हमारा दृष्टिकोण दुराग्रही न हो

March 1974

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कई बार नवीन या प्राचीन में से किसी एक पर बहुत जोर दिया जाता है और उनके जो स्वरूप सामने होते हैं उन पर बहुत आग्रह रखा जाता है। हमें सन्तुलित दृष्टि विकसित करनी चाहिए और इन नवीनता के आकर्षण और प्राचीन के भदरंग को देखते ही कोई भावुक निष्कर्ष हीन निकाल लेना चाहिए। नवीन हो अथवा प्राचीन दोनों में औचित्य हो सकता है और दोनों में अनुपयोगी भरी रह सकती है, ऐसी दशा में दूरदर्शी विवेक,बुद्धि के आधार पर तथ्य और सत्य का गम्भीर पर्यवेक्षण किया जाना चाहिए और जो कुछ, जितने अंश में उपयोगी एवं सारगर्भित हो उसे साहस पूर्वक स्वीकार क र लेना चाहिए। प्राचीनता अथवा नवीनता में से किसी के प्रति भी दुराग्रह किये बिना।

अति उत्साही लोग प्राचीन और नवीन को तो स्वतंत्र पक्ष मान बैठते हैं— यहाँ तक कि उन्हें परस्पर विरोधी भी समझने लगते हैं, पर वस्तुतः ऐसा कुछ है नहीं। नदी में जल प्रवाह बहता है जो पीछे से चला आ रहा है, वह अविज्ञात है, भविष्य है। जो सामने है वह नवीन है। पर यह नवीन लहरें जैसे ही कुछ दूर आगे बढ़ जायगी कि उन्हें प्राचीन भूतक लीन कहा जायगा। इससे स्थिति में कुछ अन्तर नहीं आता। प्रवाह अनवरत है, वह चलता ही रहेगा। भूत,वर्तमान और भविष्य की तिकोनी हलचलों के साथ समय का चक्र घूमता ही रहेगा, इसमें से किसी तथ्य का अभिवादन इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि वह नवीन है और प्राचीनता की अवमानना करना ही उचित है। हमें तथ्याग्राही, तत्वदर्शी होना चाहिए।

बीज−बीज से, वृक्ष−वृक्ष से, फल−फल से पुनः बीज यह एक अनवरत धारा है। भूत, भविष्य, वर्तमान का काल प्रवाह उस अविछिन्न धारा को समझने में सहायता भर कर सकता है, प्रक्रिया का खण्ड रूप में पृथक्करण नहीं कर सकता है। भोजन पेट में जाता है— पचता है, मल बनता है, तदुपरान्त खाद बन कर अन्न का सृजन करता है और फिर आहार के रूप में सामने आ उपस्थित होता है। पुरातन ही समय के प्रवाह में नवीन बनता है और नवीन को वर्तमान की परिधि पार करते ही पुरातन की संज्ञा दी जाती है। वस्तुतः इस संसार में नवीन कुछ है ही नहीं। तथ्य सीमित है उन्हें दी परिस्थितियाँ और विकृतियाँ उपयोगी−अनुपयोगी बनाती रहती हैं। हमारा चिंतन और प्रयास इसी के संशोधन को होना चाहिए। ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय करते समय प्राचीनता और नवीनता का वर्ग दुराग्रह आड़े नहीं आने देना चाहिए।

जो कुछ नवीन है वह सबका सब उचित उपयोगी और ग्राह्य ही हो, ऐसी बात कहाँ है? और न समस्त पुरातन ऐसा है जिसे उखाड़ कर फेंक देना ही श्रेयस्कर कहा जा सके।

भूत से शिक्षा ली जानी चाहिए, अनुभव एकत्रित किये जाने चाहिए और निष्कर्ष निकालना चाहिए। और निष्कर्ष निकालने चाहिए। क्योंकि उसका प्रत्येक पहलू सामने होता है और पर्यवेक्षण के लिए बहुमुखी तथ्य सामने रहते हैं। इसी प्रकार भावी महत्वकाँक्षाओं की नींव वर्तमान पर रखी जानी चाहिए। कल को हमें किस रूप में गढ़ना है, इसके लिए योजनाएँ बना लेना,कल्पनाएँ रच लेना काफी नहीं उन्हें वर्तमान की भट्टी में पका कर ही इस योग्य बनाया जा सकता है कि स्वप्नों को साकार रूप मिल सके। इस प्रकार भूत भविष्य और वर्तमान तीनों ही हमारी आज की विविध आवश्यकताओं को हल करने के उपयोगी माध्यम हैं। इनमें से अपेक्षा किसी की भी नहीं की जा सकती।

भूतकाल को विस्तृत कर दिया जाय और पिछले घटना क्रमों ने जो निष्कर्ष उपस्थित किया है यदि आउट आफ डेट कह दिया जाय, उपेक्षणीय ठहरा दिया जाय तो फिर उन खट्टे–मिट्ठे अनुभवों और निष्कर्षों के लाभ से वंचित होना पड़ेगा जो मानव जाति ने चिरसाधना के उपरान्त एकत्रित किये है। तब हमें आदिम युग से लेकर अब तक की प्रगति प्रक्रिया को बहिष्कृत करके इतिहास का अर्थ आरम्भ करना पड़ेगा। यह बहुत ही महंगी और कष्टकर प्रक्रिया होगी और एक प्रकार से असम्भव ही मानी जायगी। भूत ने जो कटु और एक प्रकार से असम्भव ही मानी जायगी। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है और भविष्य निर्धारण को सरल बनाया जा सकता है।

इसी प्रकार भविष्य की, आकाँक्षाओं की, यदि वर्तमान साकार रूप देने के लिए वर्तमान की कठोर साधना के साथ नियोजित करना होगा। आज का वर्तमान ही कल का भविष्य बन कर सामने आने वाला है। इसलिए इस त्रिवर्ग को हमें विवेकपूर्ण मान्यता देनी पड़ेगी और बिना एक पक्षीय पूर्वाग्रह कर अड़े, यही नीति अपनानी होगी कि औचित्य को अंगीकार करें और विवेकपूर्ण दूरदर्शिता की रीति−रिवाज अपनायें। नवीनता और प्राचीनता में से किसी का अत्यधिक समर्थन करके हमें भूत और भविष्य को वर्तमान से काटने का प्रयत्न करते हैं। इसमें लाभ कम और हानि अधिक हैं। भूत को वर्तमान से काट देने पर भविष्य का निर्माण सरल नहीं होगा वरन् कठिन और जटिल ही बनता जायगा।

भूतकालीन मान्यताएँ, प्रथापरम्पराएँ आज की स्थिति में भी पूर्णतया बहिष्कृत कर देने योग्य नहीं हैं। उनमें से कितनी ही ऐसी हैं जिन्हें उपेक्षित करके हम मानवी मूल्यों को ही गँवा बैठेंगे और व्यक्ति गत चरित्र निष्ठा एवं सामाजिक सुव्यवस्था की नींव खोखली करेंगे। भूत−कालीन व्यवस्था में मानव−जीवन के मूल्यांकन का दार्शनिक दृष्टिकोण जिस उच्च स्तर पर किया गया है, उससे बढ़िया शायद ही कुछ ‘नवीन’ खोजा जा सके। चरित्रनिष्ठा और सामाजिक सद्भाव के लिए धर्म और अध्यात्म की आधारशिला जिस आत्मा−परमात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म, पुण्य, परमार्थ, स्वर्ग मुक्ति की मान्यताओं पर रखी गई है, उसे हटा मिटा कर मानवी उत्कृष्टता का दार्शनिक आधार फिर कदाचित ही कोई दूसरा प्रस्तुत किया जा सके।

पिछले कुछ दिनों तथाकथित नवीन एवं प्रगतिशील दार्शनिक प्रतिपादक अति उत्साहपूर्वक सामने आये हैं। नास्तिकवाद, भौतिकवाद, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की चर्चा और प्रतिष्ठा बहुत जोर−शोर से की जाती रही है। साथ ही प्राचीन प्रतिपादनों पर भरपूर व्यंग किया जाता रहा है। इस संदर्भ में भारतीय धर्म, अध्यात्म, दर्शन पर कम प्रहार नहीं हुए हैं। पर अब वह उत्साह ठण्डा पड़ गया। आधुनिकतावादी अब नये ढंग से विचार करने लगे हैं। चिन्तन में भौतिक तथ्यों का समावेश करने का परिणाम चरित्रहीनता, उच्छृंखलता और असामाजिकता के रूप में सामने आया है। जिस भौतिकवादी आस्थाओं के आधार पर श्रेष्ठ और सुखी समाज की कल्पना की जाती थी, वह अब खोखली और धूमिल हो चली। अवाँछनीय के नाम पर खड़ा किया गया विद्रोह अब वाँछनीय को भी बख्शने के लिए तैयार नहीं उस अन्धड़ ने सब कुछ उड़ा देने, उजाड़ देने की ठान ठानी है। इस उपद्रव ने आधुनिकता के अन्ध समर्थन को शिक्षित कर दिया है और विचारक वर्ग यह सोचने के लिए विवश हो रहा है कि प्राचीनता को सर्वथा बहिष्कृत कर देना न तो बुद्धिमान पूर्ण होगा और न दूरदर्शितापूर्ण। कुछ दिन पूर्व जिनने विप्लव और विद्रोह के स्वर गुँजाये थे और जो है उसमें आग लगा कर नई दुनियाँ बसाने के सपने देखे थे, वे अब पुनर्विचार करने को बाध्य हुए हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि प्राचीनता को सर्वथा बहिष्कृत करके नवीनता का अभिनव सृजन बहुत महंगा पड़ेगा। भलाई इसी में है कि प्राचीनता में जितनी उपयोगिता है, उसे सम्भाले, सँजोये रहा जाय और उसे साथ लेकर मिली−जुली सृजन योजना बनाई जाय।

घर के दरवाजे खुले रखे जायँ ताकि हवा और रोशनी का प्रवेश हो सके,यह ठीक हैं, पर आँधी तूफान के क्षणों में भी दरवाजे खुले ही रखे गये और मक्खी, मच्छरों, श्वान, शृंगालों का प्रवेश अनिरुद्ध रखा गया तो फिर घर बनाने और दरवाजे लगाने का कोई प्रयोजन ही न रह जायगा। जो आने योग्य है, वही घर में घुसने पायें, इस विवेक को बनाये रहने में ही उसकी उपयोगिता है। बुद्धिवाद की सार्थकता उसी में है कि वह काल, मोह का पक्षपात न करके औचित्य को ही मान्यता प्रदान कर। इस प्रकार का चिन्तन आज बढ़ रहा है और आर्थिक एवं वैज्ञानिक प्रगति के साथ−साथ यह भी आवश्यक समझा जा रहा है कि चिन्तन की उत्कृष्टता बनाये रहने वाली प्राचीनता को भी मानवी आवश्यकता का−प्रगति का −एक अंग स्वीकार किया गया।

पेड़ में नई कोपलें, नये फूल फल आते हैं सो स्वागत और सराहना के योग्य हैं पर उन पुरानी जड़ों की अवमानना नहीं की जानी चाहिए जो जमीन से रस खींच कर पेड़ को सजीव रखती हैं उसी पुष्प पल्लवों को विकसित होने का अवसर देती है। बसन्ती फूलों का गुणगान करते समय पुरातन जड़ों को उपेक्षणीय, कुरूप और प्रतिगामी नहीं ठहराना चाहिए। साहित्य, कला, शिल्प, कृषि, विज्ञान, व्यवसाय, चिकित्सा, शिक्षा आदि विषयों में पुरातन की उपलब्धियों ने हमें वर्तमान प्रगतिशील स्थिति तक पहुंचाया है। इसी प्रकार आदिम युग की पाशविकता से चिन्तन, चरित्र एवं समूह के सम्बन्ध में क्रमिक प्रगति ने आज का सुसंगठित समाज विकसाया है। इस प्राचीनता में निश्चित रूप से ऐसे आधार मौजूद हैं और सर्वांगीण प्रगति का पथ प्रशस्त करते हैं। यदि अति उत्साह भरे विद्रोही स्वर पुरातन के नाम से चिढ़ते रहे और प्राचीनता को उखाड़ फेंकने की आवेश−ग्रस्तता में ही उत्तेजित रहे तो इससे उस लक्ष्य को भी प्राप्त नहीं किया जा सकेगा जिसके लिए वह आवेश उत्पन्न किया गया था। ऐसी विवेकहीन क्रान्ति प्रतिगामी, प्रतिक्रान्ति भी सिद्ध हो सकती है।

बुद्धिवाद का अधिकाधिक विस्तार हो,यह स्वागत के योग्य है। परन्तु उसके पीछे मानवी आदर्शों के अनुकूल चलने की प्रेरणा होनी चाहिए। उच्छृंखल बुद्धिवाद की कसौटी पर व्यभिचार, छल, हिंसा, असत्य, आदि को अवाँछनीय नहीं ठहराया जा सकता है। वैयक्तिक क स्वतन्त्रता और सामाजिक मृदुलता के लिए ठोस समर्थन नहीं मिल सकता। आदर्शों की बात तब बुद्धिमानों द्वार मूर्खों को बहकाने के लिये ही कुछ काम की खोज ठहराई जा सकती है सत्ताधारियों ने चतुर−व्यक्ति यों ने — समय−समय पर ऐसा ही दृष्टिकोण रखा भी है। यदि यही लोक−नीति बन जाय तब फिर यहाँ एक दूसरे को नोंच खाने वाले भेड़िये ही इस धरती पर मरे हुये दिखाई देंगे।

बुद्धिवाद से ऊपर की एक सत्ता है, जिसे अध्यात्म, अन्तःचेतना, अंतःस्फूर्ति, ऋतम्भरा, प्रज्ञा भूमा, विद्या आदि नाम दिये जाते हैं और भारतीय तत्वज्ञानियों द्वारा ब्रह्मविद्या के रूप में निरूपित किया जाता रहा है। तप, संयम, योगसाधन आदि के रूप जिसे व्यवहार अभ्यास में उतारने का निर्देश किया जाता रहा है। यदि वह सब पुरातन ठहराकर बहिष्कृत कर दिया जाय तो सम्भवतः उस क्षेत्र में घुसे आडम्बरों से छुटकारा मिल जायगा पर रोग के साथ रोगी को भी मार डालने की यह चिकित्सा पद्धति अन्ततः पश्चात्ताप का ही कारण बनेगी।

जिस तरह प्राचीन रूढ़िवादिता धर्म, सम्प्रदाय, जाति वर्ग के अन्ध समर्थन को लेकर उग्र होती है और उस आवेश में अनुचित को भी उचित ठहरा दिया जाता था, लगभग वैसी ही आवेश प्राचीनता विरोधी और नवीनता समर्थक का दीखता है। जो नया सो अच्छा, जो पुराना सो बुरा, यह वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है। हमारा चिन्तन गुणग्राही होना चाहिए। युग के अनुरूप परिवर्तनों का स्वागत किया जाय, विकृतियों और अवाँछनीय प्रथा−परम्पराओं का उन्मूलन किया जाय किन्तु यह ध्यान रखा जाय कि प्राचीनता में शाश्वत सत्यों और उपयोगी तथ्यों की भी कमी नहीं है। उन्हें न केवल सुरक्षित ही रखा जाना चाहिए वरन् सींचा भी जाना चाहिए। प्रगति का प्रयोजन सन्तुलित दृष्टिकोण रख कर चलने से ही पूरा हो सकता है।


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