कलकत्ता के हाईकोर्ट के जज स्वर्गीय श्री गुरुदास बनर्जी एक बार वायसराय के साथ कानपुर से कलकत्ता के लिए यात्रा कर रहे थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय कमीशन संबंधी किसी आवश्यक चर्चा के लिए वायसराय ने उन्हें अपने ही डिब्बे में बुला लिया। बातचीत के मध्य भोजन का समय हुआ तो वायसराय ने उनसे भी भोजन पाने का अनुरोध किया। बनर्जी साहब ने उत्तर दिया—"मैं रेल में कुछ नहीं खाता, थोड़ा-सा गंगाजल रखे हुए हूँ, वही पी लेता हूँ।"
वायसराय को विश्वास नहीं हुआ। इतना प्रगतिशील व्यक्ति भी धार्मिक मान्यताओं का इतनी कट्टरता के साथ पालन कर सकता है। उन्होंने कहा—"तो फिर लड़के को ही भोजन ग्रहण करने को कहिए।" पर बच्चे ने भी इंकार करते हुए कहा—"मेरे पास घर की बनी थोड़ी सी मिठाई है, उसका नाश्ता कर लिया है, अन्य कोई वस्तु ग्रहण न करूँगा।"
वायसराय आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा—"आप लोग उपवास कर रहे हैं तो मैं ही भोजन कैसे ग्रहण करूँ ?" वायसराय की आज्ञा से इलाहाबाद में गाड़ी रोक दी गई। वहाँ बनर्जी ने अपने पुत्रसहित त्रिवेणी स्नान किया, तो फिर गाड़ी आगे बढ़ी। लौटने पर वायसराय को धन्यवाद देते हुए कहा—"कुछ खा-पी लेने से किसी की जाति जाती हो, इस संबंध में मेरा कोई तर्क नहीं, पर इन नियमों के पालन से आत्मसंयम और अनुशासन की शिक्षा मिलती है। हमारे धर्म और संस्कृति में जो ऐसी बाते हैं, उनको मैंने इसीलिए हृदय से स्वीकार किया है।"