राजेन्द्र बाबू उन दिनों राष्ट्रपति तो नहीं पर देश के अग्रणी नेता अवश्य थे। उन्हें इलाहाबाद पं. नेहरू से मिलने जाना था। निश्चित ट्रेन पर उन्हें, लेने के लिए कितने ही व्यक्ति पहुँचे, पर वे उन्हें असाधारण सादगी के कारण पहचान न सके। निदान वापिस लौट आये।
राजेन्द्र बाबू इक्केपर बैठ कर आनन्द भवन पहुँचे। रात अधिक हो गई थी। लोगों को जगाने की अपेक्षा उनने यही उचित समझा कि दरवाजे के बाहर खुले फर्श पर सोया जाय। सो सो भी गये।
रात्रि के अन्तिम प्रहर जब उन्हें दमे की खाँसी उभरी तो पं. नेहरू ने आवाज पहचानी और उतर कर नीचे आये। राजेन्द्र बाबू की इस सादगी और सज्जनता से उनकी आंखें भर आई। —महायोग विज्ञान