गंदगी की आदत छूटे तो कृमि कीटकों से जान बचे

March 1974

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कृमि कीटकों द्वारा पहुँचाई जाने वाली विविध विधि हानियों को देखकर मनुष्य को क्रोध आना स्वाभाविक है। वह उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है सो भी उचित है, पर भूल यहाँ होती है कि वह आवेश कृमि नाशक दवाओं के निर्माण तक सीमित होकर रह जाता है। इन दिनों अगणित कृमि नाशक दवाएं विनिर्मित हो रही हैं और उन्हें बनाने खरीदने में धन पानी की तरह बहाया जा रहा है पर उनसे क्षणिक लाभ होता है। तत्काल तो कुछ कीड़े मर जाते हैं पर जो बच जाते हैं वे अपनी तेजी से वंश वृद्धि करके अपने पूर्वजों का स्थान ग्रहण कर लेते हैं और मारने वालों से कस कस कर बदला चुकाते हैं।

विविध प्रकार से क्षति पहुँचाने वाले कीटकों के सम्बन्ध में इन दिनों बहुत शोध हो रही है और मारक रसायनों का भी आविष्कार हो रहा है। यह उत्साह देखने समझने ही योग्य है।

कपड़े नष्ट करने वाले कीड़ों की चार जातियाँ भारत में पाई जाती हैं(1) टीनिया पेलिबोनेला,(2) टीनिओला बिसेलिएला (3) ट्राइर्काफे मा एवप्लेटा (4) वारखौसिनिया स्यूडोम्व्रटेलस। इन चारों के अंडे बच्चे ही कपड़ों को अधिक नष्ट करते हैं, बड़े होने पर वे उतनी अधिक हानि नहीं पहुँचाते।

यह कीड़े सीलन और गंदगी के उन स्थानों में पनपते हैं जहाँ स्वच्छ हवा का प्रवेश भली प्रकार नहीं होता। गंदगी और सीलन के संयोग से अनेकों स्तर के कीड़े पनपते हैं और घर में जैसी वस्तुएँ अथवा परिस्थितियाँ पनपने के लिए मिलती हैं उसी के अनुकूल वे अपना आकार प्रकार रहन सहन एवं क्रिया कलाप विनिर्मित कर लेते हैं। अन्न, कपड़ा, पानी, दूध,लकड़ी, जो कुछ उनके सामने आता है उसी के निर्वाह करने की उनकी आकृति और प्रवृत्ति बन जाती है। इस मूल उद्गम कारण पर यदि ध्यान न दिया जाय और केवल कीटनाशक दवाओं पर ही निर्भर रहा जाय तो काम चलने वाला नहीं है। उन्हें जहाँ भी अवसर मिलेगा, जो भी वस्तु कीट नाशक दवा के बिना मिलेगी उसी पर कब्जा करेंगे और एक न सही दूसरी तरह नुकसान पहुँचावेंगे। यही खाद्य पदार्थों के सहारे पेट में जा पहुँचते हैं और तरह−तरह के रोगों के कारण बनते हैं।

हानिकारक घरेलू कीड़ों में से ऊपर कपड़े काटने वालों की चर्चा की गई है, पर यह न समझना चाहिए कि उनकी हानि का क्षेत्र इतना ही सीमित है। जुएँ, चीलर, खटमल, पिस्सू,मक्खी, मच्छर आदि के रूप में वे जन्मते और बढ़ते हैं। उनकी असंख्यों जातियाँ ऐसी हैं जो आँख से दिखाई नहीं पड़ती पर हानि उतनी ही करती हैं जितनी कि मक्खी मच्छर आदि।

डी.डी.टी.सिलकोफ्लूराइड−क्लोरोडेन जैसे कीट नाशक रसायनों के छिड़काव से यह कीड़े या तो भाग जाते हैं, या नष्ट हो जाते हैं, किन्तु यह असर तभी तक रहता है जब तक उन उपचारित कपड़ों को धोया न जाय। धूप और हवा का प्रभाव भी इन रसायनों का असर घटा देता है ऐसी दशा में छिड़काव बार−बार करने की जरूरत पड़ती है। ऐसी खोज की जा रही है जिससे कपड़ा गोदामों में कई वर्ष तक इन कीड़ों से बचाव की निश्चिन्तता हो सके। मैगनशि फ्लुओसिलीकेट−− फ्लुओसिलीकेट, सोडियम एल्युमीनियम जैसे रसायनों से ऐसे घोल एवं चूर्ण बनाये जा रहे हैं जिनका प्रभाव पाँच वर्ष तक बना रह सके।

रसायन शास्त्री हेरिक और डा. फ्रोने इस प्रयोजन के लिए कितने ही रसायन तैयार किये हैं और उनमें से किसकी उपयोगिता कितनी है इसका प्रयोग परीक्षण चल रहा है। अब तक के निष्कर्षों से इस कार्य के लिए चिर परिचित नेपथलीन की अपेक्षा नई औषधि पैराडाइक्लोरा वेंजीन अधिक उपयोगी सिद्ध हो रही हैं।

इतनी खोज बीन और मार काट की विद्या अपनाने पर भी कीट विशेषज्ञ यही कर रहे हैं कि सील,सड़न,और गंदगी पैदा न होने देने की प्रवृत्ति जब तक लोगों में पैदा न होगी तब तक कीटकों से पीछा छुड़ाने को कोई उपाय अधिक कारगर सिद्ध न हो सकेगा।


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