अपराधों के पश्चाताप

November 1971

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घटना है—चार वर्ष पुरानी। आस्ट्रेलिया में होबर्ट के समीप स्थित जंगल में भयंकर अग्निकांड। उसमें भस्म होने वाले प्राणियों की संख्या का कोई अनुमान ही नहीं लगा पाया। आँधी भी 114 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चल रही थी।

लोग भाग कर अपनी जान नहीं बचा पा रहे थे। आस-पास में बसे नगरों की ओर अग्नि दौड़ती जा रही थी। वहाँ के जेलखानों के फाटक जलकर राख हो गए। यदि कैदी चाहते तो आसानी से फरार हो सकते थे।

उनकी दृष्टि में शासकीय भवन राष्ट्रिय संपत्ति था। और राष्ट्रिय संपत्ति की सुरक्षा प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है। निरन्तर 36 घंटों तक कैदी आग बुझाने के कार्यों में व्यस्त रहे। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी सरकारी भवनों की सुरक्षा का कार्य उन्होंने किया।

समय पर कितनी ही दमकलें भी आ गईं। आग पर काबू पा लिया गया। सभी कैदी अपनी -अपनी कोठरियों में वापिस आ गए। जेलर द्वारा उनकी उपस्थिति ली गई। सभी कैदी यथावत थे। जेलर को बड़ा आश्चर्य हुआ, वह कुछ कैदियों से पूँछ बैठे—"क्या आप लोग जेल से मुक्त नहीं होना चाहते ? आप सबको कितना स्वर्णिम अवसर जेल छोड़कर भागने का था, फिर भी आप नहीं भागे?"

'महोदय! बन्धन में रहना तो कोई व्यक्ति नहीं चाहता। फिर उस पर हम लोग कैदी हैं। न्यायालय द्वारा जितने समय का कारावास दण्ड दिया गया है, उससे पूर्व भागना नियमों को तोड़ना है। हाँ, यदि शासन द्वारा हमारे दण्ड को कम कर दिया जाता या रिहा कर दिया जाता, तब तो चले भी जाते। हमें तो जेल में रहकर अपने अपराधों के पश्चाताप करने का अवसर दिया गया है।'—कैदियों का उत्तर था जेलर को।


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