रासायनिक आवेश हमें कठपुतली न बनाने पाये

March 1974

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कामोत्तेजना क्या है इस संदर्भ में कवि और कलाकार कुछ भी कहते रहें विज्ञानियों की दृष्टि में यह एक रासायनिक उत्तेजना मात्र है। कोई मादा जब गर्भ धारण के योग्य अपने आन्तरिक अवयवों को पुष्ट कर लेती है तो उसमें से एक प्रकार का विशेष स्राव निकलता है, यह वायु के साथ गंध रूप में मिल जाता है और हवा में उड़ क र नरों की सन्तानोत्पादन चेतना

को चुनौती देता है। वे इस अदृश्य आन्तरिक हलचल से उत्तेजित ही उठते हैं और मादा की आवश्यकता पूरी करने के लिए घर दौड़ते हैं। इसी प्रकार को कामोत्तेजना के रूप में देखा समझा जा सकता है। मादा के अन्तः स्राव जैसे ही बंद हो जाते हैं, नरों की उत्तेजनाएँ भी समाप्त हो जाती हैं और वे फिर होश हवास के सौम्य सदाचार की ओर वापिस लौट जाते हैं।

छोटे जीव सन्तानोत्पादन की उपयोगिता नहीं समझते इसलिए उनको वंश नष्ट हो जाने का खतरा रहता है। प्रकृति ने इस स्थिति को न आने देने को लिए उनके शरीर में एक गंध आवेगा यौनाकर्शी रस के रूप में उत्पन्न किया है। मादा के शरीर में समयानुसार जब यह मादक गंध उत्पन्न होती है तो वे प्रकृति की प्रेरणा को पूरा करने के लिए आतुर हो उठते हैं। और जैसे ही गुदगुदी उत्पन्न करने वाले संकेत बंद होते हैं, नशा उतर जाता है। इस प्रकार प्रकृति उनसे अग्ना वंश−वृद्धि को प्रयोजन पूरा करा लेती है और वे अनायास ही जनक जननी बनने की भूमा सम्पादित कर बैठते हैं।

मनुष्य की स्थिति इससे ऊपर है। इसीलिए प्रकृति ने उन्हें गंध आवेग से उत्तेजित होने का अवसर नहीं दिया है तरुणी नारी के शरीर से भी अन्य जीवों की तरह यौनाकर्ष रसायनों को गंध निकलती होगी पर वह मानवी विवेक से टकरा कर हतप्रभ ही हो जाती है और वह बहिन बेटा, आदि की मर्यादाओं का पालन करता हुआ जोड़ा बनाने से पूर्व हजार बार यह विचार करता है कि ग्रहस्थ को उत्तरदायित्व को निबाहने की क्षमता उसमें है कि नहीं? या फिर साथी का चयन करने में किन तथ्यों का ध्यान रखा जाय? सन्तानोत्पादन की संख्या निर्धारण करने में भी उसे विवेक से काम लेना पड़ता है। यही है मनुष्य और पशु के बीच का विवेक जन्य अन्तर।

पिछड़े हुए जीव,मात्र रासायनिक गंध उत्तेजना के आवेग से सन्तानोत्पादन करने के जुट जाते हैं, न साथी का चुनाव करने की कोई कसौटी उनके पास है और न संतान के लालन−पालन के लिए अपनी योग्यता उपयुक्त ता देखने की उनमें क्षमता होती है। मनुष्य भी यदि उसी स्तर का बन जाय तो उसकी विवेक शीलता और बुद्धिमता का कोई महत्व ही न रह जायगा।

प्राणियों की रासायनिक गंध किन्हीं आवेशों से उत्तेजित करके काम क्रीड़ा में प्रवृत्ति कर देती है। उनके स्तर को देखते हुए यह उचित भी हो सकता है पर मनुष्य के कर्तव्य और उत्तरदायित्व तो बहुत अधिक बड़े −बड़े है इसी लिए प्रकृति ने उसे गंध उत्तेजना के आवेगों से बच सकने और विवेक सम्मत रीति नीति अपना सकने के योग्य रखा है जब कि अन्य प्राणी एक प्रकार से बाध्य और विवश है।

कामोत्तेजना से प्राण्यों के समस्त शरीर में आवेश उत्पन्न होता है और उनकी विविध विधि गतिविधियाँ ऐसी उभरती हैं जिन्हें उन्मत्तता की संज्ञा दी जा सकती है। भँवीरी और डेयजल मक्खी की उड़ान सीधी साधी न रहकर कला बाजी जैसी बन जाती है और लगता है वह कोई नृत्य अभिनय कर रही है। केटिटिड साइक्डा और झींगुर जिन दिनों मदमस्त होती है उन दिनों उनकी झंकार में नये किस्म का स्वर और मिठास होता है। थोड़ों का अजीब तरह से हिनहिनाना, गधों का उन्मत्त होकर रेंकना, ऊंटों का असाधारण स्वर से बलबलाना यह बताता है कि वे अपनी साधारण स्थिति से आगे बढ़ कर किसी विशेष आवेश में ग्रसित हो रहे हैं। बिल्लियों का गम्भीर रूदन उनकी शारीरिक पीड़ा का नहीं वरन् उत्तेजित मनोव्यथा का परिचायक होता है। बन्दरों की कर्ण कटु किलकारियों में भी यह आभास होता है कि उनके भीतर कुछ असाधारण हलचल हो रही है।

साही का प्रणय काल उसके उछलने कूदने की व्यस्तता से जाना जा सकता है उन दिनों वह खाना,पीना, सोना तक भूल जाती है और बावली सी होकर लकड़ी के टुकड़ों को मुँह में देकर उन्हें उछालती हुई ऐसी दौड़ती है मानो उसे फुटबाल मैच में व्यस्त रहना पड़ रहा हो।

सर्प की प्रणयकेलि उनकी आलिंगन आबद्धता के रूप में दीख जाती है उन क्षणों वह अत्यंत भावुक और आवेशग्रस्त होता है। सर्प नहीं चाहता कि इस एकान्त सेवन में कोई और भागीदार हस्तक्षेप करे। यदि उसे पता चल जाय कि कोई लुक−छिप कर उसे देख रहा है तो सर्प क्रोधोन्मत्त होकर प्राणघातक आक्रमण कर बैठता है।

कितने ही नर−पशु इस आवेग में ग्रसित होकर एक दूसरे के प्राणघातक बन जाते हैं। उस आवेश में वे अपने प्राण तक गँवा बैठते हैं।

हिरनों में ऋतु काल स्वयंवर के लिए मल्लयुद्ध का रूप धारण करता है। इससे उनके सींग टूटते हैं, घाव लगते हैं और कई बार तो वे प्राण तक गँवाते हैं। हिरनियाँ इस मल्ल युद्ध को निरपेक्ष भाव से देखती रहती हैं और पराजित से सम्बन्ध तोड़ने ओर विजयी की अनुचरी बनने के लिए बिना किसी खेद के सहज स्वभाव प्रस्तुत रहती हैं। यही दुर्गति अगणित पशुओं की होती है। उनमें से आधे तो प्रायः इसी कुचक्र में क्षत−विक्षत होकर मरते हैं।

केवल नर ही इस स्वयंवर युद्ध में लड़−मरकर कष्ट उठाते हों सो बात नहीं। कई बार तो मादाएँ भी नरों की अविवेकशीलता के लिए उन्हें भरपूर दण्ड देतीं और नाच नचाती हैं।

नर गरुड़ को प्रणयकेलि की तभी स्वीकृति मिलती है जब वह मल्लयुद्ध में अपनी प्रेयसी को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। ऋतुमती गरुड़ मादा नर को आमन्त्रण तो देती है पर साथ ही यह चुनौती भी प्रस्तुत करती है कि यदि वह पिता बनने योग्य है तो ही उस पद की लालसा करें। समर्थता को परखने के लिए मादा मल्लयुद्ध करती है और इस भयानक संघर्ष में नर के पंख नुच जाते हैं, घायल होने पर खून से लथपथ हो जाता इतने पर भी यदि वह मैदान छोड़कर भाग खड़ा न हो तो ही उसे गले में स्वयंवर की माला पहनाई जाती है। तब न केवल विवाह होता है वरन् नर को घर परिवार के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को सम्भलने में मादा की भरपूर गदद करने के लिए भी तत्पर होना पड़ता है।

मकड़ी, मछली और रेप्टाइल्स जैसे जन्तुओं की भाँति मेंटिस नामक टिड्डा मादा ही बड़ी और जबरदस्त होती है

, नर मेंटिस अपेक्षाकृत छोटा भी होता है और कमजोर भी। नर के लिए सम्भोग क्रिया उसका मृत्यु संदेश ही सिद्ध होती है। मादा द्वारा उत्तेजित किये जाने पर वह डरता सहमता उसके पास जाता है और धरती पर सिर रख कर आत्म समर्पण की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। मादा उसे कस कर पकड़ लेती है कि वह छूट कर भाग न सके। गर्भाधान में मादा को ही देर तक पुरा श्रम करना पड़ता है, अस्तु वह थक भी जाती है भूखी भी होती है। तब उसे निखट्टू नी को ही चट कर जाने की बात सूझती है और वह बिहार के बाद आहार का साधन भी उसी को बना कीर समाप्त कर देती है। नर मेंटिस जीवन में प्रायः एक ही सुहागरात देख पाते हैं।

बोनिला पक्षी नर को आजीवन मादा का दास बन कर रहना पड़ता है। भोजन जुटाने का काम मादा करती है, इसके बदले बच्चों के लालन−पालन का भार उसे ही वहन करना पड़ता है। हिपोकेम्पस पाइपफिश और फोटोकोरिनस मछलियाँ इतनी दबंग होती है कि जिस नर को वशवर्ती बना लेती हैं उससे दास जैसा व्यवहार करती हैं।

कामोत्तेजना को प्रकाश के रूप में परिणय किया जा सकता है। जुगनू जैसे कीटकों में यह प्रकाश चमक के रूप में मनोरम दीखने और सुहावना लगने तक ही सीमित रहता है पर वह मनुष्य द्वारा तो ओजस् शक्ति में विकसित किया जा सकता है और उससे सर्वतोमुखी समर्थता विकसित करने का लाभ लिया जा सकता है।

जुगनू की चमक टिमटिमाहट कितनी मोहक होती है, रात के अन्धकार में जब वह छोटे तारों की तरह उड़ते−चमकते दिखाई पड़ते हैं तो लगता है आकाश से ऊपर कर धरती पर खेलने लगा हो

जुगनू की चमक क्या है? जुगनू की पूँछ के पास तीन पदार्थ भरे होते हैं। लूसीफरिन रसायन द्रव, लुसीफरेस ऐं जाइम एडी−नोसिन ट्राइफास्फेट यौगिक− इन तीनों का सम्मिश्रण चमक उत्पन्न करता है पर करता तभी है जब उसे एक विशेष प्रकार की मानसिक उत्तेजना होती है। जीव−विज्ञानी कहते हैं कि यह कामोत्तेजना ही है जो इन रसायनों को चमक में बदल देती है। इस उत्तेजना के अभाव में जुगनू उड़ते तो रहते हैं पर चमकते नहीं।

जुगनू में पाये जाने वाले लूसीफरिन ओर लूसीफोस रसायन मनुष्यों में भी पाये जाते हैं। उनके द्वारा शारीरिक और मानसिक अनेक क्रिया −प्रक्रियाएँ संपन्न होती हैं चमक भी पैदा होती है पर होती तभी है जब उनके साथ भावनात्मक उत्तेजना का संपर्क हो। जीव विज्ञानी कहते हैं कि जुगनू के लिए उतनी तीव्र उत्तेजना हो उसके रसायनों को चमका सके केवल कामोत्तेजना ही हो सकती है। आहार आदि की सामान्य आवश्यकताएँ उस स्तर की नहीं होतीं जो उसे चमकने क स्थिति में ला सकें। मादा जुगनू जब रति संयोग के लिए उद्विग्न होती है और नर जुगनू जब उसके पीछे− पीछे मनुहार करते हुए चक्कर लगाते हैं तभी उनकी पूँछ चमकती है ओर मनोरम दृश्य दिखाई पड़ते हैं।

प्रकृति ने मनुष्य को विवेक दिया है और अन्य कीटकों की तरह गन्ध आवेशों के कारण उन्मत्त हो उठने की दुर्बलता से मुक्त रखा है। इसके पीछे नियति का यही उद्देश्य काम कर रहा है कि वह अपने भीतर भरी हुई अति महत्वपूर्ण व्यक्ति को आवेश− ग्रस्तता में बर्बाद न करें। प्रजनन प्रकरण में अति सतर्कता बरते और मानवोचित आदर्श की प्रतिष्ठापना करें। विवेक हमें वस्तु−स्थिति समझाता है पर कामोद्वेग और कुछ नहीं मात्र जड़−पदार्थों में रासायनिक द्रव्यों उत्पन्न की जाने वाली उत्तेजना मात्र है। कुछ रसायन मनुष्य पर बेतरह हावी हो जाँय और उसे कठपुतली की तरह नाच नचा कर अधः पतन के गर्त में धकेलें यह किसी प्रकार शोभनीय नहीं।


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