देवताओं का धरती पर आगमन एक तथ्य

March 1974

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अन्याभ्य ग्रह नक्षत्रों में क्या पृथ्वी जैसी सुसंस्कृत मानव जाति निवास करती है? क्या उन लोगों का विकास मनुष्य जितना अथवा उससे अधिक हो चुका है? क्या वे कभी−कभी पृथ्वी निवासियों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए वैसा ही प्रयत्न करते हैं जैसा कि हम लोग सौर−मण्डल की परिधि के ग्रह−उपग्रहों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर विद्वान “एरिद फोन डानिकेन” ने अपनी पुस्तक “चैरियट्स गाडस्” नामक पुस्तक में तथ्य और प्रमाण उपस्थित करते हुए दिया है।

उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि किसी सुविकसित सभ्यता के मनुष्य से बढ़ कर सुयोग्य प्राणी समय−समय पर धरती के साथ संपर्क स्थापित करते रहे हैं और यहाँ की स्थिति को समझने के लिए उनने बहुत सारी कुरेडबीन की है जिसके प्रमाण अभी भी विद्यमान हैं।

अठारहवीं शदी का बना एक ऐसा नक्शा तुर्की के टोपकापी पैलेस में पाया गया है, जिसमें भूमध्यसागर, मृतसागर, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, अटाक टिक आदि इस के प्रकार दिखाये गये हैं मानो उन्हें किसी विमान पर चढ़ कर खींचा गया हो। तात्कालीन साधनों को देखते हुए वैसे कोई साधन उन दिनों नहीं थे। जो भी नक्शे भूतकाल में बने हैं, वे इतने विस्तृत क्षेत्र का इतना अधिक सही विवरण प्रस्तुत करने वाले नहीं हैं, जैसा कि यह नक्शा है। यह नक्शा उन्हीं देव मानवों का बनाया हो सकता है जो अन्य लोकों से अपने विशेषयानों पर सवार हो कर धरती पर उतरे होंगे।

लाइमा के दक्षिण में केंडिक्लिफ दीवार पर 80 फीट ऊँचा स्तम्भ बना हुआ है। जिस स्थान पर जितना धन लगा कर और जिस तरह वह बना है वहाँ उसका कोई उद्देश्य प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः वह पृथ्वी के किसी स्थान विशेष का संकेत उन अन्तरिक्ष यात्रियों को देता होगा ताकि वे उतरने के लिए उपयुक्त स्थान की जानकारी प्राप्त कर सकें।

ईरान का गोवी मरुस्थल और केवाडा मरुस्थल का विश्लेषण करने पर वहाँ किसी परमाणु विस्फोट की स्थिति का आभास मिलता है। दक्षिण रोडेशिया, उत्तर अमेरिका, सहारा, तेरु, फ्राँस, कोहिस्तान की गुफाओं में ऐसी चित्र कला पाई गई है, जिसमें मनुष्य को अन्तरिक्ष यात्री की पोशाक पहने हु चित्रित किया गया है। अकारण ऐसे चित्र क्यों बनते हैं?

दिल्ली की कुतुबमीनार का स्तम्भ इस प्रकार शुद्ध धातु से बना है, जिस पर दो हजार वर्ष बीत जाने पर भी हवा, पानी का कोई असर नहीं हुआ। यह फास्फोरस और गन्धक से रहित स्पात का बना है। उस जमाने की समुन्नत टेक्नोलॉजी पर आज के वैज्ञानिक स्तब्ध हैं और विधि ढूँढ़ नहीं पाये जिसके आधार पर उस लौह स्तम्भ जैसी शुद्ध धातु बना सकें। मिश्र में मुर्दों को सुरक्षित रखने की विधि, पुरातन गुफाओं की चित्रकला में खराब न होने वाले रंग भी आज के रसायन शास्त्र के लिए एक चुनौती हैं। डानिकेन का कथन है ऐसे समुन्नत विज्ञान अन्तरिक्ष मानवों जैसा धरती निवासियों को दिया हुआ अनुदान ही हो सकता है।

डानफेन कहते हैं कि अपनी आकाश गन्ध में 18 हजार तारे ऐसे हैं जिनमें जीवन विकास की अनुकूल स्थिति मौजूद है। यदि यह माना जाय कि इनमें से एक प्रतिशत में ही समुन्नत प्राणी होंगे तो भी 180 नक्षत्रों में सुविकसित जीवन आवश्यक होगा। उनकी समुन्नत स्थिति ऐसी हो सकती है, जिसे हम अपने साथ तुलना करने पर अतिमानव या देवता कह सकें। आश्चर्य नहीं उन दिनों अन्य लोक वासी समुन्नत लोग अपनी धरती के साथ अधिक संपर्क स्थापित करने में सफल हो गये हों और उनकी हलचलें उस रूप में सामने आती रही हो जैसी कि पुराणों में वर्णित हैं।

बाइबिल का एक मन्त्र है−’ये परमेश्वर’ तू मेरी आँखें खोल दे, ताकि तेरी कुदरत को−अजीब रहस्यों को देख सकूँ।

चमड़े की आँखों से केवल सामने की वस्तुएँ देखी जा सकती हैं, उनसे कर्म−अकर्म और दूरगामी हित−अनहित का पता लगाना कठिन है। जो आज के लिए, अभी के लिए रुचिकर है, उसी की माँग इन्द्रियाँ करती हैं। जिसमें तात्कालिक प्रसन्नता मिलती है वही मन, मस्तिष्क को अभीष्ट है। व्यक्ति और समाज का दूरगामी हित जिस विचारणा और क्रियाशीलता के साथ जुड़ा हुआ है, उसका बोध दिव्य दृष्टि ही कराती है और उसी की प्रेरणा से मनुष्य संयम, परमार्थ जैसे प्रत्यक्ष हानिकर दीखने वाले कर्मों को दूरवर्ती हित साधना की दृष्टि से करता है। मानवी महानता को समझने और तद्नुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए हम केवल दिव्य दर्शन के आधार पर ही समर्थ होते हैं। बाइबिल के उपरोक्त मन्त्र में इन्हीं विशिष्ट आँखों को खोलने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की गई है।

ईश्वर चमड़े से बनी आँखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। वह इन्द्रियगम्य नहीं है। उसे सूक्ष्म अनुभूतियों और सम्वेदनाओं द्वारा जाना जा सकता है। विज्ञान की पहुँच स्थूल जगत तक है। सूक्ष्म जगत का अन्वेषण विश्लेषण चेतन सत्ता की पृष्ठभूमि पर ही सम्भव होता है। प्रसन्नता की बात है कि पिछली दशाब्दियों में विज्ञान स्थूल जगत को ही सब कुछ मानने की बात पर जितना दुराग्रही था अब उतना नहीं रहा। चेतना की सत्ता को जैसे−जैसे समझ सकना सम्भव होता जा रहा है वैसे−वैसे विज्ञान भी ईश्वर की सत्ता गरिमा और उपयोगिता को स्वीकार करने के लिए क्रमशः अधिक लचीला होता जा रहा है। उच्चस्तर के वैज्ञानिकों ने ईश्वर की सत्ता और महत्ता को अपने ढंग और क्रम से स्वीकार, अंगीकार करना आरम्भ कर दिया है।

इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी के मन्त्री सर जेम्स जीन ने लिखा है—विज्ञान के आरम्भिक विकास के समय यह माना गया था कि यह दुनिया जड़−पदार्थों की बनी है। मन और आत्मा नाम की चीज जड़−पदार्थों की ही एक तरंग है। पर अब जैसे−जैसे प्रगति के पथ पर विज्ञान कुछ आगे बढ़ा है तब से यह समझा जा रहा है, बात कुछ और ही है। अब हम सोचते हैं, कोई समष्टि चेतना इस दुनिया का संचालन करती है और जड़−पदार्थ उसके संकेतों निर्देशों का अनुसरण करते हैं।

इस तथ्य पर उन्होंने अपनी ‘द न्यू बैक ग्राउण्ड आफ साइन्स’ और ‘द मिस्टीरियस यूनिवर्स’ में अधिक विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला है।

आर्थर एच. कोम्पटन का कथन है—पूरी तरह आज भले ही सावित न हो सके पर कल जरूर इस नतीजे पर पहुंचना पड़ेगा कि विश्व−चेतना की शक्ति का अस्तित्व मौजूद है और वही इस संसार को किसी खास मतलब के लिए चलाता है।

राबर्ट ए. मिल्लीकान का कथन है—विकासवाद को इतिहास यह बताता है कि पदार्थों और प्राणियों की क्रमबद्ध और व्यवस्थित प्रगति होती है और वह क्रम ऐसा है मानों कोई बुजुर्ग किसी छोटे बच्चे को उंगली पकड़ कर चलाना सिखा रहा हो।

जे. वी. एस. हैलडैन ने लिखा है—अब हम इस दुनिया को अन्धी मशीन नहीं कहेंगे। याो आधी प्रकृति के बारे में बहुत कम जाना जा सका हैं पर जितना जान लिया गया है वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि दुनिया पदार्थ मात्र ही नहीं है, उसके ऊपर किसी ऐसी चीज का शासन है जिसे मन, बुद्धि या चेतना जैसा नाम दिया जा सकता है।

सर आर्थर एस. एडिंगटन ने लिखा है—यह मान्यता अब बहुत पुरानी पड़ गई कि ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है और यह दुनिया अपने आप ही अपने ढर्रे पर चल रही है। व्यवस्था बुद्धि वाली चेतना का इस जगत पर कितना नियन्त्रण है, इस तथ्य को हम प्रकृति की प्रत्येक हलचल में भली−भांति देख सकते हैं।

हरवर्ट स्पेन्सर कहते थे—विज्ञान जिस चीज के हमारे जमाने की पहुँच से बाहर—आननोएबुल कहता है वह अध्यात्म के सिद्धान्तों को काटती नहीं वरन् यह कहती है कि उस सम्बन्ध में गहरी खोज की जानी चाहिए।

एलफ्रेड रसल वैसेल ने अपने ग्रन्थ ‘सोशल इनबारन मेन्ट एण्ड मारल प्रोग्रेस’ में लिखा है—यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार मिल गया है कि चेतना द्वारा ही इस जड़ जगत का सचाँलन किया जा रहा है।

सर ए. एस. एडिंगटन का कथन है—हम विज्ञानी अब यह सोचने लगे हैं कि कोई असाधारण शक्ति इस संसार की एक सोची समझी व्यवस्था के अनुसार चला रही है। वह शक्ति क्या है? और किस लिए क्या करती है, इसे अभी नहीं जाना जा सका तो भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर एक नियामक सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

जड़ को प्रधान और चेतना उसकी प्रतिक्रिया कभी माना जाता था पर अब ऐसे आधार सामने आ गये हैं, जिनके कारण चेतना को ही बुनियादी चीज मान कर चलना पड़ेगा।

सर ओलिवर लाज ने ब्रिस्टल में एक भाषण देते हुए कहा था—”वह दिन दूर नहीं जब विज्ञान नये क्षेत्र में प्रवेश करेगा और यह स्वीकार करेगा कि चेतन शक्तियाँ ही जड़ शक्तियों का संचालन करती हैं। अभी हम सिर्फ जड़ जगत के बारे में जानते हैं और उसके अंतर्गत चल रही हलचलों से परिचित है। पर अगले दिनों यह स्पष्ट हो जायगा कि चेतना की शक्तियाँ ही प्रमुख हैं, वे ही जड़ जगत को चलाती है। जड़ शक्तियों पर यदि प्रेम और भलाई की शक्तियों का शासन न रहे तो वे इतनी अधिक भयंकर हैं कि उन्हें छूना तक डरावना प्रतीत होगा।”

संसार भरे के चौदह बड़े वैज्ञानिकों द्वारा मिलजुल कर लिखी गई पुस्तक ‘द ग्रेट डिजाइन’ पुस्तक में लिखा है—’यह दुनिया बिना रूह की मशीन नहीं है। यह अकस्मात ही नहीं बन गई है। जड़−पदार्थ के पीछे एक दिमाग, एक चेतना काम कर रही है। उसे भले ही कुछ भी नाम दिया जाय।

एलवर्ट आइन्स्टाइन ने लिखा है—इस दुनिया में जैसी क्रम व्यवस्था सुरीले ताल−मेल के साथ बनी हुई है उससे स्पष्ट है कि प्रकृति के ऊपर कोई बुद्धिमान चेतना काम कर रही है। तरकीब और उद्देश्य के बिना यहाँ कुछ भी नहीं है। ऐसी दशा में विज्ञान को अपना विचार यह बनाना पड़ रहा है कि यह दुनिया ही इत्तफाक से नहीं बन गई है। इसके पीछे कोई गहरा उद्देश्य काम कर रहा है।

वैज्ञानिक दार्शनिकता के आधार पर विचार करने से यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि इस ब्रह्माण्ड के अनेक घटकों, ग्रहपिंडों को परस्पर एक चेतना सुव्यवस्थित सूत्र में बाँध कर रखने वाली एक सत्ता है। उसके कुछ नियम हैं। इनमें मानवी चेतना को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा नियम है पारस्परिक सहयोग। परमाणु के अवयव प्रोटोन, इलेक्ट्रोन अथवा इनसे भी सूक्ष्मतर घटक परस्पर एक क्रमबद्ध व्यवस्था के अंतर्गत घनिष्ट रह कर अणुसत्ता का सृजन करते हैं। अणुओं का समन्वय पदार्थों के विभिन्न रूप प्रस्तुत करता है। यह पदार्थ स्वतन्त्र इकाई के रूप में काम नहीं कर सकते, उनके अस्तित्व एवं क्रिया−कलाप अन्यान्य पदार्थों की सत्ता द्वारा आदान−प्रदान मिलने पर ही बना रहता है। हमारी पृथ्वी का भी एकाकी जीवन सम्भव नहीं, उसे अन्यान्य ग्रह−नक्षत्रों से जो अनुदान मिलते हैं, उसी से उसका जीवन संकट आगे लुढ़कता है। धरती भी दूसरे ग्रहों को देती है। इसी प्रकार अनेक सौरमण्डल और उनके निहारिका केन्द्र एक अत्यन्त सुदृढ़ शृंखला में बँधे हुए परस्पर आदान−प्रदान करते हैं। प्राणधारियों का जीवन भी परस्पर सहयोग से ही चलता है। मनुष्य को जितनी अधिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति तो संगठित समाज में सहयोग शृंखला गतिशील रहे बिना हो ही नहीं सकती। दूसरे प्राणी एकाकी भी जी सकते हैं और प्रकृति के अंचल से अपने आहार आधार की उपलब्धि कर सकते हैं। किन्तु मनुष्य के लिए तो सहयोग ही जीवन प्राण है। इसके बिना उसका निर्वाह एक दिन भी नहीं हो सकता। प्रत्येक ग्रह−पिण्डों के अणु परमाणु के अन्यान्य ग्रह−नक्षत्रों की सत्ता का समावेश है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होते हुये भी एक तथ्य है। धरती के परमाणुओं का मध्यवर्ती नाभिक अपने में शक्ति भरे बैठा है, उसका मूल स्त्रोत धरती पर पाये जाने वाले तत्व नहीं वरन् सूर्य ताप से अवतरित होने वाला अदृश्य प्रवाह है। सूर्य ताप के रूप में हम जिस शक्ति की व्याख्या करते हैं वह भी अकेले सूर्य की नहीं है। गंगोत्री में गंग की धार तनिक सी निकलती है, पीछे उसमें नदी−नालों का जल मिलकर गंगा की विशाल धारा बनता है। ठीक इसी प्रकार सूर्य ताप के साथ अन्य ग्रह−नक्षत्रों की शक्ति धाराएँ मिलती चली आती हैं। श्रेय भले ही सूर्य को मिले पर वस्तुतः वह एक समन्वित अनुदान ही है।

जड़−जगत की तरह ही चेतन जगत की स्थिति है। हमारी बुद्धि, अभिरुचि, निष्ठा, मान्यता, अनुभूति, मनः स्थिति, प्रतिभा आदि अपनी लगती भले ही हैं पर वस्तुतः वह भी समष्टि की ही दैन है। हमें असंख्य लोगों की चेतना प्रभावित करती हैं और उस बाहरी दबाव से हमारा चेतना स्तर ढलता है। जिसे मौलिकता कहते हैं अथवा व्यक्ति गत प्रतिभा समझते हैं वस्तुतः वह भी समूहगत चेतना का ही प्रतिफल हैं। आमतौर से निकटवर्ती एवं सम्बद्ध वातावरण ही हमें बना डालता और बदलता रहता है।

विश्वव्यापी इसी एकता की सुनिश्चित अनुभूति का नाम आध्यात्मिकता है। अमुक दर्शन शास्त्र, धर्म सम्प्रदाय अथवा उपासना उपक्रम के साथ जुड़े हुए विधि−विधान एवं प्रतिपादन को ही अध्यात्म कहना मूल तथ्य के साथ बलात्कार करना है। धर्म सम्प्रदायों के साथ उपासना उपक्रम की मान्यताएँ भी अध्यात्म समर्थक हो सकती है पर उन्हीं को सर्व अध्यात्म मान बैठना भूल है। अध्यात्म का यथार्थ स्वरूप इस समग्र सृष्टि के बीच जुड़ी हुई अविछिन्न आत्मसत्ता की, एकता की, अनुभूति को ही समझा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में इसे अभिन्नता भी कह सकते हैं। आत्मवत् सर्वभूतेषु के सूत्र को अध्यात्म की यथार्थ व्याख्या समझा जाना चाहिये। इसी मूल प्रवृत्ति की प्रेरणा से इस संसार में परस्पर सहयोग एवं सद्भाव की प्रवृत्ति उमड़ती है और व्यक्ति गत उत्कृष्टता एवं सामाजिक प्रगति तथा सुव्यवस्था की नींव पड़ती है।

आन्तरिकता के सिद्धान्त अब क्रमशः विज्ञान के साथ अपना मतभेद समाप्त करके, एक ही लक्ष्य पर पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं। विश्व−व्यापी चेतना प्राणिमात्र में क्रीड़ा−कल्लोल कर रही है और हर एक को विश्व−व्यवस्था की मर्यादाओं में रहने के लिए बाध्य कर रही है। परस्पर मिलजुल कर स्नेह−सौजन्य से रहें, बिना दूसरों से टकराये निर्वाह करें और आपसी सहयोग से सर्वतोमुखी सुख−शान्ति का पथ प्रशस्त करें। इस निष्कर्ष पर अध्यात्म वादी दर्शन ही हमें पहुँचाता है। आध्यात्मिकता और एक दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता है। जैसे−जैसे हम सर्वव्यापी और नियामक सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करते जायेंगे वैसे−वैसे यह भी अनिवार्य प्रतीत होता जायगा कि व्यक्ति का वास्तविक हित आदर्शवादी रीति−नीति अपना कर चलने में ही है।

किसी का ध्यान कभी इस ओर नहीं गया कि एक ही क्यारी में लगे गुलाब, गेंदा, गुलसेहदी, गुलमुर्ग, दुपहरिया, बेला, चमेली सब भिन्न−भिन्न रंग के क्यों होते हैं। सबके लिए मिट्टी एक सी, पानी और खाद भी एक ही सी, प्रकृति−परिस्थितियों में भी कोई अन्तर नहीं फिर एक फूल लाल तो दूसरा नीला क्यों हो जाता है।

वैज्ञानिकों को सूझ नहीं रहा था कि इस समस्या का समाधान कैसे हो, तभी प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक सर सी. वी. रमन का ध्यान उस दिशा में आकृष्ट हुआ। उन्होंने विचार किया कि प्रकृति में रंग आता कहाँ से है? बस इसी एक विचार ने सारी गुत्थी सुलझा दी। सचमुच विचार करने की कला जो सीख जाता है वह ज्ञान के गहरे संसार सागर से उपलब्धियों के ऐसे ही नये−नये हीरे, मोती खोज−खोज कर लाता है।

विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि रंग सूर्य प्रकाश की देन है। सफेद दिखाई देने वाला प्रकाश सात रंगों के मेल से बना है। नीला, लाल पीला इनमें मुख्य हैं। हमारे भारतीय दर्शन में भी प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहा गया है यह तीन रंग ही सूर्य प्रकाश अथवा प्रकृति के तीन गुण हैं, हरा, बैगनी, गुलाबी, नारंगी आदि दूसरे रंग इन चारों के सम्मिश्रण बनते हैं।

स्प्रेक्ट्रोकोप एक यन्त्र होता है, जिसमें सबसे आगे एक लेन्स लगा होता है। वह प्रकाश किरण को सीधा करके आगे भेजता है। यन्त्र के मध्य में एक त्रिपार्श्व शीशा (प्रिज्म) रखा होता है, उस पर जब यही किरण पड़ती है तो वह सात रंगों में विभक्त होकर वर्णक्रम पर दिखाई देने लगती है। इसलिए यह सात रंग मुख्य माने गये हैं, वैसे रंग तीन ही हैं और उन्हीं के न्यूनाधिक अनुपात से संसार में मिलने वाले सभी फलों का रंग भिन्न−भिन्न दिखाई देने लगता है। अब तक फूलों की लगभग ढाई लाख किस्मों की खोज हुई हैं, इनमें विभिन्न रंग मूलतः इन तीन रंगों की मात्रा पर ही निर्भर करते है।

प्रश्न यह है कि प्रत्येक पौधे पर सूर्य का प्रकाश भी एक ही पड़ता है। प्रकाश पड़ने से ही फूल दिखाई देते हैं प्रकाश न हो तो फूलों में कोई रंग दिखाई न दे। फिर यह सब पुष्प विभिन्न रंगों के क्यों हो जाते हैं? डा. रमन का कहना है कि यह सब पौधों की प्रकृति के कारण होता है। प्रत्येक फूल के पौधे में कुछ रंग सोखने वाले तत्व होते हैं, जिन्हें रञ्जक तत्व (एब्साíवंग पिग्मेंट्स) कहते हैं—यह तत्व अपनी−अपनी प्रकृति के रंग सोख लेते हैं और फिर “स्प्रेक्ट्रोस्कोप” से दिखाई देने वाले 7 रंगों में से जो रंग फूल से छन कर बाहर निकलता है फूल उसी रंग का दिखाई देने लगता है। यदि यह क्रिया न चल रही होती तो फूलों में कोई भी रंग दिखाई न देता।

कुछ म्हार जिस प्रकार एक ही मिट्टी, पानी व चाक से मनचाहे खिलौने, बर्तन आदि बनाता चला जाता है उसी प्रकार प्रकृति भी अपनी इच्छा से अनेक वर्ण और सज्जा में फूलों में प्रदर्शित होती है।

सर. सी. वी. रमन ने गुलाब के फूल का उदाहरण देते हुए लिखा है कि गुलाब का पौधा वर्णक्रम के हरे रंग को सोख लेता है, इससे लाल रंग गहरे रूप में दिखाई देने लगता है। यों गुलाब में ही सैकड़ों किस्में है पर उनके रञ्जक तत्व अलग−अलग होते हैं इसलिए वह जो रंग सोखते हैं, फूल उसी अन्तर से दूसरे रंग का दिखाई देने लगता है।

सर. सी. वी. रमन ने गुलाब के फूल का उदाहरण देते हुए लिखा है कि गुलाब का पौधा वर्णक्रम के हरे रंग को सोख लेता है, इससे लाल रंग गहरे रूप में दिखाई देने लगता है। यों गुलाब में ही सैकड़ों किस्में है पर उनके रञ्जक तत्व अलग−अलग होते हैं इसलिए वह जो रंग सोखते हैं, फूल उसी अन्तर से दूसरे रंग का दिखाई देने लगता है।


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