कम खायें− अधिक जीयें

March 1974

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कार्मल−विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में अमेरिकी वैज्ञानिक डाक्टर ने 2500 सफेद चूहों पर परीक्षण किया। प्रयोग अवधि में उनमें से कुछ को भर पेट भोजन दिया गया, कुछ को अधिक तथा कुछ को कम। इन चूहों में अधिक भोजन वाले चूहे तो जल्दी मर गये, जिन्हें भरपेट खाना मिला था वे चूहों की वास्तविक आयु से कम समय तक जिन्दा रहे परन्तु जिन्हें कम आहार दिया था वे पूर्ण आयु ही नहीं अधिक समय तक भी जिये।

प्राणि विज्ञान के अनुसार चूहों पर भोजन का प्रभाव मनुष्य शरीर की ही भाँति होता है। प्रयोग में, उपयोग में लाये गये चूहों पर जिन्हें भूख से आधा भोजन मिला था वे अधिक समय तक जीवित रहे। यद्यपि भूखे रहने के कारण उनकी शारीरिक शक्ति अन्य चूहों की अपेक्षा क्षीण हो गयी थी परन्तु इसके बदले उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ गयी, वे दुर्बल भी हो गये थे परन्तु साथ ही अन्य चूहों की अपेक्षा अधिक स्फूर्तिवान बन गये। उनके हृदय की धड़कन 400 के स्थान पर 300 ही रह गयी, उनका जीवन धीरे−धीरे चलते हुआ अपनी निर्धारित धड़कनों को पूरा करता था किन्तु मस्तिष्क की शक्ति में कई गुनी वृद्धि हो गयी।

इसी प्रकार रूस की एक प्रयोगशाला में 200 चूहों को 50−50 के चार समूहों में रखा गया और उन्हें पौष्टिक भोजन जिसमें शरीर के लिए सभी आवश्यक तत्व सम्मिलित थे कम मात्रा में दिया गया। ये चूहे प्रयोग के आरम्भ में ढलती आयु के थे और प्रयोग के दौरान इन्हें अलग अलग प्रकार का भोजन दिया गया जिनमें कुछ को तो पूरा आहार मिलता था कुछ को फालतू की चीजें भी दी जातीं। इन प्रयोगों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि भूखे पेट रहने वाले चूहों में सभी खाद्य पदार्थ को हजम कर जाने की शक्ति और क्षमता आ गयी। रूस के वैज्ञानिक इन प्रयोगों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि − भूख के कम मात्रा में, कम पोषण की चीजें खाने पर दीर्घ समय तक जीवित रहा जा सकता है।

अधिक भोजन का लोभ स्वाद लिप्सा के कारण ही जन्म लेता है जो खाद्य पदार्थों में रसानुभूति के कारण ही पैदा होती है। इस मान्यता को जितनी जल्दी संशोधित किया जाय अच्छा है, जिसके अनुसार हम स्वाद और रस के लिए कुछ भी खाते रहते हैं और इसी कारण भोज्य पदार्थों की पौष्टिकता बड़ी निर्ममता से पकाकर, जला कर, छील पीस और उबालकर समाप्त कर देते हैं। शरीर तो फिर भी अपनी आवश्यकतानुसार उचित प्रकार का ही भोजन माँगता है लेकिन हम उस माँग की अभिव्यक्ति −रुचि के अनुरूप भी खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ट बनाने के लिए उसकी मूल विशेषता ही समाप्त कर देते हैं।

स्वाद लिप्सा का निराकरण कर देने पर निश्चित ही आवश्यक मात्रा में आहार ग्रहण कर लेने के बाद शरीर और पेट सन्तुष्ट हो जाता है, अमेरिकन डाक्टर मैक्केने चूहों पर किये गये प्रयोगों के निष्कर्षों को साररूप में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि —” पहले वह भोजन खाओ जो खाना आवश्यक है फिर वह जो तुम्हें रुचता है − किन्तु अधिक कभी मत खाओ।”

मिताहार के पीछे यही सिद्धान्त काम करता है जिसके अनुसार − पाचन शक्ति लिए गये आहार को ठीक प्रकार से पचा सके। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा इसी निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि स्वाद लिप्सा को त्यागकर, पौष्टिक और शरीर की माँग के अनुसार भोजन करना दीर्घायु जीवन का आधार बन सकता है।


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