विज्ञान और दर्शन के समन्वय की आवश्यकता

March 1974

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ज्ञान दो भागों में विभक्त है। एक को दर्शन, दूसरे को विज्ञान कहते हैं। विज्ञान में पंच तत्वों से विनिर्मित वस्तुओं की−गतिविधियों की जानकारी और उनके उपयोग की विधा सम्मिलित है। दर्शन में चेतना को प्रभावित करने वाली भावनागत एवं पदार्थगत सम्वेदनाओं का विश्लेषण, विवेचन किया जाता है। नीति, धर्म, सदाचार, अध्यात्म इसी परिधि में आते हैं। विज्ञान की असंख्य धाराएँ हैं—शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन, यान्त्रिकी, तकनीकी, शिल्प आदि।

सामान्यतया इन दोनों के क्षेत्र अलग−अलग होने से उन्हें पृथक−पृथक माना जाता है और असम्बद्ध कहा जाता है। कई बार तो उन्हें परस्पर विरोधी भी ठहराया जाता है। पर गम्भीरता से देखने पर प्रतीत होता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता।

प्रथा परम्पराओं के समर्थन भर के लिए यदि दर्शन को काम में लाया जाय तो दोनों दूर तक साथ− साथ न चल सकेंगे। अनेक सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराएँ ऐसी हैं, जिन्हें स्वभाव एवं आदत में सम्मिलित कर लिया गया है, पर यथार्थ से उनका गहरा सम्बन्ध नहीं है। तर्क और तथ्य की कसौटी पर वे खरे नहीं उतरते। ऐसी मान्यताओं की प्रामाणिकता की पुष्टि जब दर्शन द्वारा नहीं होती तो लोगों का पक्षपाती मस्तिष्क प्रथाओं का बचाव करने के लिए दर्शन को झुठलाने का प्रयत्न करता है और उकसा विरोध करता है। वैज्ञानिक दर्शन प्रक्रिया पदार्थ विज्ञान की खोजों में सहायता करती है, अविज्ञात तथ्यों को प्रत्यक्ष करने की—रहस्योद्घाटन की भूमिका सम्पन्न करती है, वह चेतना को, भाव संवेदना को, सत्य के निकट पहुँचाने में बाधा उपस्थित करे। विज्ञान और दर्शन का जहाँ तक सत्य के शोधन का प्रश्न है, कभी किसी प्रकार का विरोध नहीं हो सकता।

ज्ञान का मूल आधार है—जिज्ञासा, जानने की इच्छा। इसी प्रवृत्ति ने भौतिक पदार्थों के स्वरूप, स्वभाव एवं उपयोग की विधि−व्यवस्था पर चढ़ते हुए आवरणों को हटा कर भौतिकी विद्या का विशालकाय भाण्डागार प्रस्तुत किया और उसका उपयोग−उपभोग करके मनुष्य ने अन्य प्राणियों की तुलना में असंख्य गुने सुविधा−साधनों भरे जीवन का रसास्वादन किया है। जिज्ञासा का ही विस्तार चेतना को प्रभावित करने वाले तथ्यों की गूढ़ जानकारियों के रूप में हुआ है। समाज विज्ञान, शासन तन्त्र, कला, नीति, न्याय, शिक्षा, अध्यात्म, भाव सम्वेदना, स्नेह, संयम, आदि के अनेक उपयोगी तन्त्र दार्शनिक चिन्तन के ही फलस्वरूप सामने आये हैं और मनुष्य क्रमबद्ध एवं परिष्कृत पद्धति से चिन्तन के सुसंतुलन का सम्मिश्रण ही मानव−जीवन के समग्र विकास की पृष्ठभूमि बन सका है। रथ के दो पहियों की तरह हमारा प्रगतिशील एवं सुख−सुविधा सम्पन्न जीवन, विज्ञान और दर्शन के समन्वय से ही गतिशील हो रहा है।

दर्शन अन्तज्ञनि शक्ति —’इन्टरनल पावर’ तर्क भाव सम्वेदन और दूरदर्शी विवेक पर अवलम्बित है और विज्ञान बौद्धिक शक्ति प्रयोगात्मक तथ्यों पर। इस प्रकार से उनके साधन तो पृथक−पृथक हैं पर सत्य के समीप तक पहुँचाने का—दोनों का मूल भूत उद्देश्य एक है। ब्रिटिश विज्ञानी सर जेम्स जीन्स ने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी’ में लिखा है— विज्ञान और दर्शन के परस्पर विरोध का झगड़ा अब मर चुका है। ज्ञान के विस्तार ने अब दोनों के बीच की सीमा−रेखा तोड़ कर फेंक दी है। दोनों क्षेत्र यह सोचते हैं कि एक दूसरे की सहायता के बिना किसी का भी प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। दर्शन शास्त्री बिल ड्ररण्ट ने अपने ग्रन्थ ‘दी स्टोरी आफ फिलोसोफी’ में इसी से मिलते−जुलते विचार व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं—’विज्ञान का आरम्भ दर्शन में होता है और अन्त कला में। यदि विज्ञान में मानवी चेतना की सम्वेदना उत्पन्न करने की क्षमता न होती तो उसके लिए कठोर श्रम करने में किसी को भी उत्साह न होता। केवल कौतूहल के लिए विज्ञान की शोध थोड़े ही होती है। उसके पीछे मानवी सुख−शान्ति का जो उत्साह भरा लक्ष्य जुड़ा है, उसी ने विज्ञान की उन्नति का पथ प्रशस्त किया है। विद्वान केसर लिंग ने अपनी पुस्तक ‘क्रिएटिव अण्डर स्टोंर्डिग‘ में कहा है—ज्ञान की दो धाराएँ विज्ञान और दर्शन अविछिन्न हैं। विज्ञान या दर्शन दोनों को मिलाकर एक शब्द वैज्ञानिक दर्शन अथवा दार्शनिक विज्ञान नाम दिया जाना इस युग के ज्ञान विस्तार को देखते हुए सब प्रकार उपयुक्त ही होगा। विज्ञान के अंतर्गत जिस प्रकार रसायन शास्त्र शरीर, शास्त्र, यान्त्रिकी, तकनीकी आदि धाराएँ आती है, उसी प्रकार ज्ञान मीमाँसा, प्रमाण मीमाँसा, मनोविज्ञान, तर्क शास्त्र और अध्यात्म जैसे दार्शनिक विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। दोनों के बीच परस्पर सहयोग से ही समग्र सत्य का दर्शन हो सकता है।

एफ. सी॰ नार्थरोम का कथन है—वैज्ञानिक सिद्धान्तों को जितना वास्तविक माना जाता है, उससे अधिक वे काल्पनिक हैं। किसी प्रयोग का सही उतरना इस बात की गारंटी नहीं है कि प्रयोग की जो व्याख्या विवेचना की गई है, उसके जो आधार कारण बताये गये हैं, वे सही ही हैं। अक्सर ऐसा होता रहता है कि पुराने सिद्धान्त काट कर उनके स्थान पर नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है। इस पर भी प्रयोग पूर्ववत् सही ही बने रहते हैं।

पृथ्वी को स्थिर और सूर्यादि ग्रहों को चनता हुआ मान कर भारतीय ज्योतिष द्वारा तारकों का उदय−अस्त सही उतरता रहा है, अब अन्य ग्रहों की तरह पृथ्वी को भी गतिशील मान कर पुराना सिद्धान्त काट दिया गया है तो भी ग्रहण एवं उदय−अस्त का क्रम यथावत् बना हुआ है। यही बात अन्य अनेक वैज्ञानिक प्रतिपादनों पर लागू होती है। इस आधार पर आज के मान्य सिद्धान्तों के कल कट जाने की पूरी आशंका बनी रहेगी। जब भूतकाल के पत्थर की लकीर समझे जाने वाले सिद्धान्त देखते−देखते निरस्त हो गये तो आगे भी वैसा क्यों नहीं हो सकेगा। इन तथ्यों पर विचार करने से वैज्ञानिकों का यह अहंकार कट जाता है कि भौतिकी ही सत्य है, दार्शनिक सिद्धान्त कल्पना पर आधारित हैं। कल्पना पर ही तो विज्ञान के प्रतिपादन भी टिके हुए हैं। भ्रान्तियों की दोनों क्षेत्रों में समान रूप से गुंजाइश है। इतने पर भी यह भी मानना ही पड़ेगा कि दोनों ने गिरते−पड़ते सत्य के अधिकाधिक निकट मनुष्य की ज्ञान चेतना को पहुँचाने में अति महत्व पूर्ण योगदान दिया है। आइन्स्टीन ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि विज्ञानी भी दार्शनिकों की ही तरह अपने सिद्धान्त की स्थापना, कल्पना के ही आधार पर करते हैं। प्रयोगों की कसौटी पर उस कल्पना का खरा−खोटापन परखा जाता है। इस पर भी सत्य और असत्य का सम्मिलित घोटाला कहीं न कहीं रह ही जाता है और एक समय की स्थिर मान्यता को दूसरे समय में बहुत कुछ सुधारना पड़ता है।

विज्ञान और दर्शन आपस में अविछिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। इस तथ्य को बुद्धि−जीवियों ने अब बिना हिचक के स्वीकार कर लिया है। अस्तु “भौतिक विज्ञान और दर्शन’ ग्रन्थ में अनिश्चितता के नियमों पर प्रकाश डालते हुये लिखा है विज्ञान वस्तुतः दर्शन शास्त्र की स्थूल जाति का निरूपण करने की एक शैली मात्र है। सिद्धान्तों के हाथ लगने के बाद ही वैज्ञानिक प्रयोगों में पूर्णता आती है। उन्हें अणु विज्ञान को प्रयोगात्मक विज्ञान की परिधि में करना है और कहा है उसे समझ सकना गणित के गहन नियमों के साथ ही जुड़ा हुआ है।

डा॰ राधाकृष्णन ने ‘दर्शन’ की परिभाषा करते हुए उसे “सत्य को समझने का बौद्धिक प्रयास” कहा है—महर्षि अरविन्द इस निरन्तर चल−बदल रहे संसार में एक मात्र सत्य वैचारिक निष्ठा को ही माना है। भले ही वह सापेक्ष बनी रहे। वे कहते हैं—”विचार ही जगत के निर्माता हैं। इसलिए वस्तुतः वे ही सत्य हैं। वस्तुओं अथवा व्यक्ति यों के माध्यम से जो अनुभूतियाँ होती हैं, उनका मूल कारण विचारमत निष्ठा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कात्यायन ने “यथार्थता के मर्मस्थल तक पहुँच सकने वाली तीखी विवेक दृष्टि को दर्शन की संज्ञा दी है और कहा है कि अध्यात्म अन्धता का निराकरण मात्र दार्शनिक दृष्टि मिलने पर ही हो सकता है।

दार्शनिक लिनयुताँग के विचार से “वस्तुओं के परखचे उधेड़ते रहने पर जगत का न तो स्वरूप समझ में आ सकता है और न उसका प्रयोजन स्पष्ट होता है। इसके लिये दर्शन का सहारा लिये बिना काम नहीं चल सकता। डा॰ राधाकृष्णन कहते हैं— विज्ञान के लिए बिना दर्शन की सहायता के विश्व का तात्विक स्वरूप समझ सकना अशक्य है। दार्शनिक जीन ‘ड्यू प्लसिस’ का मत है—जगत का स्थूल स्वरूप ही विज्ञान हमें समझा सकता है और पदार्थों की प्रकृति पहचान कर उससे लाभ उठाना सम्भव कर सकता है। इसके आगे उसकी गति नहीं। जो है सो क्यों है? किस लिये है? कैसा है? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शन के अतिरिक्त और किसी माध्यम से मिल ही नहीं सकता।

आइन्स्टीन ने लिखा है—”वैज्ञानिक चिन्तन के विस्तार से एक बात बिलकुल स्पष्ट हो गई हैं कि भौतिक जगत का कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो अपने आगे भी किसी रहस्य की ओर इंगित न करता हो।

“फिलासफी आफ फिजीकल साइन्स” के लेखक सर ए॰ एस॰ एडिंगटन ने अपनी मान्यता व्यक्त करते हुए लिखा है—”विज्ञान के सिद्धान्तों का समझना और समझाना दर्शन शास्त्र के सिद्धान्तों के सहारे ही सम्भव हो सकता है।” फोम युक्लिड टू एडिंगटन” के लेखक सर एडमन्ड ह्वेटेकार ने लिखा है। प्राचीन दर्शन शास्त्र के विवादास्पद सिद्धान्तों को वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अधिक प्रामाणिक रीति से परखा और जाना जा सकता है। “दि फिलासफी आफ स्पेस एण्ड टाइम प्रिफेस” के लेखक हन्स राइशन वाच ने लिखा है—वह जमाना लद गया। जब विज्ञान और दर्शन को एक दूसरे से सर्वथा पृथक कहा जाता था, अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि दर्शन और विज्ञान की जोड़ी में से एक को हटा देने पर दूसरा लड़खड़ाने लगा है। थ्योरी आफ रिलेटिविटी तथा थ्योरी आफ सेट्स जैसे सिद्धान्तों की उपज दर्शन और विज्ञान को अन्योन्याश्रित मान कर ही हो सकती है।

युनान के सुकरात से भी पुराने दार्शनिक दर्शन का अर्थ—’बहिर्जगत का अध्ययन’ करते रहे। ग्रीक के शब्द कोषों में ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट है कि प्राचीनकाल में दर्शन और विज्ञान की गणना एक स्तर पर ही होती है। अन्यान्य देशों के प्राचीन मनीषियों ने भी लगभग इसी स्तर की व्याख्या की है। इन दोनों क्षेत्रों का जब अधिक विस्तार हुआ, तभी यह बटवारे की बात सामने आई और अन्तरंग चिन्तन की धारा को दर्शन और बहिरंग हलचलों के ऊहापोह को विज्ञान कहा जाता रहा है। इतने होते हुए भी यह स्पष्ट है कि दोनों के मिलाये बिना न तो चिन्तन में स्पष्टता आती है और न वैज्ञानिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।


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