बौद्धिक क्षमता का भण्डागार ऋतम्भरा का क्रिया-व्यापार

November 1971

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सन् 1722 में जापान के मुसाशी प्रान्त में एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया हनावा होकीची। दुर्भाग्यवश यह बालक जब कुल सात वर्ष का ही था, अन्धा हो गया। फिर भी उसने पढ़ा, सुनकर पढ़ा और अपनी प्रतिभा का इतना अधिक विकास किया कि वह संसार के प्रमुख विद्वानों की श्रेणी में जा पहुँचा। उसकी स्मरणशक्ति को दैवी स्मरणशक्ति की उपमा दी जाती है और 94 वर्ष की आयु तक अध्यापन करने वाले इस महापंडित के बारे में कहा जाता है कि वह 400000 हस्तलिपि की सूची तैयार करा सकता था। इन सूचीपत्रों से जिन्हें उसे केवल एक बार ही पढ़कर सुनाया गया था, उसने गुन्शो रिन्जु नामक एक 2820 खण्ड की पुस्तक तैयार की। 1910 में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण छपा था। जापान के लोगों ने बड़े सम्मान के साथ अपने घरों में इसे रखा है।

ग्रीक में ऐसा ही एक व्यक्ति हुआ है पारेसन—उसने मिल्टन की सारी कृतियों को रट लिया था और उन्हें न केवल पेज नम्बर एक से लेकर दो तीन चार को सुनाता जा सकता था, वरन् पीछे से अर्थात् पेज नम्बर सौ से निन्यानवे, अट्ठानबे, सत्तानवे की ओर भी-सुनाता चला जा सकता था। विलक्षण स्मृति का एक उदाहरण है- गमबेटा का जो श्रीमती रूथ की पुस्तक का एक-एक शब्द पीछे, से सुना सकता था। विक्टर ह्यूगो और साहित्यकार ओसियन की पुस्तकें भी केवल एकबार पढ़कर उसने दुबारा पीछे से बोलकर सुना दीं। लोग आश्चर्य किया करते थे और कहते थे कि गम्बेटा के मस्तिष्क में टेप की तरह कोई इलेक्ट्रो मेगनेटिक पट्टी है, जिसमें उसका पढ़ा हुआ एक-एक अक्षर रिकार्ड हो जाता है, वह भी केवल एकबार पढ़ने से, जबकि साधारण व्यक्ति के लिए पुस्तक का एक-एक अनुच्छेद ही कंठस्थ करना कठिन हो जाता है।

म्युनिच की राष्ट्रिय लाइब्रेरी के संचालक जोसेफ बनहार्ड डकन अपनी सहायता के लिए विभिन्न भाषाओं के 9 सचिव रखते थे। सभी नौ सचिवों को साथ बैठाकर नौ भाषाओं पर 9 विभिन्न विषयों पर आफिसियल कार्यवाही या और जो कुछ भी नोट कराना होता था, नोट कराते चले जाते थे। इतना ही नहीं बाइबिल उन्हें पूर्णतया कंठाग्र थी और आगे-पीछे कहीं से भी कोई भी पेज खोलकर उनसे पूछा जाता, तो वहाँ से आगे का अंश धड़ल्ले से बोलने लगते थे। भाषा और ज्ञान की तौल होती तो उनके मस्तिष्क का वजन करना कठिन हो जाता, ऐसा लोग कहा करते थे। इतनी बड़ी लाइब्रेरी की करोड़ों पुस्तकें उनके मस्तिष्क में थी यहाँ तक कि रखने का स्थान तक उन्हें मालूम रहता था।

1767 में जन्में प्रसिद्ध जर्मनी कवि, लेखक और राजनीतिज्ञ नवाब कार्ल विल्हेम वान हम्बोल्ट का विवाह 38 वर्ष की अवस्था में एक बहुत ही गुणवान स्त्री कैरोलिन वान डैक्रोडेन के साथ हुआ। विवाह के बाद से ही उसने अपनी प्रिय पत्नी के सम्मान में प्रतिदिन 100 पंक्तियों की कविता लिखना प्रारंभ किया और यह क्रम पूरे 44 वर्ष तक, जब तक वह जिया, जारी रखा। 6 वर्ष का जीवन हम्बोल्ट ने विधुर का बिताया इस बीच वह प्रतिदिन अपनी स्त्री की मजार पर जाता और 100 पंक्तियाँ लिखने का क्रम जारी किए रहा। तमाम जीवन में उसने 1606000 पंक्तियाँ लिखीं। इतनी कविताओं की-पंक्तियाँ यदि छपाई जाये तो अखण्ड ज्योति साइज की 5577 फर्मे अर्थात् 44616 पेज के बराबर मोटी पुस्तक बैठेगी। इस मोटाई का अनुमान लगाना हो तो अखण्ड ज्योति के 58 वर्ष 1 माह के समस्त अंकों को एक के ऊपर एक चुनना होगा। यह ऊँचाई लगभग 25 फुट बैठेगी। जबकि कविताओं में कोई भी पंक्ति दुबारा उपयोग में नहीं लाई गई।

एकबार फ्राँस की एक अदालत में एक मुकदमा पेश हुआ। अपराधी के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, तथापि उसकी पैरवी करने वालों ने सुप्रसिद्ध एटार्नी लुईस बर्नार्ड को अपना वकील चुनकर मुकदमा लड़ा। सैनिक अदालत से उसे सजा हो गई। एटार्नी ने अदालत से याचना की कि उसे मुकदमा राजा के सामने ले जाना है, अतएव सजा 5 दिन के लिए रोक दी जाए क्योंकि राजा 5 दिन के लिए बाहर थे। अदालत ने यह बात अस्वीकार कर दी। एटार्नी ने इस पर तर्क उपस्थित करने की आज्ञा माँगी और वह मिल गई। उसने अपना तर्क पूरी ज्यूरी के सामने लगातार 120 घंटे अर्थात् पूरे 5 दिन 5 रात तक जारी रखा।  इस बीच उसने कानून शास्त्र के दुनिया भर के पन्ने जबानी अदालत के सामने रखकर अपनी आश्चर्यजनक बौद्धिक क्षमता का सिक्का जमा दिया। सम्भव है वह और भी बोलता, पर इसी बीच राजा साहब आ गए  और इस प्रकार उन्हें महाराज के सामने पेश होने का समय भी मिल गया और इसी बिना पर क्षमादान भी।

कहते हैं स्वामी रामतीर्थ अमेरिका जा रहे थे तब एक दिन जहाज में दो अंग्रेजों में झगड़ा हो गया। उनका मुकदमा पेश हुआ और गवाह माँगा गया तो दोनों ने इन साधु की उपस्थिति की बात कही। उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा —"मुझे यह तो मालूम नहीं कि गलती किसकी है, पर उन्होंने अपनी-अपनी  भाषा में जो कुछ कहा था, वह उन्होंने हूबहू वही अक्षर उसी टोन में सुना दिया।"

परमा (इटली) में इसी प्रकार 1464 में फ्राँसिस्को मैरिया ग्रापाल्डो नामक व्यक्ति पैदा हुआ। इस व्यक्ति की विचित्र विशेषता यह थी कि वह एक ही समय में अपने दोनों हाथों से एक कॉपी के दोनों ओर के पेजों पर अलग-अलग कविताएँ लिखता हुआ चला जाता था। लोग कहते थे कि ग्रापाल्डो के दो मस्तिष्क हैं। अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क दायें-बायें दो भागों में विभक्त हैं। दोनों अलग-अलग काम करते रहने में सक्षम है, इतने पर भी इस रहस्य का पर्दा ज्यों का त्यों बना हुआ है कि मस्तिष्क की यह विलक्षण विशेषताएँ क्या केवल मात्र  स्वाध्याय, शिक्षण और अभ्यास का ही परिणाम हैं अथवा मस्तिष्क में निवास करने वाले किसी अलौकिक आध्यात्मिक तत्त्व की यह विशेषताएँ हैं।

इसका उत्तर खोजने के लिए किसी सैद्धान्तिक विवेचन के पूर्व कुछ उदाहरण जान लेना आवश्यक हैं। (1) 1724 में स्काटलैण्ड में डंकन मैक इन्टायर नामक व्यक्ति जन्मा। वह स्काटलैण्ड का इतना बड़ा कवि माना जाता है जितना भारत में सूर और तुलसी। इतना होते हुए भी वह न तो लिख सकता था और न ही पढ़ा, क्योंकि उसने कहीं से भी शैक्षिक योग्यता प्राप्त नहीं की थी।

(2) होमर और सुकरात न केवल संत थे, वरन् कबीर की तरह कवि और साहित्यकार भी थे। कबीर ने कलम और कागज नहीं छुआ था और उनकी उलटबांसियां तथा पद आज एम.ए., बी.ए. की पुस्तकों में पढ़ाए जाते हैं। अपना मस्तिष्कीय सृजन वे मस्तिष्क में ही लिखकर रखते थे, कागज कलम से तो उसे औरों ने लिखा। कैन्टरबरी के प्रधान पादरी टामस क्रेमर ने 3 महीने में पूरी बाइबिल पढ़कर कंठस्थ कर ली थी, पर होमर और सुकरात ने तो न कभी पढ़ा था और न लिखा था, यह इस बात का प्रमाण है कि बौद्धिक क्षमताओं का आधार शैक्षणिक ज्ञान नहीं, वरन् कोई मस्तिष्कीय अध्यात्म का प्रतिफल है। उस शक्ति का विकास केवल आध्यात्मिक साधनाओं-प्रक्रियाओं पर आधारित है, मात्र अक्षर अभ्यास पर नहीं।

भारतीय योगदर्शन जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा की बात कहता है और बताता है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य और विभिन्न योग साधनाओं द्वारा अपनी बौद्धिक सक्षमता और सूक्ष्मता इतनी अधिक बढ़ा सकता है कि वह न केवल ऊपर जैसी विलक्षण क्षमताओं और सिद्धियों का सहज ही स्वामी बन सकता है, वरन् वह हर किसी के मन की बात जान सकता है। भूत और भविष्य को इस प्रकार जान सकता है मानो वह वर्तमान में आँखों के सम्मुख घटित हो रहा हो। इस प्रकार की मेधा और प्रज्ञा के लिए आर्षग्रन्थों में स्थान-स्थान पर परमात्मा से प्रार्थना की गई है-

“सनिं मेधामयासिष स्वाहा” मेधां में वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः।    — यजुर्वेद  ३२/१५

अर्थात्-परमात्मा हमें मेधा बुद्धि दें। वरुण देवता हमें उत्तम मेधा बुद्धि प्रदान करें।

परमात्मा को बुद्धि में धारण करने से ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास होता है, ऐसा आर्ष ग्रन्थों में कहा है। ब्रह्म एक तत्त्व है, जिसे बुद्धि द्वारा ही धारण किया जा सकता है। राख का कण, आग के बीच रखने से वह लाल हो जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मी चेतना की प्रतिनिधि बुद्धि को भी ब्रह्म के साथ संयुक्त कर देने से वह ब्रह्ममय-सर्वांतर्यामी हो सकती है। भाव और ज्ञान प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वरीय तत्त्व धारणा के ही परिणाम हैं। ब्रह्म को छोड़कर मनोबल बढ़ाया जा सकता है, मेधा व ऋतम्भरा प्रज्ञा नहीं। आज ज्ञान तो बहुत दिखाई दे रहा है, पर ऋतम्भरा प्रज्ञा का सर्वत्र अभाव है। इसी कारण लोग पढ़े लिखे दिखाई देने पर भी अज्ञानान्धकार में भटक रहे हैं।

शरीरशास्त्र की दृष्टि से स्मृति ज्ञान या मनोभाव कहाँ से उत्पन्न होते हैं, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका, किन्तु यह निश्चित है कि मस्तिष्क लाखों-करोड़ों न्यूट्रानों से बने हैं। इन्हीं में ज्ञान टेप किया हुआ रहता है। न्यूट्रानों को प्रदीप्त करना केवल नाभिक के लिए (ईश्वरीय सत्ता के लिए) ही सम्भव है। न्यूट्रान नाभिक में पाया जाने वाला द्रव्यमान है। इस द्रव्य के सक्रिय होने से ज्ञानक्रम चलता है। विश्व व्यापी चेतना के साथ इनका क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह कभी आगे पढ़ने को मिलेगा।


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