अभीष्ट फलदायिनी गायत्री माता

March 1974

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गायत्री महामन्त्र में ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराओं का समावेश है। इन 24 अक्षरों में से प्रत्येक में जो शिक्षा एवं प्रेरणा भरी पड़ी है उसे हृदयंगम करके मानव जीवन में देवत्व का उदय हो सकता है। संसार का सबसे छोटा किन्तु सबसे महत्वपूर्ण धर्म−ग्रन्थ यदि तलाश करना हो तो वह गायत्री के 24 अक्षरों को देखा समझा जा सकता है। गायत्री महाशक्ति की उपासना को साधना विज्ञान का सबसे शक्ति शाली पक्ष कह सकते हैं 24 अक्षरों का गुँथन इस प्रकार हुआ है कि उनकी पुनरावृत्ति करते रहने से प्रसुप्त गुह्य शक्तियों का जागरण हो सकता है और निष्कृष्टता को उत्कृष्टता में परिणत करने का पथ प्रशस्त हो सकता है। विषवत् की गई गायत्री उपासना साधक में भौतिक सफलतायें सम्भव करने वाली सिद्धियों और आत्मिक प्रगति का द्वार खोलने वाली विभूतियों से परिपूर्ण बना सकती है।

गायत्री ज्ञान का समुद्र है। उसे वेद−माता कहा गया है। ब्रह्म विद्या के तत्व दर्शन की समस्त शाखा−प्रशाखाएँ उसी से प्रस्फुटित हुई हैं। आत्मोत्कर्ष के लिए, ईश्वर दर्शन के लिए जिस आत्मिक स्तर की आवश्यकता पड़ती है उसे उपलब्ध कराने में गायत्री उपासना अत्यन्त महत्व पूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकती है।

प्राचीनकाल में ऋषि, तपस्वी और अवतारी महामानवों ने इसी महामन्त्र के सहारे अपने को उत्कर्ष के चरमशिखर पर पहुँचाया था। इन 24 अक्षरों में सन्निहित, मानव−जीवन को सफल बनाने वाले−सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाले तत्वों को ध्यान में रखते हुए धर्म−शास्त्रों ने इस उपासना को दैनिक अनिवार्य धर्म कर्त्तव्यों में सम्मिलित किया है।

गायत्री महामन्त्र की महत्ता बताने वाले अनेक शास्त्र वचनों में से कुछ इस प्रकार हैं—

वेदानाँ मातरं सावित्रासम्पदमुपनिषद मुपास्ते। गी. ब्रा. 1−1−32

सावित्री (गायत्री) वेदों की माता है। द्विजातिजातिरुपा च अपरुपा तपस्विनी। ब्रह्यण्यतेजोरुपा च सर्वसंस्काररुपिणी॥31

पवित्ररुपा सावित्री गायत्री ब्राह्मणप्रिया। तीर्थानि षस्याः संर्स्पश वाँछंति ह्मात्मशुद्धये॥32 देवी भागवत

वह महाशक्ति ही जप स्वरूप है। उन्हें ही तपस्या, ब्रह्म तेज और सर्वसुसंस्कार कहते हैं। सब प्रकार पवित्र वे ही बनानी हैं। सावित्री और गायत्री उन्हीं को कहते हैं। उन्हीं के स्पर्श से तीर्थों में पवित्र करने की शक्ति रहती है।

सावित्री प्रवेशपूर्वककमप्सु सर्वंविद्यार्थस्वरुपाँ ब्राह्यण्याधाराँ वेदमातरम्। परम हंस परिब्रजकोपनिषद् 3

समस्त विद्याओं की आधार स्वरूप ब्राह्मणत्व की आधार, वेदमाता गायत्री की साधना में प्रवेश करें।

साधका भीष्टदाँ सिद्धाँ सिद्धिदाँ सिद्ध सेविताँ। पञ्च प्राणमयं वर्ण पीत विद्युल्लतामयं॥

त्रिविन्दु सहितं मन्त्रमात्मादित्व संयुतं। पञ्च देव मयं वर्ण त्रिशक्ति सहितं सदा। चतुर्वर्ग प्रदं शान्त सर्व सिद्धि प्रदायकं॥

कामिनी या महेशानि स्वयं प्रकृति सुन्दरी। माता सा सर्व वेदानाँ कैवान्य प दायिनी॥ —साधन सिद्धान्त,

सब वेदों की माता गायत्री साधकों को अभीष्ट फलदायक, सिद्धियों की आकाँक्षा वालों को सिद्ध पुरुष बनाने वाली और ब्रह्मवादियों को कैवल्य पद देने वाली है। पाँच प्राण उनके पाँच मुख है। चमकती हुई बिजली की तरह उनकी द्युति है। त्रिबिंदु सहित आदित्य स्वरूप, पंच देवमय, त्रिशक्ति समन्वित है। धर्म, अर्थ काम, मोक्ष, चतुवर्गों को सफलता देने वाली, परब्रह्म की पराशक्ति और प्रकृति सुन्दरी वे गायत्री माता है।

(3) संवर्त संहिता में कहा है—

“गायत्री यः सदा विप्रो जपेतु विपतः शुचिः। स याति परमं स्थानं वायुभूतः खमूर्तिमान।”

“जो ब्राह्मण निरन्तर पवित्र और जितेन्द्रिय होकर गायत्री का जप करता है, वह आकाश रूप होकर वायु रूप से परम स्थान (ब्रह्मस्वरूप) को प्राप्त होता है।”

स होवाच प्रजापतिः स यो ह वै सावित्रस्याष्टाक्षरं पदै श्रियाभिषिक्तं तत्साम्नोऽग वेद श्रिया हैवाभषिच्यते। नृसिंह पूर्वतापिन्युपनिषद् 3

प्रजापति ब्रह्माजी ने कहा—जो व्यक्ति मन्त्रराज गायत्री की बीज सहित उपासना करता है वह श्री सम्पन्न हो जाता है।

गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक में एक−एक देवता, एक−एक ऋषि और एक−एक महाशक्ति का समावेश है। इस प्रकार उसे 24 देवताओं, 24 ऋषियों और 24 महाशक्तियों की चमत्कारी क्षमताओं से सुसम्पन्न कहा जा सकता है। श्रद्धा युक्त अन्तःकरण से—पवित्रात्मा साधक यदि विधिवत् उसकी उपासना करे तो उसे वह सब कुछ उपलब्ध हो सकता है जिसकी जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यकता है।

प्रह्लादिनी प्रज्ञा विश्वभद्रा विलासिनी प्रभा शान्ता मा कान्तिः र्स्पश दुर्गा सरस्वती विरुँपा विशालाक्षी शालिनी व्यापिनी विमला तमोऽपहारिणी सूक्ष्मावयवा पद्मालया विरजा विश्वरुपा भद्रा कुपा सर्वतोमुखीति चतुर्विशतिशक्त यो निगद्यन्ते। पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशगन्धरसरुपर्स्शशब्दवाक्यानि पादपायूपस्थत्वकं चक्षुःश्रोत्रजिह्वाध्राणमनोबुद्ध्रयहंकार चित्तज्ञानानीति प्रत्यक्षराणाँ तत्तानि प्रतीयन्ते। —गायत्री रहस्योपनिषद

गायत्री की 24 शक्तियाँ हैं—(1) प्रह्लादिनी (2) प्रजा (3) विश्वभद्र (4) विलासिनी (5) प्रभा (6) शान्ता (7) मा (8) कान्ति (9) स्पर्धा (10) दुर्गा (11) सरस्वती (12) विरुपा (13) विशालाक्षी (14) शालिनी (15) व्यापिनी (16) विमला (17) तमोपहारिणी (18) सूक्ष्मा वयवा (19) पद्मलया (20) विरजा (21) विश्वरुपा (22) भद्रा (23) कृपा (24) सर्वतोमुखी। गायत्री का प्रत्येक अक्षर क्रमशः इन शक्तियों से परिपूर्ण हैं।

प्रथममाग्नेय द्वितीयं प्रजापत्यं तृतीय सौभ्य चतुर्थमाशानं पञ्चमादित्यं षष्ठ गार्हपत्यं सप्तमं मैत्रमष्टमं भगदैवत नवममार्य मणं दशमं सावित्रमेकादशं त्वाष्ट्रं द्वादशं पौष्णं त्रयोदशमैन्द्राग्नं चतुर्दशं वायध्यं पद्मदशं वामदेव षोडशं मैत्रावरुणंसप्त दशं भ्रातृव्यमष्टादशं वैष्णवमेकोनर्विशं वामनं विंशं वैश्वदैवमेकविंशं रौद्र द्वाविंशं कौबेरं त्रयोविंशमाश्विनं चतुर्विशं ब्राह्यमिति प्रत्यक्षरदैवतानि। प्रथमं वशिष्ठं द्वितीय भारद्वाजं तृतीयं गार्ग्यं चतुर्थमौ पमन्यवं पञ्चमं भार्गवं षष्ठं शाण्डिल्यम् सप्तमम् लौहितमष्टम वैष्णवं नवमं शातातपं दशमं सनत्कु मारमेकादशम वेदव्यासं द्वादशं शुक त्रयोदशं पराशर्य चतुर्दर्श पौंड्रकं पञ्चदश् क्रतुँ षोडशं दाक्षाँ सप्तदशं काश्यपमष्टादशमात्रेयमेकोनविशमगस्त्यं विंशमोद्दालकमेकविंशमाँगिरसं द्वाविंशं नामिकेतुँ त्रयोविंशं मौद्गल्यं चतुर्विंशमांिगरसवैश्वामित्रमिति प्रत्यक्षराणामृषयो भवन्ति। —गायत्री रहस्योपनिषद्

गायत्री के चौबीस अक्षरों के चौबीस देवता इस प्रकार हैं—(1)अग्नि (2)प्रजापति (3)चन्द्र (4) ईशान (5) आदित्य (6) गार्हपत्य (7) मैत्र (8) भग (9) अर्यमा (10) सविता (11) त्वष्ट्रा (12) पूषा (13) इन्द्राग्नि (14) वायु (15) वामदेव (16) मैत्रा वरुण (17) भ्रातृव्य (18) विष्णु (19) वामन (20) वैश्वदेव (21) रुद्र (22) कुबेर (23) अश्विनी कुमार (24) ब्रह्मादि दैवत्व।

गायत्री के 24 अक्षरों के 24 ऋषि यह है (1) वशिष्ठ (2) भारद्वाज (3) गर्ग (4) उपमन्यु (5) भृगु (6) शांडिल्य (7) लौहित (8) विष्णु (9) शातातप (10) सनत्कुमार (11) वेद व्यास (12) शुकदेव (13) पारासर (14) पौंड्रकर्म (15) कृतु (16) दक्ष (17) कश्यप (18)अत्रि (19) अगस्त्य (20) उद्दालक (21) अगंडुरस (22) नामिकेतु (23) मुद्गल (24) विश्वामित्र। इन चौबीस ऋषियों ने गायत्री का साक्षात्कार किया ये उस महामन्त्र के दृष्टा है।

गायत्री को विराट् ब्रह्म माना गया है। उसमें उन समस्त शक्तियों का समावेश है जो इस विश्व में दृश्य और अदृश्य रूप से विद्यमान है। स्थूल ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म चेतना के रूप में एक छोटी किन्तु शक्तिशाली प्रतिकृति गायत्री हैं उसकी उपासना करने वाला इन समस्त शक्तियों के साथ अपना सम्बन्ध मिलाकर सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त कर सकता है। समस्त विश्व को ब्रह्ममय देखने की दिव्य दृष्टि से स्पष्टतः गायत्री के तत्व−ज्ञान में समाविष्ट है।

मूर्धा ब्रह्या शिखान्तो विष्णुर्ललाटं रुद्रश्चक्षुषी चन्द्रादित्यौ कर्णौ शुक्रबृहस्पती नासापुटे अश्विनौ दन्तोष्ठावुभे सन्ध्ये मुखं मरुतः स्तनौ वस्वादयो हृदयं पर्जन्य उदरमाकाशो नाभिरग्निः कटिरिन्द्राग्नी जघनं प्राजापत्यमूरु क लासमूलं जानुनी विश्वेदेवौ जंघे शिशिरः गुल्फानि पृथिवीवनिस्पत्यादीनि नखानि महती अस्थीनि नबग्रहा अटुक्के तुर्मांसमृतुसन्धयः कालद्वमास्फालनं संवत्सरोनिमेषोऽहोरात्रमिति वाग्देवीं गायत्रीं शरणमहं प्रपद्ये।

य इदं गायत्रीरहस्यमधाते तेन ऋतसहस्त्रभिष्टं भवति। य इदं गायत्रीरहस्यमधीते विसकृत पापं नाशयति। सर्वाऩ वेदानधीतो भवति। सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति। —गायत्री रहस्योपनिषद

गायत्री वाणी की अधिष्ठात्री देवी है। उसका शिर—ब्रह्ममय, शिखान्त विष्णु, ललाट, रुद्र, दोनों नेत्र−सूर्ये, चन्द्र, कानों के दो छेद—शुक्राचार्य, बृहस्पति, नाक के दो छेद—दोनों अश्विनी कुमार, दाँत−होठ—दानों संध्याए मुख—मरुत, रतन−वसु, हृदय—मेघ, पेट−आकाश, नाभि, अग्नि, कटि−इन्द्र, जंघा−प्रजापति उरु−कै लाश, घुटने−विश्वदेव, जंघा−शिशिर, गुल्फ−पृथ्वी, नख—महतत्व, अस्थि−नवग्रह, आँतें−केतु, माँस−ऋतु संधि, दोनों काल वर्ष निभेष−दिन रात।

ऐसी विराट् ब्रह्म स्वरूपिणी महाशक्ति गायत्री की शरण में अपने को समर्पित करता हूँ।

इस गायत्री गुह्य रहस्य का जो अवगाहन करता है सौ हजारों यज्ञ करने वाले की तरह श्रेयाधिकारी बनता है। उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। जिसने यह रहस्य जाना उसने मानो समस्त वेदों का अध्ययन कर लिया। सब तीर्थों में स्नान कर लिया।

अन्य समस्त मन्त्रों का जो फल एवं महात्म्य है वह अकेले गायत्री मन्त्र में विद्यमान है। अन्य मन्त्रों की साधना में तभी सफल होती हैं जब सर्वप्रथम गायत्री मन्त्र द्वारा अपनी भाव भूमिका को चैतन्य कर लिया जाय। इस संदर्भ में शास्त्र का अभिमत स्पष्ट है।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादनुष्ठानादिकम् तथा। गायत्रीमात्रनिष्ठस्तु कृतकृत्यो भवेद द्विजः॥8 देवी भागवत

और कोई साधना करे या न करे अकेले गायत्री मन्त्र का आश्रय लेने से ही मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।

सा गायत्री समिद्धाऽयानि छन्दाँसि समिन्धे। श. प. 1/3/4/6

गायत्री के जागृत होने पर ही अन्य मन्त्र जागृत होते हैं।


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