विज्ञान एक ऐसे दुधारे शस्त्र की तरह है, जिसे से आत्म रक्षा भी की जा सकती है और आत्म−हत्या भी। प्रयोगकर्ताओं की बुद्धिमानी पर यह बात निर्भर है कि वे उसे किस दिशा में किस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करते हैं।
विज्ञान की शक्ति रचनात्मक प्रयोजनों के लिए उपयोग न हुआ हो सो बात नहीं, उसने मानवी सुख−सुविधाओं में बढ़ोतरी भी की है। किन्तु साथ ही उस मूर्खता की भी हद नहीं, जिसके आधार पर शान्ति स्थापना के बहाने इस सुन्दर धरती का सर्वनाश करने की तैयारियाँ लगभग पूर्ण करली गई हैं। फिर भी विनाशक और विघातक महत्वाकाँक्षा का अन्त नहीं। एक से एक भयानक अस्त्र−शास्त्रों का निर्माण, आविष्कार द्रुतगति से हो रहा है और उन पर इतना धन, इतना मस्तिष्क खर्च किया जा रहा है कि यदि इसे रचनात्मक कार्यों में प्रयोग या गया होता तो इस संसार का नक्शा ही बदल जाता और धरती पर स्वर्ग का वातावरण फैला हुआ दीखता।
वाशिंगटन विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्री प्रो. वेरी कामनर की एक पुस्तक है—’साइन्स और बाइबिल’ विज्ञान और जीवन। उसमें वे यह चिन्ता व्यक्त करते हैं कि विज्ञान का उद्देश्य भले ही भौतिक सुविधाओं में अभिवर्धन रहा हो, पर इन दिनों वह जिस दिशा में चल रहा है उसे देखते हुए, वह मानवी अस्तित्व के लिए ही संकट बनता जा रहा है। अब यह दैत्य उन हाथों में खेलने लगा है जो विकास के नाम पर विनाश की संरचना ही कर सकते हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों के तात्कालिक लाभ तो देखे जा रहे हैं पर यह भुला दिया जा रहा है कि उसके दूर गामी क्या दुष्परिणाम प्रस्तुत होंगे।
प्रो. वेरी कामनर ने इस बात पर दुख व्यक्त किया है कि हम भावी पीढ़ियों के हिस्से में आने वाले समस्त सुविधा साधनों को समाप्त करके उन्हें असीम दुख दारिद्रय के गर्त में धकेल रहे हैं। जमी के भीतर का तेल और कोयला प्रायः हमीं चट कर जायेंगे और इन वस्तुओं के उपयोग से हमारे बच्चों को वञ्चित रहना पड़ेगा। इतना ही नहीं अन्न, जल और हवा के साथ हम ऐसी विभीषिकाएँ उनके लिए छोड़ जाँय, जिनसे वे तिल−तिल करके घुटने और मरने के लिए विवश हो जाँय।
अन्तरिक्ष यात्राओं का अनुत्पादक व्यय उपयोगी उपलब्धियों में लग सकता था, पर यह सब तो भावी अणु युद्ध के लिए उपयुक्त समर भूमि ढूँढ़ने के लिए किया जा रहा है। यह आशंका अकारण नहीं है कि अन्तरिक्ष की शोध के पीछे भावी अणु युद्ध में अपना बचाव करते हुए विपक्षी का सर्वनाश करने की दुरभिसंधियाँ ही काम कर रही है।
परमाणु विस्फोटों का विकिरण वायुमण्डल में जिस प्रकार विषाक्त ता उत्पन्न कर रहा है, उसकी विवेचना रोमाञ्चकारी है। इसके परिणाम हमें ही नहीं भावी पीड़ियों को भी भुगतने पड़ेंगे। नपुंसकता, गर्भपात, अस्थि संधान, विकलाँगता, मन्द मति, रक्त विकृति, बौनापन विक्षिप्तता आदि अनेक विकृत्तियों को अपने साथ लेकर भावी बालक जन्मा करेंगे तब आज के अणु वैज्ञानिकों का और उनके प्रयोक्ताओं का अर्वाचीन उत्साह, मात्र अभिशाप ही सिद्ध होगा। परमाणु शक्ति के शान्तिमय उपयोग में भी कम खतरा नहीं है। अणु भट्टियों से बची हुई रेडियो एक्टिव राख को कहाँ फेंका जाय, अभी इसका रास्ता नहीं मिला है। वह जहाँ भी डाली जायगी वहीं संकट उत्पन्न करेगी।
किसी आवेश ग्रस्त की सनक अथवा गलतफहमी का कोई झोंका बात की बात में विश्व का सफाया कर सकता है। कभी आकाश में उड़ता हुआ चिड़ियों का झुण्ड रैडार पर ऐसा प्रतीत होता है मानों शत्रु की मिसाइलें हमला करने के लिए उड़ी आ रही है। एक बार तो रैडार पर चन्द्रमा ही ऐसा दिखाई पड़ा मनों शत्रु का आक्रामक राकेट हो। तब अमेरिका की ओर से जवाबी प्रहार करने की सारी तैयारी तत्काल की गई और अणुबम युक्त विमान निर्धारित लक्ष्य से टकराने के लिए उड़ा दिये गये। पीछे वास्तविकता का पता चला कि यह शत्रुयान, मात्र चन्द्रमा का विकृत प्रतिबिंब है तो उन लड़ाकू विमानों को वापिस लौटाया गया।
इन्स्टीट्यूट आफ स्ट्रेटेजिक स्टडीज ने पता लगाया है कि राकेटों, मिसाइलों, गैसों और अणुआयुधों के क्षेत्र में अमेरिका एवं रूस की प्रतिस्पर्धा तीव्र से तीव्रतर होती जा रही है। पिछले दस वर्षों में जितना धन और साधनों का इस क्षेत्र में प्रयोग हुआ है, आगे उसकी अपेक्षा कई गुना होने की योजनाएँ हैं। रूस के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं पर अमेरिका ने इन प्रयोजनों पर 11,47,780 डालर एक वर्ष में खर्च किया है। अनुमान है कि रूस को भी लगभग उतनी ही राशि खर्च करनी पड़ी होगी।
पृथ्वी से और समुद्र से छोड़ी जाने वाली मिसाइलों की दर में किसी तेजी से वृद्धि हो रही है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने सन् 60 में पृथ्वी से 18 और समुद्र से 32 मिसाइलें छोड़ने में सफलता प्राप्त की थी। हर वर्ष वह दर कई गुनी बढ़ती गई और अब सन् 70 में उसने पृथ्वी से 1045 तथा समुद्र से 656 छोड़ी है। इसी प्रकार रूस जहाँ सन् 60 में 35 पृथ्वी से 5, समुद्र से छोड़ सकने में समर्थ हुआ था, वहाँ सन् 70 में उसने 1300 पृथ्वी से और 280 समुद्र से छोड़ी हैं। उनकी दूरी, आकृति और क्षमता में भारी वृद्धि हुई है। बटन दबाते ही घर बैठे यह दोनों देश पृथ्वी के किसी भी क्षेत्र पर अणुबमों की वर्षा कर सकते हैं।
चीन ने अन्तर्राष्ट्रीय मिसाइल बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। इंग्लैंड और फ्राँस भी इस क्षेत्र में महाशक्ति बने रहने के लिये सामर्थ्य भर प्रयत्न कर रहे हैं। इस समय जितने अणु आयुध गोदामों जमा है, उनसे इस सारी धरती को कम से कम सौ बार नष्ट−भ्रष्ट किया जा सकता है।
शत्रुपक्ष को बेहोश करके मार डालने वाली जहरीली स्नायु गैस अब अमेरिका के लिए एक ही शिर दर्द बन गई है। इस विष गैस का 300 टन भण्डार जमा है। इसे बहुत सुरक्षित नहीं रखा जा सकता, इसलिए उसका विसर्जन आवश्यक है। फिलहाल ऐसा महायुद्ध भी नहीं हो रहा है, जिसमें इस गैस का प्रयोग करके उसकी लागत वसूल हो सके। अस्तु अमेरिका सरकार उसे उत्तरी अटलाँटिक में, उत्तरी कैरोलिन में कुछेक दूर समुद्र में डुबोना चाहती है।
इस प्रयास की संसार में हुए जनेवा सम्मेलन में मलेशिया और कैमरून के प्रतिनिधियों न इससे समस्त संसार को होने वाली हानि की चर्चा करते हुए तीव्र विरोध किया। फ्लोरिडा की सरकार ने अमेरिका सरकार के विरुद्ध अदालती कार्यवाही की तैयारी की है। जिसमें मछलियों के भारी संख्या में मरने और वायुमण्डल के दोष दूषित होने के मानवी आधार को लेकर इस प्रयास को रुकवाने का प्रयत्न किया जायगा।
रासायनिक गैसों और कीटाणु संघटकों का उत्पादन भी लगभग अणुबम स्तर का ही है। धमाका किये बिना भी इन दोनों साधनों से महानाश का ताण्डव हो सकता है। ब्रिटेन की नेन्सी कूक्रे की प्रयोगशाला में जी. एल. एस. डी. के आधार पर एक ऐसा रसायन बनाया है, जिसकी मारक शक्ति अद्भुत है। इसी प्रकार अमेरिका के एडक्रुड कारखाने में भी ऐसा ही रसायन रखा है, उसका संक्षिप्त नाम बी. जे. है। उसका प्रभाव विशाल क्षेत्र में मरण पर्व की संरचना कर सकता है।
ब्रिटेन के पास ‘सरीन’ नामक नाड़ी संस्थान को दूर चूर करने वाली गैस का 15 टन भण्डार सन् 55 में था उससे पन्द्रह लाख व्यक्ति बड़ी आसानी से मारे जा सकते थे। पर चूँकि वह गैस अधिक दिन नहीं रखी जा सकती थी इसलिए उसे 16000 फुट गहरे समुद्र में महाद्वीप समूह के पास मजबूत सिलेण्डरों में बन्द करके डुबोया गया। कभी संयोग वश यह सिलेण्डर फूट पड़े तो निश्चित रूप से बड़े क्षेत्र में उनका भारी उत्पात प्रस्तुत होगा।
वियटनाम युद्ध में अमेरिका द्वारा बड़े पैमाने पर ऐसे रसायनों का प्रयोग होता रहा है, जिनके प्रभाव से वहाँ के बड़े क्षेत्रों में वृक्ष वनस्पति तक जल भुन गये। पशु−पक्षियों का सफाया हो गया। जलाशयों के जल जीवों ने दम तोड़ दिया।
घृणा, द्वेष, अविश्वास और आशंका ने दूसरों को अपना शत्रु एवं आक्रमणकारी मानने के लिए विवश कर दिया है। दूसरों की नियत पर संदेह करना और अपने को निर्दोष बनाता आज की चतुरता का रिवाज बन गया है। फल स्वरूप अविश्वास की प्रतिक्रिया अविश्वास के रूप में और शत्रुता का प्रतिफल शत्रुता के रूप में सामने आ रहा है। इसका अन्त क्रमशः सर्वनाश के रूप में ही हो सकता है।
बुद्धिमत्ता और सद्भावना की ओर वापिस लौट जाना चाहिए और विनाश की अपेक्षा विकास की दिशा में प्रतिस्पर्धा की जानी चाहिए। विविध स्वार्थों के आधार पर विविध पक्षों में बँटे हुए विश्व को एक दूसरे के लिए विघातक और अविश्वासी नहीं होना चाहिए वरन् सहयोग के आधार पर मनुष्य जाति के पिछड़े पन को दूर करने में एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिला कर कन्धे से कन्धा भिड़ा कर चलना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति के लिए गये प्रयास मानवी पुरुषार्थ में चाँद लगाते हैं पर साथ ही उससे उत्पन्न खतरा भी कम नहीं है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से वञ्चित पिछली शताब्दियाँ कम से कम सर्वनाश की आशंका से आतंकित तो नहीं है। विज्ञान यदि आतंक अविश्वास विनाश और विद्वेष के साथ जुड़ गया जैसा कि लगना है तो यही कहा जायेगा कि हमारी पीढ़ी संसार के इतिहास में अधिकतम बुद्धिमान ही नहीं अधिकतम मूर्ख भी थी।