वप्न हवा में उड़ जायेंगे, जिनके लिए यह भारी उत्तरदायित्व कन्धे पर उठाया जा रहा है। इन सत्रों में उपयुक्त व्यक्ति यों का आना जितना आवश्यक है उतना ही यह भी आवश्यक है कि अवाँछनीय लोगों को घुस−पैठ न करने दी जाय। संख्या भले ही थोड़ी हो पर आने केवल ऐसे ही व्यक्ति चाहिए जिनसे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति सम्भव हो सके।

अखंड−ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह उत्तर−दायित्व सौंपा जा रहा है कि वह उपरोक्त पाँच सत्रों में से जिसमें वे आ सकें उसके लिये स्वयं आवेदन करें और अपने संपर्क परिवार में जिन्हें सत्पात्र समझें उन्हें प्रोत्साहन देकर इस शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित करें। इस प्रशिक्षण शृंखला को सफल बना कर नव−निर्माण अभियान की गतिविधियों में आशातीत तीव्रता लाई जा सकती है। अस्तु इस ओर हम सब का पूरा−पूरा ध्यान रहना चाहिए।

शान्ति कुँज की जब से स्थापना हुई है तब से यहाँ का यही क्रम चला है कि प्रत्येक आगन्तुक को परिजन माना जाता है और उसके निवास, भोजन का प्रबन्ध किया जाता है। इसके बदले में किसी को कुछ देना ही चाहिए ऐसी कुछ शर्त नहीं रखी गई है। शिक्षार्थियों के लिए भी यही नियम है। आगन्तुकों के लिए भी यही व्यवस्था है। इससे आर्थिक दृष्टि से असमर्थ लोगों को संकोच में नहीं पड़ना पड़ता और यहाँ भी धनी−निर्धन के बीच कोई दीवार नहीं रहती। निस्सन्देह इससे शिक्षा अथवा दूसरे प्रयोजनों के लिए आने वालों को बहुत सुविधा रही है तथा रहेगी भी।

किन्तु उसका एक दूसरा पक्ष है—घाटे की अर्थ व्यवस्था। अपना खर्च यों बहुत लोग देते भी है। सहज सौजन्य का तकाजा भी यह है कि यदि अपनी आर्थिक स्थिति ठीक है तो अपना भार स्वयं ही उठाना चाहिए। दूसरों के दिया दान का लाभ तो तभी लेना चाहिए जब असमर्थता हो। फिर भी अपने देश की आर्थिक स्थिति को देखते हुए बहुत लोग ऐसे रह जाते हैं जो शिक्षणकाल में अपना खर्च नहीं दे पाते या बहुत कम देते हैं। ऐसी दशा में यहाँ की अर्थ व्यवस्था घाटे की रहना स्वाभाविक है लंगर का खर्च पूरा करना सदा ही एक चिन्ता का विषय बना रहता है।

शिक्षण सत्रों की शृंखला पूरे उत्साह के साथ चलाई जायगी क्योंकि वह इतनी महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है कि उसे रोका नहीं जा सकता। वह चल पड़ी है और चलेगी ही। उसकी अर्थ व्यवस्था का सन्तुलन क से बैठे यह सोचने का कार्य उन उदार परिजनों के जिम्मे छोड़ दिया गया है जो अपने आवश्यक खर्च पूरा करने के अतिरिक्त कुछ बचा भी लेते हैं।

इन पंक्ति यों में विशेष रूप से उन शिक्षार्थियों का आह्वान किया जा रहा है जो शान्ति कुँज के उपरोक्त पाँच शिक्षण प्रयोजनों के लिए अपने आपको उपयुक्त समझते हों।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118