क्या सचमुच धर्म और राजनीति के दिन लद गये?

March 1974

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कोई जमाना था जब धर्म और राजनीति की तूती बोलती थी। वे दिन तब ये जब धर्म का उद्देश्य लोगों के दिलों को जोड़ता और राजनीति का लक्ष्य सुरक्षा एवं, सुव्यवस्था था। उन दिनों इन दोनों धाराओं को लोग−श्रद्धा प्राप्त थी। इसलिए उनकी जड़े गहरी थी और जड़ों में मजबूती देखी जाती थी। धर्माचार्य भी श्रद्धा के पात्र थे और राजसंचालक भी। पर अब स्थिति बदल गई। इन दोनों में अपना मूल प्रयोजन छोड़ दिया और निहित स्वार्थ का आश्रय अंगीकार कर लिया।

धर्म अब थोथी, कपोल कल्पनाओं, ठगी और भ्रान्तियों का केन्द्र बन गया है। निहित स्वार्थों द्वारा भोले भावुकों को श्रम जंजाल में उलझा कर अपना उल्लू सीधा करते रहने की विडम्बनाओं से अब धर्मक्षेत्र बेतरह घिर गया है। छुट−पुट कर्मकाण्डों द्वारा मुक्ति प्राति जैसी सस्ती युक्ति यों में उलझे तथाकथित धार्मिक व्यक्ति अब चरित्र शोधन और परमार्थ प्रयोजन की कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाने का साहस नहीं करते। इसी प्रकार पापकर्मों के दण्ड से बच निकलने की गंगास्नान जैसी तरकीबें हाथ लग जाने से धार्मिक व्यक्ति को निर्भय हो कर दुष्कर्म करने की भी छूट मिल जाती है। मंत्र जप से देवता जब किसी के गुलाम बन सकते हैं तो मनुष्यों पर क्यों अधिपत्य न जमाया जा सकेगा, यह सोच कर लोगों की पूजा अर्चा बड़ी−बड़ी भौतिक महत्वकांक्षाओं से जोड़ दी जाती है। जब लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती तो खीज ही हाथ लगती है। दूसरी ओर विचारशील वर्ग जब देखता है कि इस क्षेत्र में लगने वाली जनशक्ति और धनशक्ति का उपयोगी प्रतिफल नहीं मिल रहा तो उन्हें भी निराशा होती है। अनैतिक और अवाँछनीय रूढ़ियों का समर्थन करने से तो धर्म और भी अधिक वरदान होने वाला है। ऐसे−ऐसे कारणों ने मिल कर धर्म के प्रति एक खीज पैदा कर दी है। पुरातन पन्थी उससे किसी कदर चिपके जरूर हैं पर लोकश्रद्धा बेतरह टूटती जा रही है। अनुपयोगिता को देर तक समर्थ नहीं मिल सकता,धार्मिकता का स्तर गिरकर साम्प्रदायिक तक सीमाबद्ध हो गया है। उससे अकारण वर्ग विद्वेष बढ़ रहा है। वस्तु स्थिति का मूल्याँकन करने वाला लोक विवेक अब उससे हट रहा है और धार्मिकता की जड़े खोखली हो रही हैं स्पष्ट है कि युग की प्रचण्ड समस्याओं का हल करना रुग्ण और जराजीर्ण धार्मिकता के बस की बात नहीं रही।

अनुपयोगी को हटा कर उपयोगी को स्थानापन्न करने का नियति−क्रम धर्म के स्थान पर अध्यात्म की प्रतिष्ठा करने जा रहा है। धर्म और सम्प्रदाय का अन्तर स्पष्ट है। धर्म परम्पराओं और कर्मकाण्डों से घिरी हुई अन्ध −श्रद्धा पर आधारित है। वह अमुक वर्ग विशेष क बपौती बन कर रहता है अध्यात्म का लक्ष्य इससे ऊँचा है, व चिन्तन को उत्कृष्ट और कर्तृत्व को आदर्श बनाने की दार्शनिक प्रेरणा है। अन्तरंग जीवन में श्रेष्ठता का बहिरंग जीवन में उदार स्नेह सहयोग का — अभिवर्धन यही अध्यात्म का लक्ष्य है। आत्मवत् सर्व भूतेषु और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना अपना कर अध्यात्मवादी की अधिकाधिक पवित्र और उदार बनना पड़ता है। अपने सुखों का बाँट देने और दूसरों के दुख बँटा लेने की अन्तःकरण प्रबल होती है और अनेकता में से एकता ढूंढ़ निकालने की दृष्टि रहती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण अध्यात्म किसी वर्ग विशेष की सम्पत्ति न रह कर सार्वभौम रहता है। समुद्र में सभी नदियाँ जा मिलती है। धर्ममत विभेदों का अन्त अध्यात्म के महासागर में ही होता है।

राजनीति की उपयोगिता तभी रही जब शासनकर्ता प्रजाहित के लिए ही जीते−मरते थे। वस्त्र वे भले ही सन्त जैसे न पहनते हों पर लोकमंगल का उदार दृष्टिकोण वैसा ही रख कर वे अपनी रीति−नीति निर्धारित करते थे। अध्यात्म और नीति को ह राज्याश्रय मित्रता था। आदर्शवादी वरिष्ठता को सत्ता द्वारा समर्थ, प्रोत्साहन मिलता था। उन दिनों प्रजा, राज्य−निदेर्शो के शिरोधार्य करना अपना पावन कर्त्तव्य मानती थी। “ दिल्लीश्वरौवा जगदी श्वरोवा की उक्ति में देश भक्ति, ईश्वर भक्ति का त्रिविध समन्वय था। राज द्रोह उस समय धर्म द्रोह जैसा हेय कर्म था। तब राज्यसत्ता का स्वरूप भी तो श्रेष्ठता का सत्ता सज्जन बनाये रखना ही तो था। ऐसी दशा में राजसत्ता का समर्थन करना जनता के लिए उचित ही था और वह उसकी छाया में अपना कल्याण देख कर राजभक्त रहती थी तो वह भी उपयुक्त ही था।

आज राजनीति का उद्देश्य भी बद गया और स्वरूप भी। अब कूटनीति का ही दूसरा नाम राजनीति है। शत्रुओं के साथ दाव−घात चलने से आरम्भ हुई कूटनीति मित्रों को भी उसी लपेट में लेती है। अब राजनीति के लिए प्रजाहित मुख्य नहीं रहा वरन् शासन की जड़े मजबूत करना रहा गया है। इसके लिए प्रजाहित मुख्य नहीं रहा वरन् शासन की जड़ें मजबूत करना रह गया है। इसके लिए प्रजा को असुविधाओं और कठिनाइयों में धकेलने से शासन तनिक भी नहीं झिझकता। सत्ता के लिए संघर्ष ने उस क्षेत्र में अराजकता जैसी, शीत गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है। राजनीति में प्रवेश करने वाला हर व्यक्ति सत्ता हथियाने और उससे लाभ लेने के लिए आतुर रहता है। सत्ता के लिए संघर्ष में इतने घिनौने दाव−पेज चलाये जाते हैं कि उसकी चपेट में आने वाले भोजे प्रजाजन भी अपना सहज सन्तुलन खो बैठते हैं। चुनावों के कारण जितना विद्वेष उत्पन्न होता है, उतना शायद ही अन्य किसी कारण से होता हो। चुनाव लड़ने वाले विष बीज बखेर कर किसी कोंतर में जा बैठते हैं, पर जन−जीवन को वह विषाक्तता देर तक उद्विग्न किये रहती है। अब राज्य घोषणाओं को यथार्थता नहीं माना जाता — अब शासन की न्याय−नीति पर विश्वास उठ चला। उस क्षेत्र में होने वाली हलचलों को देखकर सामान्य बुद्धि यह सोचने लगती है कि यह शासन विहीन समाज रहता तो अब की अपेक्षा कुछ अच्छा ही रहता बुरा नहीं।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की शतरंज जिस क्रम से खेली जा रही है उसने संगठित शोषण की जड़ें मजबूत बनाने का ही पथ प्रशस्त किया है। युद्ध को प्रोत्साहन मिला है और विज्ञान की सत्ता राजसत्ता के हाथ में चली जाने से विश्व−वसुधा के सर्वनाश की आशंका रोमांचकारी विभीषिका धन कर सामने आई है। ऐसी अनेक आशंकाओं ने राज्यसत्ता का स्वरूप किसी गुट विशेष का आतंक आधिपत्य समझा जाने लगा है। सामान्य जनता उससे अपना हित कम और अहित अधिक होने की बात सोचती है। राजनेता अब श्रद्धा के पात्र नहीं रहे, उन्हें स्वार्थी− तत्वों की चापलूसी भर हाथ लगती है। अब धर्म− ध्वजी और सत्ताधारी लगभग एक ही पंक्ति में बैठते जा रहे हैं। धर्मधारणा की तरह ही राजनीति के आश्रय में भी अपना कल्याण नहीं सोचते।

राजनीति का नया विकल्प अब जन−साधारण के सामने है— ‘ विज्ञान’। दूरगामी विवेकशीलता के सहारे मनुष्य मात्र को एक परिवार मान कर समस्याओं को हल करना दार्शनिक विज्ञान का काम है। न्याय और एकता की रक्षा के लिए पिछले दिनों शस्त्रधारी सैनिक नियुक्त रहते थे। अब वह शक्ति भौतिकी के हाथों चली गई है। साइन्स की बलिष्ठता और वरिष्ठता अब इतनी आगे बढ़ गई है कि सत्ता की सुरक्षा के लिए सामान्य सैनिकों की अब विशेष आवश्यकता नहीं रह गई।

विज्ञान सत्य के निकट है। उसकी खोजों तथ्यों का रहस्योद्घाटन करने की लालसा ने ही सम्भव की हैं।इसलिए विज्ञान को सत्य की सन्तान कह सकते हैं। लोग वैज्ञानिक उपलब्धियों को ही विज्ञान मान बैठते हैं पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाये तो विज्ञान एक दार्शनिक दृष्टिकोण प्रतीत होगा, जिसका उद्देश्य हैं, सत्य का रहस्योद्घाटन करना और उपलब्धियों के उपयोग पर दूरगामी व्यापक दृष्टि ही आज कीं उलझी समस्याओं के ऐसे, हल निकाल सकता है जो चिरस्थायी सुख−शान्ति के आधार बन सकें। राजनीति तो क्रमशः उलझनें बढ़ाती ही चली जाती है, उस पर क्षेत्र अथवा वर्ग के लाभ का इतना गहरा नशा चढ़ गया है कि सार्वभौम एवं सर्वमान्य हल निकालने के लिए उसके प्रयास सफल हो सके। न्याय और विवेक का परित्याग कर वर्ग स्वार्थों के समर्थन में खड़ी राजनीति के लिए अब मानवी समस्याओं का हल करना तो दूर— उनका यथार्थ स्वरूप समझ सकना भी सम्भव नहीं रहा। युग की माँग अधिक प्रखर आधारों को खोज रही है। प्रगति की इन दो शताब्दियों में उलझनों की भी प्रगति हुई है। विज्ञान ने सारी दुनियाँ को एक छोटे से नगर के रूप में और समस्त मानव जाति को एक छोटे से परिवार के रूप में साधन बना दिया है। तदनुसार बिखरी हुई उलझनें, समस्याएँ और विकृतियाँ भी सघन हुई हैं और स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि करो या मरो स्तर पर हमें इधर या उधर में से एक का फैसला करना पड़ेगा। स्पष्ट है कि मानव जाति के भाग्य और भविष्य का फैसला करने वाले इन क्षणों क में धर्म और राजनीति दोनों ही अनुपयोगी सिद्ध होंगे। इनके स्थान पर अध्यात्म और विज्ञान को प्रतिष्ठापित करना होगा। मनुष्य समाज के अंतरंग जीवन को परिष्कृत बनाने के बागडोर अध्यात्म ही सम्भाल सकता है और बहिरंग व्यवस्था में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना कर ही उपयुक्त समाधान निकल सकता है। अगले दिनों इन्हीं दो तथ्यों को मान्यता देनी पड़ेगी। सन्त बिनोवा का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि— धर्म और राजनीति के दिन लद गये। अब अध्यात्म और विज्ञान के वर्चस्व की प्रतिष्ठापना होगी।


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