संसार का सातवाँ आश्चर्य ताजमहल मानवीय बुद्धि, ज्ञान और कला-कौशल का अद्भुत उदाहरण माना जाता है। बुद्धि तत्त्व के रहस्य अगम अगोचर हैं। जो कुछ थोड़े से प्रकट हैं, वह मनुष्य और अन्य जीवधारियों के हैं। उन सब में मनुष्य की बुद्धि ने ही आश्चर्यजनक आविष्कार और रचनाएँ की हैं, इसीलिए आज मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार हो गया है, किंतु अचरज भरी नीचे दी गईं घटनाओं का मनन किया जाए तो पता चलेगा कि मनुष्य की अंतःप्रकृति के समान ही बाह्य प्रकृति भी एक विराट मस्तिष्क की स्वामिनी और सहचरी है। उसकी रचनाएँ मानवीय ज्ञान से कहीं अधिक सर्वशक्तिमान ज्ञान का अस्तित्व प्रतिपादित करती हैं।
एलोविले— नारमैंडी (फ्रांस) में एक ओक का वृक्ष है, जिसकी आयु लगभग 1 हजार वर्ष हो चली। वृक्ष की विशालता और उसके तने की राक्षसी मोटाई देखकर एक अंग्रेज के मन में उसको एक जगह खोखला करके गिरजाघर बनाने की बात आई। उसने अपने विचार को क्रियान्वित भी किया। एक-दो मंजिला गिरजाघर इस विशाल वृक्ष के तने में बनाया गया, जो 1696 से लेकर अब तक ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। एक ओर गिरजाघर में बैठकर पूजा-उपासनाएँ चलती रहती हैं तो दूसरी ओर वृक्ष भी ऋतु के अनुसार फलता-फूलता रहता है। तने के भीतर बना गिरजाघर आश्चर्य हो गया, पर उस वृक्ष के नियंता को किसी ने भी आश्चर्य से नहीं देखा। यह ऐसा ही है जैसे कि लोग विराट ब्रह्मांड में समुद्र की एक बूँद के समान पृथ्वी को ही सब कुछ मानते हैं; पर विराट जगत की कल्पना उन्हें कभी नए ढंग से सोचने की प्रेरणा ही नहीं देती।
बारजक विवारेस में पियरे डिफोरनेल नामक एक ऐसा व्यक्ति हुआ, जिसको तीन शताब्दियों का पिता माना गया है। 129 वर्ष जी कर मरने वाले इस किसान ने तीन विवाह किए। तीनों पत्नियों से उसे तीन पुत्र हुए। पहला पुत्र हुआ 1699 में अर्थात 17 वीं शताब्दी में, दूसरा 1738 अर्थात 18 शताब्दी में तीसरा बेटा जन्मा, तब उसकी आयु 120 वर्ष की थी, यह सन् 1801 की बात है अर्थात 19वीं शताब्दी की। इस बच्चे के 9 वर्ष बाद भी वह स्वस्थ जीवन जिया और अपने आपको “वान्डर बुक ऑफ स्ट्रेन्ज फैक्टस्” (अजनबी सच्चाइयों की आश्चर्यजनक पुस्तक) में उल्लेख होने का पात्र बनाया; किंतु इस वृक्ष की जो हजार वर्ष से खड़ा है। इस बेचारे मनुष्य से क्या तुलना, फिर क्यों न यह माना जाए कि प्रकृति का मस्तिष्क मानवीय मस्तिष्क से कहीं अधिक सक्षम और विशाल है।
कुतुबनुमा जैसी छोटी सी मशीन भी भगवान की उँगलियों से बने 'कुतुबनुमा पौधे' की नकल के बिना मनुष्य नहीं बना सका। इस वृक्ष को कुतुबनुमा वृक्ष इसलिए कहते हैं कि इसकी पत्तियाँ हमेशा उत्तर-दक्षिण की ओर ही घूमी रहती हैं। दुनिया भर की सारी मशीनें शरीर रचना का आधार हैं या प्रकृति के किसी भाग का अनुकरण। फिर नकलची मनुष्य को सबसे बुद्धिमान माना जाए अथवा यह कि सृष्टि में श्रेष्ठतम बुद्धि का अधिष्ठाता तो कोई और ही शक्ति है, जिसका नियंत्रण सारे विश्व-ब्रह्मांड में है, मनुष्य बेचारे की पहुँच तो चंद्रमा तक ही हो पाई है।
और जब निम्न प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं, तब तथाकथित बुद्धिवाद को पसीना आ जाता है। कोई उत्तर देते नहीं बनता विज्ञान का दम भरने वाले बौद्धों (बौद्धों का अर्थ बुद्ध धर्म मानने वालों से नहीं वरन ज्ञान-विज्ञान का दम भरने वाले उन लोगों से है, आस्तिकता जिनकी दृष्टि में अंधविश्वास के अतिरिक्त कुछ नहीं) को। इस तरह की एक घटना लिसेनागियर (आयरलैण्ड) की ही है। माता बिद्दी कैशल्श एक ऐसी स्त्री थीं, जिसने अपने गर्भ से एक बार दो चार नहीं पूरे 100 मुर्गी के अंडे दिए। मातृ भावनावश कहें अथवा किन्हीं पूर्वजन्मों के संस्कार, जिस तरह मुर्गी अपने अंडों के ऊपर बैठकर उन्हें बच्चे न निकलने तक सेती रहती है। बिद्दी कैशल्श लगातार एक घोंसला बनाकर और अंडे उसमें सुरक्षित रखकर 3 सप्ताह तक उसमें बैठी रही। 3 सप्ताह बाद उन अंडों में से आदमी के नहीं 100 मुर्गी के बच्चे पैदा हुए। वैसे तो विकासवादी अध्यात्मिक धार्मिक मान्यताओं की खाल उधेड़ते रहते हैं और जहाँ-तहाँ से नर कंकालों के आधार पर सिद्ध करते रहते हैं कि मनुष्य एक कोशीय जीव अमीबा का विकसित रूप है, पर जब उनसे पूछा जाता है कि यह मुर्गी के बच्चे जो स्त्री के पेट से पैदा हुए तो वे झुँझला पड़ते हैं और कहते हैं कि यह अपवाद है। अपवाद ही सही, पर उसका भी तो कुछ बौद्धिक आधार होना चाहिए। यह विश्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त क्या हो सकता है ?
कुल 77 रासायनिक सूत्रों को जोड़कर एक साधारण सा 'यीस्ट' बना लेने वाले डा॰ हरगोविन्द खुराना को नोबेल पुरस्कार मिला। यह हम सबके लिए गर्व की बात हुई कि मनुष्य में कितनी बौद्धिक क्षमता है, पर जो लाखों-करोड़ों रासायनिक सूत्रों से बने पिंड और अरबों रासायनिक सूत्रों से बने ब्रह्मांडों की रचना करता है, उस विलक्षण बौद्धिक अस्तित्व को पुरस्कार देना तो दूर, मान्यता देना भी आज के लोगों को भारी पड़ रहा है, इसे बौद्धिक दिवालियापन न कहा जाए तो और क्या कहा जाए। पदार्थ में भाव (अपदार्थ) की उपस्थिति विज्ञान ने सिद्ध कर दी, फिर भावना-स्त्रोत को अमान्य किया जाए और पदार्थ तथा स्रोतों के सिद्धांत तय किए जाएँ तो इसे मनुष्य का एकपक्षीय चिंतन ही कहा जाएगा।
आज भी ऐसी घटनाएँ घटित होती रहती हैं, जब कि जड़ और चेतन के संयोग की आश्चर्यजनक घटनाएँ देखने को मिल जाती हैं। वैज्ञानिक उनका कोई उत्तर नहीं दे पाते। सराक्यूज की रोने वाली मूर्ति का रहस्य अभी तक अमरीकी वैज्ञानिक खोज नहीं पाए। यहाँ प्रस्तुत है यूरेक्थम के प्रसिद्ध मंदिर का ऐतिहासिक वर्णन, जो सराक्यूज की रोने वाली मूर्ति से भी बढ़कर आश्चर्यजनक है। यह मंदिर ग्रीक की राजधानी एक्रोपोलिस में स्थित है। बात उस समय की है जब थामस ब्रूस एल्गिन केअर्ल सन् 1799 में तुर्की में ब्रिटिश राजदूत थे। तुर्की के अधिकारियों से उसने इस मंदिर को तोड़कर उसकी मूर्तियाँ इंग्लैंड ले जाने की आज्ञा प्राप्त कर ली। मंदिर गिराने के लिए मजदूरों का एक जत्था रात में काम पर लगाया गया। एक्रोपोलिस निवासियों को इस बात का पता चला तो वे अपने सारे काम छोड़कर भगवान से प्रार्थना करने के लिए बैठ गए। इसी समय यह अविस्मरणीय घटना घटित हुई। अभी बाहर की चहार दीवारी ही हट पाई थी, जैसे ही मजदूरों ने मूर्ति को तोड़कर हटाया। उसके अंदर से एक भयंकर चीख सुनाई दी । कई मजदूर भयभीत होकर गिर पड़े और उनका रक्त तक जम गया।
कहते हैं— एक भारी हथौड़े से पिस्टन में पूरी शक्ति लगाकर चोट मारी जाए और पिस्टन को स्वेच्छापूर्वक पीछे को उछलने दिया जाए तो सिलेंडर में रखा हुआ सारा पानी जमकर बरफ हो जाएगा। यदि उस बरफ पर एक गर्म जलता हुआ लोहे का टुकड़ा रखकर उस पर उसी हथौड़े की पूरी शक्ति लगाकर चोट की जाए तो वही बर्फ पानी हो जाएगी और वह फिर पानी ही न रहेगी; वरन उबलकर हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों में बदलकर इतना भयंकर विस्फोट करेगी कि वह लोहा भी पिघलकर गैस बनकर उड़ जाएगा। मजदूरों के शरीर का खून जम जाना इस सिद्धांत की याद दिलाता है और यह बताता है कि वह चीख भारी हथौड़े की मार से भी भयंकर रही होगी। फिर मजदूर उस मूर्ति के अतिरिक्त दूसरी मूर्ति नहीं तोड़ सके। कहते हैं जिस खंबे पर मूर्ति रखी थी, वह इस प्रकार बना था कि मूर्ति हटते ही चारों ओर से हवा एकदम खिंची, उसी से विस्फोट हुआ, पर वैज्ञानिक इस बात को मानते नहीं। यदि ऐसा होता तो गर्मियों में उठने वाले बवंडर (साइक्लोन) से भी भयंकर ध्वनियाँ होती, जबकि ऐसा कहीं सुना नहीं गया। यह मूर्ति आज भी ब्रिटिश म्यूजियम में रखी है और 'यूरेक्थम के रहस्य' के नाम से यह आवाज आज भी रहस्यमय बनी हुई है। उसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं हो पाया। जड़ और चेतन का यह आकस्मिक संयोग, भावसत्ता का अस्तित्व ही प्रतिपादित करता है। उसकी ओर से बिलकुल मुँह मोड़ना मनुष्य जाति के लिए अहंकार की तृप्ति हो सकती है, उपयोगी नहीं।
शाप और वरदान इसी भावसत्ता के विस्फोट और प्रमाण हैं। उससे यह पता चलता है कि मनुष्य अपनी चेतन-आत्मा से सान्निध्य, संपर्क साधकर कहीं अधिक समर्थ और शक्तिशाली हो सकता है। भौतिक भोग तो उसे रोगी, दुःखी और अशांत ही बना सकते हैं, सो वही इन दिनों हो भी रहा है। भावसत्ता के अस्तित्व और उसकी शक्ति का प्रमाण है— लिपजिम, जर्मनी का न्यायाधीश 'बेनेडिक्ट कारजो', जिसका जन्म 1620 में हुआ और मृत्यु 1666 में।
कारजो दुनिया का भयंकरतम न्यायाधीश था। अपने कार्यकाल की लंबी अवधि में उसने 30 हजार से अधिक लोगों को फाँसी की सजा दी। फाँसी की सजा देने के बाद वह फाँसी होते देखने स्वयं भी जाता था। साथ में कुत्ता भी ले जाता था और फाँसी से मरे हुए मृतक की लाश को कुत्ते से नुचवाता था। ऐसा कोई दिन नहीं गया उसके कार्यकाल में जबकि उसने कम से कम 5 व्यक्तियों को फाँसी न लगवाई हो। एक दिन एक दुःखी मनुष्य की आत्मा कराह उठी। फाँसी पर चढ़ने के पूर्व उसने शाप दिया— "तेरी कुत्तों जैसी मृत्यु होगी, जिस दिन तेरा कुत्ता मरेगा उसी दिन तू भी मर जाएगा और कितने ही जन्म तू बार-बार कुत्ता होकर मरेगा।"
अभी शाप दिए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन उसके पालतू कुत्ते को एक पागल कुत्ते ने काट लिया, फिर उसी कुत्ते ने उसे काट लिया। कुत्ता मर गया। उसके कुल तीन घंटे पीछे कुत्तों की तरह भौंक-भौंककर उसकी भी मृत्यु हो गई। यह तो पता नहीं, अगले जन्म में क्या हुआ, पर यह आश्चर्य तो सभी को हुआ कि निर्दोष आत्मा के शाप, जिसे भावनाओं का आंतरिक विस्फोट कहना ज्यादा उपयुक्त है— उसे किस तरह नारकीय परिस्थितियों में जा धकेला।
तात्पर्य यह है कि संसार में मनुष्य की बुद्धि से भी बड़ी बुद्धि है। उस भावसत्ता का नाम ही भगवान है। वही इतना विराट होकर विराट् ब्रह्मांड की विलक्षण रचना, पालन-पोषण और विनाश की क्रीड़ा किया करता है। आश्चर्य मनुष्य की बुद्धि और उसका ज्ञान नहीं, भगवान है, उसे भी जानने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।